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विकलांगता के चित्रण पर सुप्रीम कोर्ट की सराहनीय पहल

05:00 AM Jul 17, 2024 IST
विकलांगता के चित्रण पर सुप्रीम कोर्ट की सराहनीय पहल

बीते दिनों विकलांग व्यक्तियों के अपमानजनक चित्रण के लिए फिल्म ‘आंख मिचोली’ पर प्रतिबंध लगाने की याचिका पर सुनवाई करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में फिल्मों और वृत्तचित्रों सहित दृश्य मीडिया में विकलांग व्यक्तियों के प्रति रूढ़िबद्धता और भेदभाव को रोकने के लिए व्यापक दिशा-निर्देश निर्धारित किए। दरअसल, 2023 में रिलीज हुई फिल्म में अल्जाइमर पीड़ित एक पिता के लिए भुलक्कड़ बाप, मूक-बधिर के लिए साउंड प्रूफ सिस्टम, हकलाने वाले शख्स के लिए अटकी हुई कैसेट जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। इसको आधार बनाकर दिव्यांग वकील निपुण मल्होत्रा ने पहले दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दाखिल कर इस फिल्म की निर्माता कंपनी सोनी पिक्चर को निर्देश देने की मांग की थी कि वह दिव्यांग लोगों द्वारा झेली जाने वाली परेशानियों के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए शार्ट मूवी बनाएं न कि उनका मजाक बनाने वाली फिल्में बनाएं। दिल्ली हाई कोर्ट ने मल्होत्रा की याचिका खारिज कर दी थी। हाई कोर्ट से खारिज होने के बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई थी।
वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की कुल जनसंख्या में 2.21 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले दिव्यांगजनों की समाज में सम्पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित करने पर बल देने वाले कानूनों की उपस्थिति के बावजूद सरकारों ने इस ओर कम ही ध्यान दिया है। विदित हो कि सरकार द्वारा दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 पारित किया जा चुका है ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का पालन अपरिहार्य हो जाता है।
विकलांगता को हमेशा हमारे समाज में हाशिये पर रखा गया है। यही वजह है कि विकलांगता को परिभाषित करते हुए विकलांग लोगों को कमतर या अलग आंका जाता है। विकलांग लोगों को इसी सोच की वजह से शिक्षा, रोजगार, घर-परिवार और सार्वजनिक जगहों पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। विकलांगता के प्रति पूर्वाग्रह इतने गहरे हैं कि इसे हीनता, पाप, कर्मों का फल और बेचारगी के तौर पर समझा जाता है। समाज में विकलांगता को लेकर जागरूकता कम होने की वजह से संवेदनशीलता की भारी कमी है। यह धारणा समाज के प्रत्येक वर्ग के लोगों में है। मीडिया के अलग-अलग माध्यमों की भी इसमें बड़ी भूमिका है। सिनेमा, टीवी या विज्ञापन हर जगह विकलांगता को लेकर उस संवेदनशीलता और जानकारी का अभाव नजर आता है जिसकी आवश्यकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने फिल्मों में दिव्यांगजनों को दिखाए जाने को लेकर भी गाइडलाइन भी जारी की है। कोर्ट ने कहा कि दिव्यांगजनों की चुनौतियां, उपलब्धियां और समाज में उनके योगदान को भी ध्यान में रखना चाहिए। फिल्म का संदेश क्या है, ये भी फिल्मकार या सीन क्रिएट करने वाले को ध्यान में रखना चाहिए। दिव्यांगों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए गाइडलाइन जारी की है। सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार फिल्म, डॉक्यूमेंट्री और विजुअल मीडिया के लिए दिव्यांगजनों के हित में गाइडलाइन जारी की है।
यह विडंबना ही है कि प्राकृतिक कारणों या किसी दुर्घटना के चलते शारीरिक अपूर्णता के शिकार लोगों के प्रति भारतीय समाज में कमोबेश सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया जाता रहा है। हालांकि, अब स्थितियों में बदलाव आया है। अब उन्हें एक सम्मानजनक नाम दिव्यांग देने का प्रयास किया गया है लेकिन परंपरागत समाज में उनके उपहास व उपेक्षा का भाव अब भी किसी न किसी रूप में सामने आ जाता है। यही वजह है कि इस दिशा में देश की शीर्ष अदालत को सार्थक पहल करनी पड़ी है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि शारीरिक अपूर्णता वाले दिव्यांगों को अपंग व ऐसे अन्य अपमानजक शब्दों से आहत करने की इजाजत किसी को नहीं दी सकती है। दरअसल, उनको लेकर समाज में व्याप्त रूढ़िवादी सोच को बदलने की जरूरत है। अब फिल्म निर्माताओं का भी दायित्व है कि फिल्मों का निर्माण करते वक्त ऐसे हास्यबोध वाले चित्रण से गंभीरता के साथ परहेज किया जाए। कैमरे के जरिये उनका ऐसा चित्रण होना चाहिए जिससे समाज में उनके प्रति संवेदनशील, समावेशी सोच और यथार्थवादी रवैया अपनाया जाए।
फिल्म, टेलीविजन, विज्ञापन सूचनाओं के वे माध्यम है जिनकी पहुंच बड़ी संख्या में लोगों तक है। लेकिन बात जब प्रतिनिधित्व की आती है तो ये केवल एक बड़े वर्ग को ही अपनी टॉर्गेट ऑडियंस मानते हैं। यह समझना बहुत जरूरी है कि विकलांग लोगों को मुख्यधारा के समाज में लाने के लिए उन जगहों पर अपना स्पेस क्लेम करना होगा जो अन्य लोगों के लिए हैं। सिनेमा में अक्सर विकलांगता को लेकर एक नकारात्मक विचारों का ज्यादा बोलबाला रहा है। फिल्म और टेलीविजन के जरिये विकलांगता के प्रति पूर्वाग्रहों को स्थापित करने का काम किया गया है। फिल्म, टीवी, विज्ञापनों में हर जगह बड़े पैमाने पर ग्लैमरस व्यक्तियों, नॉन डिसएब्लड का इस्तेमाल करता है। इतना ही नहीं विकलांग लोगों से जुड़े अभियान या आवश्यकता को भी ऐसे ही लोगों के द्वारा संचालित करते हुए देखा जाता है। यह चलन विकलांग लोगों को अलग-थलग करने और बॉडी शेमिंग जैसी व्यवहारों को बढ़ावा देते हैं।
भारतीय सिनेमा जगत में तो निर्देशकों ने विकलांगता को बहुत ही अनुचित तरीके से पेश किया है। केवल कुछ गिने-चुने निर्देशक है जिन्होंने विकलांग लोगों के नजरिये से फिल्में बनाकर विकलांगता के बारे में जागरूकता फैलाने का काम किया है। विकलांग लोगों के जीवन के पहलुओं को संवेदनशीलता और समावेशी सोच के तहत सामने रखा है। उनकी सीमाओं, क्षमताओं और इच्छाओं पर बात की है। हिंदी कमर्शियल या मुख्यधारा के सिनेमा से विकलांगता को लेकर स्टीरियोटाइप को बढ़ावा देने का काम किया गया है। भारतीय फिल्मों, वेब सीरीज और विज्ञापनों में विकलांगता का गलत चित्रण की वजह से समाज में नकारात्मक सोच बनी
हुई है।।

