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दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतेखाब !

06:36 AM Jul 10, 2024 IST
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जो लोग कहते हैं कि रोम की ईंट-ईंट पर इतिहास लिखा है, शायद नहीं जानते कि दिल्ली के कण-कण पर इतिहास की छाप है। दिल्ली आठ बार उजड़ी और आठ बार बसी। यहां से शहर देखने से दिमाग में कुछ बिंब उभरते हैं जैसे पहला महाकाव्य का शहर, दूसरा सुल्तानों का शहर, तीसरा शाहजहांनाबाद और चौथा नई दिल्ली से आज की दिल्ली तक।क्या ख़ूब कहा है, मीर तकी मीर ने दिल्ली के इतिहास पर :

"दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतेखाब,
रहते थे यहां मुंतखिब ही रोज़गार के,
इसको फ़लक ने लूट के पामाल कर दिया,
हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के!"

अपनी इस शायरी में मीर ने दिल्ली को आलम में इंतेखाब अर्थात विश्व का सबसे विलक्षण शहर बताया। साथ ही साथ उन्होंने इस बात का भी हवाला दिया कि समय समय पर दिल्ली बर्बाद हुई है। वैसे असली दिल्ली पुरानी दिल्ली है, जिसका इतिहास इंद्रप्रस्थ से लेकर शाहजहांनाबाद तक का है न कि नई दिल्ली का। "दिल्ली को सभी ने एक तवायफ की तरह निचोड़ा, मगर उसका अधिकार उसे नहीं दिया!" अक्सर कहा करते थे, जगप्रवेश चंद्र, दिल्ली के पूर्व चीफ़ एग्जिक्यूटिव काउंसलर।

वास्तव में दिल्ली इतना सुंदर और लुभावना शहर था कि इसके आगे बगदाद, काबुल, तेहरान, इस्फाहान आदि सभी पानी भरते थे। इन्हीं खूबसूरत आधारों को देख एक अन्य विख्यात शायर और अंग्रेज़ों के विरुद्ध भारत की आजादी का बिगुल बजाने वाले, शहंशाह बहादुर शाह जफर के उस्ताद, उस्ताद शेख मुहम्मद इब्राहीम ज़ौक ने दिल्ली के कूचों, कटरों, फाटकों और आहतों के बारे में कहा था:

दिल्ली के कूचे न थे, औराक़-ए-मुसव्विर थे,
जो शक्ल नज़र आई, तस्वीर नज़र आई!

जिस जिंदादिली से दिल्ली वाले अपन जीवन व्यतीत करते हैं, वह विश्व में कहीं भी आपको नहीं मिलेगा। इनकी दिनचर्या मंदिरों में पूजा और मस्जिदों में दिल्ली का इतिहास, शहर की तरह ही रोचक है। इस शहर के इतिहास का सिरा महाभारत तक जाता है, जिसके अनुसार, पांडवों ने इंद्रप्रस्थ बसाया था। दिल्ली का सफर लालकोट यानी दिल्ली क्षेत्र का पहला निर्मित नगर, किला राय पिथौरा, सिरी, जहांपनाह, तुगलकाबाद, फिरोजाबाद, दीनपनाह, शाहजहांनाबाद से होकर नई दिल्ली तक जारी है। रायसीना की पहाड़ी पर बने राष्ट्रपति भवन के सामने खड़े होकर बारस्ता इंडिया गेट नजर आने वाला पुराना किला, वर्तमान से स्मृति को जोड़ता है।

