दिल्ली की रहस्यमयी शख्सियत डोना जूलियाना
देश की राजधानी दिल्ली में लगभग हर मोड़ पर रहस्यमयी गाथाएं कुनमुना रही हैं। दिल्ली ने इन सब गाथाओं व उनमें वर्णित पात्रों को अलग-अलग समय पर भोगा है, जिया है, देखा है। इन रहस्यमयी गाथाओं में एक तथ्यात्मक किस्सा एक पुर्तगीज़ महिला जूलियाना का भी है। जूलियाना का दबदबा वर्तमान ओखला क्षेत्र, न्यू डिफेंस कॉलोनी के कुछ क्षेत्र और कश्मीरी गेट के समीप स्थित दारा-शिकोह की हवेली तक फैला हुआ था। उसके नाम पर सराय भी है और अनेक ऐसी सम्पत्तियां हैं जिनकी विरासत का दावा करने वाले अभी भी इधर-उधर से दस्तावेज एकत्र करने में लगे हैं। किंवदंती है कि उसकी रूह अब भी इस क्षेत्र में भटकती है। दिल्ली की मुगलिया सल्तनत में जूलियाना के परिवार का प्रवेश औरंगजेब के काल में ही हो गया था मगर उसका प्रभामण्डल औरंगजेब के पौत्र बहादुर शाह प्रथम के शासनकाल में फैला।
दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली में सुखदेव विहार मेट्रो स्टेशन के पास एक ऐसा इलाका है जहां आज दिल्ली विकास प्राधिकरण के फ्लैट हैं। कई लोगों के लिए सराय जुलेना गांव अन्य बस्तियों की तरह ही एक और बस्ती है लेकिन ऐतिहासिक रूप से यह एक ऐसी पुर्तगाली महिला की याद दिलाती है, एक ज़माने में, मुग़ल दरबार में जिसका रुतबा, किसी महारानी से कम नहीं था। इस महिला का नाम था डोना जूलियाना डायस डि कोस्टा, जिसे मुग़ल साम्राज्य में एक अति महत्वपूर्ण हैसियत के लिए जाना जाता था। उसकी शख्सियत आज भी रहस्यमय और विवादास्पद बनी हुई है। यदि ऐतिहासिक दस्तावेंज़ों पर भरोसा किया जाए तो वह मुगल दरबार में बहुत ताक़तवर और असरदार महिला थी और हां, कहा जाता है कि उनके पास दैवीय शक्ति भी थी।
जूलियाना शाही दरबार में कैसे पहुंच गईं, यह इतिहासकारों के बीच बहस का विषय बना हुआ है। इसके अलावा उनके जन्म का वर्ष और उम्र भी रहस्यों से घिरा हुआ है। मुगल दरबार में यूरोपीय देशों के लोगों का आना-जाना लगा रहता था लेकिन इनके बीच एक पुर्तगाली महिला ने आखिरकार कैसे अपनी जगह बना ली। प्राप्त विवरण के अनुसार, उसने मुगल शहजादे मुअज्ज़म को ईसाइयत की ओर भी झुका लिया था।
मुगल बादशाह शाहजहां के आदेश पर पुर्तगाली बंदरगाह शहर हुगली (बंगाल) पर हमला किया गया था। दरअसल, पुर्तगाली, मुग़लों के जहाज़ों पर लगातार हमले करते रहते थे और उसी के बदले में ये कार्रवाई की गई थी। हमले के बाद कई पुर्तगालियों को बंधक बना लिया गया था जिनमें जूलियाना के पिता ऑगस्टिन्हो डायस डिकोस्टा भी थे। उन्हें और उनकी पत्नी को बाद में मुग़ल दरबार में काम मिल गया। बाद में डिकोस्टा की पत्नी, शाहजहां की एक बेगम की दासी बन गई। कहा जाता है कि इसी दौरान जूलियाना का जन्म हुआ था।
जब जूलियाना 17 साल की हुई, तब उसके जीवन में एक नया दौर शुरू हुआ। तब तक औरंगज़ेब बादशाह बन चुका था और उसने अपने 18 साल के बेटे मुअज्जम की पढ़ाई की जि़म्मेदारी जूलियाना को सौंप दी। जैसे-जैसे दोनों बड़े होते गए, दोनों में नज़दीकियां भी बढ़ती गईं। मुअज्जम जब भी अपने पिता के आदेश पर युद्ध करने जाता था, उसकी हिफाज़त के लिए जूलियाना भी, उसके साथ, उसके हाथी पर सवार होती। जूलियाना के हाथ में लाल झंडे होते थे, जिन पर सफेद रंग का ईसाई क्रॉस बना होता था। जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई, उसे मुग़ल दरबार में शाही हरम और डॉक्टर की प्रभारी जैसे कई जि़म्मेदारियां मिलने लगीं।
