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ईरान में कट्टरपंथ की हार

06:20 AM Jul 08, 2024 IST
ईरान में कट्टरपंथ की हार

ईरान में हुए राष्ट्रपति चुनाव में सुधारवादी मसूद पेजेशकियान कट्टरपंथी नेता सईद जलीली को 30 लाख वोटों से हराकर देश के नौवें राष्ट्रपति बन गए हैं। ईरान में पहले चरण की वोटिंग में किसी उम्मीदवार को 50 फीसदी वोट हासिल नहीं हुए थे इसलिए दोबारा मतदान कराया गया था। इसी वर्ष 19 मई को ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की हैलीकॉप्टर दुर्घटना में मौत हो गई थी। इसके बाद नए राष्ट्रपति के लिए चुनाव कराए गए थे। ईरान इस समय बहुत नाजुक दौर से गुजर रहा है। तनाव के बीच मसूद पेजेशकियान को काफी उदारवादी माना जाता है और वे पूर्व राष्ट्रपति हसन रूहानी के काफी करीबी हैं। पेशे से हार्ट सर्जन होने के साथ-साथ वे कुरान भी पढ़ाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे हिजाब के जबरदस्त विरोधी हैं। वे महिलाओं की स्वतंत्रता के भी पक्षधर हैं। ईरान में महिलाएं अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए आज भी संघर्ष कर रही हैं। नए राष्ट्रपति का कहना है कि किसी को भी मॉरल पुलिसिंग का हक नहीं है।

2022 में महसा अमीनी की मौत के बाद ईरान में हिजाब का विरोध हो रहा था। तब पेजेशकियान ने ईरान की सत्ता के खिलाफ जाते हुए एक इंटरव्यू में कहा था, "यह हमारी गलती है। हम अपनी धार्मिक मान्यताओं को ताकत के जरिए थोपना चाहते हैं। यह साइंटिफिक तौर पर मुमकिन नहीं है।" पेजेशकियान ने कहा था, "देश में जो भी हो रहा है उसके लिए मेरे साथ-साथ धार्मिक स्कॉलर और मस्जिदें, सब जिम्मेदार हैं। एक लड़की को पकड़कर, उसे मारने की जगह सभी को आगे आकर बदलाव की जिम्मेदारी लेनी होगी।" 2022 में उन्होंने ईरानी औरतों की आजादी के गाने 'औरत, जिंदगी, आजादी' को अपनी रैली में इस्तेमाल किया था। ये गाना ईरान में औरतों की आजादी के लिए चलाई गई कैंपेन 'बराए' से है। पेजेशकियान ने 'बराए' से प्रेरित होकर अपनी कैंपेन का नाम 'बराए ईरान' यानी 'फॉर द लव ऑफ ईरान' रखा। ये कैंपेन सार्वजनिक जगहों पर किस करने और नाचने की मांग करता है। मसूद ईरान किंग रोजा शाह के दौर में सेना में भी रहे थे। 1980 में जब इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन ने ईरान पर हमला किया था तो मसूद ने युद्ध के दौरान घायलों का इलाज किया था। वे ईरान के राष्ट्रपति मोहम्मद खतामी के कार्यकाल में स्वास्थ्य मंत्री भी रह चुके हैं।

ईरान दुनिया का सबसे पुरानी सभ्यताओं से संबंध रखने वाला सुन्दर देश है। 1979 की इस्लामिक क्रांति से पहले ईरान में महिलाएं आधुनिक परिधान पहनती थीं, ऊंची एडी के सैंडल और स्कर्ट पहनती थीं। वे देर रात की पार्टियों में भाग लेती थीं। शाह के शासनकाल में महिलाओं को पूरी स्वतंत्रता थी। महिलाओं के लिए सारे दरवाजे खुले थे। वे राजनीति से लेकर​​ शिक्षा क्षेत्र और नौकरियों में भी भागीदार थीं, लेकिन आयातुल्ला खुमैनी की रूढ़िवादी क्रांति ने ईरानी महिलाओं की प्रगति में भारी उलटफेर कर दिया। तब से ही ईरान में धार्मिक कानून लागू है और महिलाओं का उत्पीड़न जारी है। ईरान में हिजाब विरोधी महिलाओं के आंदोलन के सत्ता की चूलें तक हिला दी थीं। अब सवाल यह है कि क्या नए राष्ट्रपति ईरान में बदलाव ला सकेंगे। भले ही वे महिलाओं की स्वतंत्रता के समर्थक हैं लेकिन वे सुप्रीम लीडर खामेनी की मंजूरी के ​बिना कुछ ज्यादा नहीं कर पाएंगे। मसूद पेजेशकियान अमेरिका से वार्ता करने और ईरान के परमाणु कार्यक्रम के चलते लगी पाबंदियों में कुछ रियायतें हासिल कर सकते हैं। वे ईरान की सामाजिक नीतियों में भी बदलाव करने का प्रयास करेंगे। जहां तक इजराइल-हमास युद्ध का सवाल है ईरान की नीति में कोई ज्यादा फेरबदल की सम्भावना नहीं है, क्योंकि नए राष्ट्रपति का भी इजराइल को लेकर रुख पूर्व राष्ट्रपतियों की तरह ही है। मसूद को ईरान की आंतरिक राजनीति को भी ध्यान में रखना होगा। क्योंकि देश में अभी भी बड़े पैमाने पर कट्टरपंथियों का नियंत्रण है।

देखना होगा कि परमाणु कार्यक्रम को लेकर मसूद अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के साथ तनाव कैसे कम करते हैं। जहां तक भारत का संंबंध है, दोनों देशों के संबंध काफी अच्छे रहे हैं। हालांकि कई बार संबंधों में बाधाएं भी आईं। हाल ही में भारत और ईरान ने चाबहार बंदरगाह के संचालन के लिए ईरान से समझौता किया, जिससे पाकिस्तान और चीन ईरानी सरहद के निकट ग्वादर पोर्ट को विकसित कर रहे हैं। ऐसे में भारत, ईरान और अफगानिस्तान को जोड़ने वाले चाबहार बंदरगाह को ग्वादर पोर्ट के लिए चुनौती माना जा रहा है। अब उदारवादी मसूद के राष्ट्रपति बनने से भारत के साथ संबंधों में कोई असर नहीं होने वाला। ​िफलहाल मसूद की जीत कट्टरपंथी ​िवचारधारा की पराजय की शुरूआत के तौर पर देखी जानी चाहिए।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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Shivam Kumar Jha

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