फिल्मों में मानसिक स्वास्थ्य की स्थितियों का मजाक उड़ाते हुए और सहमति का उल्लघंन करने हुए और उपचार को लेकर भी बहुत असंवेदनशील माहौल दिखाया जाता है। मीडिया के अलग-अलग माध्यमों में विकलांग अभिनेताओं, मीडिया पेशवरों और विशेषज्ञों को हमेशा टीवी, फिल्म में बहुत कम प्रतिनिधित्व देखने को मिलता है। फोबर्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार बीबीसी, आईटीवी, चैनल 4 और स्काई जैसे प्रसारकों द्वारा समर्थित रिपोर्ट में पाया गया है कि विकलांग लोगों ऑफ-स्क्रीन वर्कफोर्स का केवल 5.2 प्रतिशत और ऑन-स्क्रीन कार्यबल का 7.8 फीसदी हिस्सा बनाते हैं। यह आंकड़ा दिखाता है कि दुनियाभर में विकलांग लोगों को इस उद्योग से कैसे बाहर रखा गया है।
फिल्म व अन्य दृश्य माध्यमों में उन्हें सकारात्मक ढंग से प्रस्तुत करना, उनके मनोबल को बढ़ाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम कहा जा सकता है। दरअसल, नियामक व्यवस्था में दिव्यांगों की भागीदारी न होने के कारण ऐसी सोच का समय रहते प्रतिकार नहीं हो सका है। इस मामले में मुख्य न्यायाधीश का संदेश साफ था कि दिव्यांगों के प्रति संवेदनशील व्यवहार उन्हें समझने में मदद करता है,लेकिन यदि शारीरिक अपूर्णता को हास्य का विषय बनाया जाता है तो इससे उनका मनोबल प्रभावित होता है।
यह प्रशंसनीय है कि शारीरिक अपूर्णता के चलते तमाम तरह के कष्ट झेल रहे दिव्यांगों के प्रति समाज के संवेदनशील व्यवहार की ओर शीर्ष अदालत ने ध्यान दिलाया है। निस्संदेह, शीर्ष अदालत ने उचित ही निष्कर्ष निकाला है कि रचनात्मक स्वतंत्रता के ये मायने कदापि नहीं होते कि पहले से हाशिये पर मौजूद लोगों का उपहास किया जाए, उन्हें रूढ़िवादी सोच का शिकार बनाया जाए, उनको लेकर गलत बयानबाजी की जाए। कुल मिलाकर उनको अपमानित करने की आजादी किसी को नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने इस संवेदनशील मुद्दे पर देशवासियों का ध्यान खींचा है। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय की जितनी प्रशंसा की जाए वो कम ही है।

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Shera Rajput

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