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ढाके की मलमल और टैगोर प्रदत्त राष्ट्रगान

01:36 AM Aug 12, 2024 IST
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दो बातों के लिए विश्व में चर्चित ढाका इन दिनों अपने अस्तित्व के सर्वाधिक नाजुक चरण से गुजर रहा है। गुरुदेव टैगोर के एक गीत को अपना राष्ट्रगान बनाने वाले इस देश को निरंतर अपने भीतरी आक्रोश व तूफानों से गुजरना पड़ा है। अभी भी तबाही का सिलसिला थमा नहीं है।
हमें ‘जन गण मन’ का राष्ट्रगान देने वाले टैगोर ही बंगलादेश के राष्ट्रगान ‘आमार सोनार बांग्ला’ के रचयिता थे। फिलहाल बंगलादेश, इस ‘आमार सोनार बांग्ला’ की विशिष्ट पहचान, इसके साहित्य और समृद्ध संस्कृति के अलावा ‘ढाका की मलमल’ से जुड़ी हुई है।
ये तथ्य वहां की नई पीढ़ी को शायद स्मरण नहीं होंगे। लगभग 200 वर्ष पूर्व ‘ढाका की मलमल’ पूरे विश्व में सर्वाधिक बहुमूल्य मानी जाती थी। वैसे 17वीं सदी में ढाका की इन मखमली मुलायम मलमल के वस्त्र मुगल शासक भी पहनते थे। कहा तो यह भी जाता है कि मलमल की कताई-बुनाई इतनी महीन व मखमली होती थी कि इसका एक थान, एक अंगूठी में से गुजारा जा सकता था। वैसे इस शब्द ‘मलमल’ से पहला परिचय प्रख्यात विश्व यात्री मार्कोपोलो ने मोसुलर (इराक) के हवाले से दिया था। इसके बाद 18वीं शताब्दी में फैशन-इतिहासकार सूसन ग्रीन ने भी पूरे ब्यौरे के साथ इससे दुनिया का परिचय कराया था। तब यह मलमल दुर्लभ थी और बेहद महंगी भी। इसके 100 थान दिल्ली के सुल्तान माेहम्मद तुगलक ने उपहार के रूप में चीन के तत्कालीन सम्राट के भेजे थे।
ऐसा क्या था जो इस वस्त्र को दुर्लभ भी बनाता था और इसे ढाका व आसपास के इलाकों से ही जोड़े रखा गया था। इसके कपासी पौधों का उत्पादन मेघना नदी के किनारे वाले सूखे क्षेत्रों में ही होता था। इसकी कताई के लिए भी अलग किस्म के उपकरण बनाए जाते थे। जितनी यह ‘मलमल’ मुलायम थी उतनी ही इस पर विशेष चित्रकारी भी की जाती थी। बाद में इसी से ‘जामदानी साड़ियां’ भी बनाई जाने लगी थीं।
यह भी विशेष उल्लेखनीय है कि इस मलमल पर लोकगीत भी रचे गए, गीत भी और िफल्में भी बनी। ढाका में इसका अलग से एक म्यूजियम भी है मगर न जाने अब उसका क्या हश्र हुआ होगा लेकिन जो ढाका की मलमल 200 साल तक इस धरती का सबसे कीमती कपड़ा बनी रही और फिर सिरे से गायब हो गई। आखिर ऐसा कैसे हुआ?
ढाका की मलमल का सफर लंबा रहा है। एक दौर में यह दुनिया का सबसे बेहतरीन कपड़ा माना जाता था और सबसे कीमती भी लेकिन वक्त के साथ यह सिमटता चला गया। आजकल इस कपड़े की शान फिर से लौटाने की कवायद चल रही है।
ढाका की मलमल सोलह चरणों से गुजरने के बाद तैयार होती है। वह उस नायाब कपास से बनाई जाती थी जो बंगलादेश (तत्कालीन भारतीय बंगाल) की मेघना नदी के किनारे पैदा किया जाता था।
हजारों साल से यह कपड़ा पूरी दुनिया में पसंद किया जाता रहा था। प्राचीन ग्रीस में देवियों की मूर्तियों को मलमल के कपड़े पहनाए जाते थे। कई देशों की साम्राज्ञियों के परिधान मलमल से तैयार होते थे। भारतीय उप महाद्वीप में राज करने वाले मुगल बादशाहों और अमीर-उमरावों के वस्त्र भी इसी कपड़े से तैयार होते थे। मलमल का ये कपड़ा कई किस्मों का होता था। राजदरबार के कवियों ने इससे प्रभावित होकर इसका नाम ‘बफ्त हवा’ यानी बुनी हुई हवा रखा। कहा जाता है कि आला दर्जे का यह कपड़ा हवा जितना हल्का होता था। यह इतना महीन होता था कि आप 300 फीट लंबे कपड़े के टुकड़े को अंगूठी से निकाल सकते थे। एक अन्य यात्री ने लिखा था कि आप 60 फीट लंबे कपड़े को तह करके सूंघनी की छोटी डिबिया में रख सकते थे।