हिंदू-मुस्लिम एकता का भी इतिहास रहा है दिल्ली में। वैसे फ़ारसी में दिल्ली का इतिहास लिखने वाले मिर्ज़ा संगी बेग का मानना है कि सदा से ही अंतर्धर्म सद्भाव और संभाव की नगरी रही इस दिल्ली का क्षेत्र फल लाल क़िले से महरौली तक था, जिसे कहा जाता था, "किला-ए-मुल्ला ता महरौली"। जब मुस्लिम नमाज़ी, मस्जिदों से नमाज़ पढ़ कर बाहर आते थे तो बिरादराना-ए-वतन, यानि हिंदू अपने बीमार बच्चों को स्वस्थ कराने के लिए उन से दम कराया करते थे, क्योंकि ऐसा विश्वास है कि क़ुरान की आयतों में सेहत अता करने की ईश्वरीय शक्ति है। दिल्ली की ऐतिहासिक हवेलियों में हिंदू-मुस्लिम, नवाब, लाला, मुंशी, मनसबदार आदि ऐसे मिल जुल कर रहते थे और कभी भी एक-दूसरे से नहीं रूठते थे, अलग नहीं होते थे, जैसे गोश्त से नाखून। इन्हीं हवेलियों में कई हवेलियों का जीर्णोद्धार कराया गया है, जिस में पुरानी दिल्ली के वेजिटेरियन भोजन मिलते हैं और जहां देश-विदेश के सैलानी जाकर खानों के चटखारे तो लेते ही हैं, हवेली की पुरानी शाहजहानाबादी वास्तुकला से भी लुत्फ अंदोज होते हैं।

चांदनी चौक बाज़ार जो लाल क़िले से शुरू होता है, उसमें दिगंबर जैन लाल मंदिर है, औरंगजेब की मदद से बना अप्पा गंगाधर (औरंगजेब का सबसे विश्वासपात्र सेनापति) मंदिर, जिसे गौरी शंकर मंदिर कहा जाता है और जहां सबसे भव्य आरती होती है, सुनहरी मस्जिद, जिसके नीचे तैमूर लंग ने सैकड़ों दिल्ली वाले काट डाले थे, सेंट्रल बैप्टिस्ट चर्च, आर्य समाज मंदिर, कटरा नील का शिव मंदिर और मस्जिद फतेहपुरी, इस बात का प्रमाण हैं कि दिल्ली या भारत का ही नहीं, बल्कि विश्व का यह अंतर्धर्म सद्भाव का मात्र अनूठा बाज़ार है।

आहा ! खान-पान में तो पुरानी दिल्ली का जवाब नहीं। यह तो खान-पान की जन्नत है। खाने चाहे वेज हों या नॉन वेज, विश्व में इसकी टक्कर के व्यंजन कहीं नहीं। चाहे परांठे वाली गली के परांठे हों, ‘जलेबी वाला’ की रसदार जलेबियां हों, चाहे ‘नटराज दही भल्ला’ के दही भल्ले हों या तरह-तरह की वर्षों पुरानी चर्चित मिठाई की दुकानें व मिठाईयां हों अथवा ‘दौलत की चाट’ हो, ये सभी लाजवाब हैं। सीता राम बाजार की वो चाट पकोड़ी की दुकानें, हलवा नागोरी, बाज़ार हौज क़ाज़ी, लाल कुआं में इदरीस की पूड़ी, कौचड़ी सब्ज़ी का क्या कहना। और हां, कूचा पातीराम में रबड़ी की दुकानें, कुल्हड़ की कुल्फी का मज़ा लेने पूरी दुनिया से लोग यहां आते हैं।

फ़सील बंद दिल्ली अर्थात् ‘वॉल्ड सिटी’ के सब से ख़ूबसूरत और भव्य बाज़ार, चांदनी चौक में एक समय, कंधार के अनार, काबुल के मेवे, इस्फाहान की इमली, बेल्जियम के झाड़ फानूस, फ्रांस की सुगंधियां, ब्राज़ील की कॉफी, अमेरिका के पारकर पैन, जर्मनी के झिंगन क्लॉक, ग्लौस्टर की कॉटन, साइप्रेस के रसीले आड़ू, ढाका के जूट के मोंढे आदि बड़े कम दामों में मिल जाया करते थे। ऐसे फल भी मिल जाया करते थे जिनके बारे में आज के बच्चों को तो क्या बूढ़ों को भी पता नहीं होगा, जैसे -कसेरू चकोतरा, फीरनी, जलेबा आदि। दिल्ली पर राज तो सभी राजनीतिक दलों ने किया, मगर जिस प्रकार से इसे दुल्हन बना सकते थे, किसी ने नहीं किया। गालिब ने क्या ख़ूब कहा है कि यदि भारत शरीर है तो दिल्ली इसकी आत्मा।

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