आमतौर पर मलमल उन दिनों साड़ी या जामा (कुरता) बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था लेकिन ब्रिटेन में यह संभ्रांत लोगों का कपड़ा बन गया। यह इतना पारदर्शी हुआ करता था कि कई बार इसे पहनने वाले उपहास के भी पात्र बने।
हालांकि ढाका की मलमल की लोकप्रियता कम नहीं हुई। जो लोग इसे खरीदने की क्षमता रखते थे वही पहनते थे। यह उस दौर का सबसे महंगा कपड़ा था। साल 1851 के आसपास एक गज मलमल की कीमत 50 से 400 पाउंड के बीच होती थी। आज के हिसाब से यह 7 हजार से लेकर 56 हजार पाउंड का बैठता है। इसके संभ्रांत कद्रदानों की कमी नहीं थी। इनमें फ्रांस की क्वीन मैरी एंटोनेट से लेकर साम्राज्ञी बोनापार्ट और जेन ऑस्टिन तक शामिल थीं लेकिन जब तक यह कपड़ा नव जाग्रत यूरोप पहुंचा तब तक यह गायब होना शुरू हो गया।
20वीं सदी की शुरूआत तक ढाका की मलमल दुनिया के हर कोने से गायब हो चुकी थी। जो कुछ थोड़ा बहुत कपड़ा बच गया वह लोगों के प्राइवेट कलेक्शन और संग्रहालयों में रह गया था। यह पूरी तरह सामुदायिक काम था जिसमें युवा और बुजुर्ग, महिलाएं, पुरुष सब शामिल होते थे। पहले कपास के छोटे गोले बोआल मछली के दांत के कंघों से साफ किए जाते थे। इसके बाद सूत की कताई होती थी। धागे तैयार करने के लिए काफी नमी की जरूरत पड़ती था ताकि ये खिंच सके। इसलिए यह काम नावों पर किया जाता था। यह काम बिल्कुल सुबह या ढलती दोपहरी में होता था जिस वक्त सबसे ज्यादा नमी होती है। बुजुर्ग सूत नहीं कातते थे क्योंकि अपनी कमजोर आंखों की वजह से वे महीन धागे को ठीक से देख नहीं पाते थे। साल 2012 में मलमल पर किताब लिखने वाली लेखिका और डिजाइन इतिहासकार सोनिया आशमोर कहती हैं कि सूती धागे में बीच-बीच में महीन गांठ होती थी जो पूरे धागे को जोड़े रखती थी। इससे धागे की सतह पर एक रुखापन होता था जो काफी अच्छा अहसास देता है। ढाका की मलमल इतनी शानदार थी कि इस इलाके में आने वाले लोगों को इस बात पर विश्वास ही नहीं होता था कि यह इंसानी हाथों से बना हुआ है। कुछ लोग तो यह मानते थे कि इसे जलपरियां या भूत बनाते हैं।
बंगलादेश नेशनलिस्ट क्राफ्ट काउंसिल की प्रेसिडेंट रूबी गजनवी का कहना है कि मलमल इतनी हल्की और मुलायम होती है कि इसका जवाब ही नहीं। आज यह कपड़ा कहीं नहीं दिखता। साल 2013 में यूनेस्को ने जामदानी बुनाई को एक सांस्कृतिक धरोहर के तौर पर संरक्षित किया था।
आशमोर कहती हैं मुगलकाल मलमल के लिए सबसे अच्छा समय था। मुगल बादशाहों और उनकी रानियों ने मलमल को खूब संरक्षण दिया। उन दिनों फारस (अब ईरान) इराक, तुर्की और मध्य पूर्व के देशों तक मलमल का व्यापार होता था।
ढाका की मलमल इतनी बारीक होती थी कि इसकी कई तहों के बावजूद शरीर के अंग इससे दिखते थे। कहा जाता है एक बार औरंगजेब ने मलमल पहन कर दरबार में आने पर अपनी बेटी को डांटा था जबकि उसने सात तह किए हुए मलमल के कपड़े पहने थे जिन दिनों लंदन में लोग मलमल के कपड़े पहन कर गर्व महसूस कर रहे थे ठीक उसी वक्त इसके कारीगर कर्ज में डूब कर आर्थिक तौर पर बर्बाद हो रहे थे। ‘गुड्स फ्रॉम द ईस्ट 1600-1800 नाम की एक किताब में कहा गया है कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने 18वीं सदी के आखिर में मलमल बनाने की नाजुक प्रक्रिया में टांग अड़ाना शुरू किया। सबसे पहले कंपनी ने मलमल के स्थानीय खरीदारों को हटा कर इसे खुद खरीदना शुरू कर दिया। आशमोर कहती हैं कि उन्हें इसके प्रोडक्शन पर शिकंजा कस लिया और फिर पूरे कारोबार पर कब्जा कर लिया। इसके बाद वे बुनकरों से कम कीमत पर ज्यादा कपड़ा तैयार करने को कहने लगे। अब वह स्वर्ण युग समाप्त हो चुका है।

- डॉ. चंद्र त्रिखा

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