लेकिन यह सिलसिला ज्यादा लम्बा नहीं चल पाया। औरंगज़ेब ने मुअज्जम को सन् 1680 के दशक के अंत में बगावत के आरोप में सजा दी और उससे उसके खिदमतगार और हरम छीन लिए गए। उन दिनों जूलियाना किसी तरह क़ैदख़ाने में पहुंचने में कामयाब हो गई और वहां वह मुअज्जम की तीमारदारी करने लगी। वहां उसने मुअज्जम के ऐश-ओ-आराम में किसी तरह की कोई कमी नहीं होने दी। वह उसके लिए चुपके से महंगे तोहफ़े भी ले जाया करती थी।
इस दौरान दोनों के बीच रिश्ते और मज़बूत होते गए और जूलियाना ने मुअज्जम को सलाह दी कि अगर वह सेंट जॉन से दुआ मांगेगा तो वह एक दिन बादशाह बन जाएगा। मुअज्जम दुआ के लिए राज़ी हो गया और उसने वादा किया कि अगर वह बादशाह बन जाता है तो वह जूलियाना को धन-दौलत और दरबार में बड़े-बड़े ओहदों से नवाज़ेगा। संयोगवश मुग़लिया तख्त-ओ-ताज के लिए हुई जंग के बाद, जब मुअज्जम सन् 1707 में बहादुर शाह-प्रथम के रूप में तख्त पर बैठा तो उसने अपने वादे के मुताबिक़ जूलियाना को जूलियाना फिदवी दुआगो (वफादार और अक़ीदतमंद जूलियाना) का खिताब दिया। उसे जागीर में गांव भी दिए गए, जहां आज दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली का ओखला इलाक़ा है। सबसे बड़ी बात ये भी थी कि उसने औरंगज़ेब के भाई दारा शिकोह का महल भी अपनी इस महबूबा को दे दिया।
जूलियाना मुग़ल राजघरानों में ‘बीबी जुलेना’ के रूप में मशहूर हो गईं। जूलियाना चिकित्सा विशेषज्ञ और शाही बच्चों की उस्ताद बन गई जो उन्हें प्यार से मां बुलाते थे। वह मुगल दरबार में कई लोगों की करीबी और भरोसेमंद बन गईं। इसके अलावा कई बुज़ुर्ग महिलाएं उनसे आशीर्वाद और सलाह लेती थीं। उसकी शान का ये आलम था कि वह अक्सर सजे-धजे दो हाथियों के साथ सफर करती थी जिनके साथ पांच हज़ार पैदल सिपाहियों का कारवां चलता था। जूलियाना पर अब तक दर्जनभर किताबें भी आ चुकी हैं। इनमें रघुराज सिंह चौहान व मधुकर तिवारी की ‘जूलियाना-नामा’ भी शामिल है।
18वीं सदी में मुग़लों और पुर्तगालियों दोनों का ही पतन होने लगा। एक तरफ जहां मुग़ल शासित कुछ इलाक़े आज़ाद होने लगे थे, वहीं पुर्तगाली भारत के पश्चिमी तट पर सीमित होकर रह गए। लेकिन इस उथल-पुथल के बीच भी उनके दोस्ताना संबंध बेहतर होते गए जो जूलियाना की वजह से ही मुमकिन हो पाया था। जूलियाना की वजह से जेसुइट मिशन (ईसाई धर्म के प्रचार के लिए बना संगठन) और अधिक सक्रिय हो गया था और सूरत को पुर्तगालियों के लिए शुल्क मुक्त बंदरगाह बना दिया गया। पुर्तगाली सरकार ने इस बात से प्रभावित होकर जूलियाना को मुग़ल दरबार में अपना राजदूत बना दिया। कुछ यूरोपीय इतिहासकारों के अनुसार, जूलियाना ईसाई धर्म और यूरोपीय लोगों के नुमाइंदे के रूप में देखा जाता था।
भारतीय तट पर जब डचों ने पुर्तगालियों को परास्त कर दिया। उसके बावजूद एक निष्पक्ष राजनयिक के रूप में जूलियाना न सिर्फ डच को मिलने का समय देती थी बल्कि ज़रूरत पड़ने पर उनकी मदद भी करती थी। जूलियाना के सम्मान में सन् 1726 में एक डच क्रॉनिकल में उस पर एक चित्र प्रकाशित किया गया था।
सन् 1712 में बहादुर शाह-प्रथम की मौत के बाद जब फर्रुख़सियार और उसके बाद मुहम्मद शाह ‘रंंगीला’ तख्त पर बैठे तब भी जूलियाना की शान और हैसियत में कोई कमी नहीं आई। सन् 1720 में मुहम्मद शाह रंगीला के शासनकाल आते आते जूलियाना बूढ़ी हो चुकी थी और उसने अपने हिस्से के गांव में एक सराय बनवाई थी। जहां यात्री, श्रद्धालु और राहगीर ठहरा करते थे। जिसे आज भी ‘सराय जुलेना’ कहा जाता है। जूलियाना के अंतिम दिनों के बारे कोई जानकारी नहीं है। कुछ लोगों का दावा है कि जूलियाना ने अपने अंतिम दिन गोवा में बिताए, जहां सन् 1734 में उनकी मृत्यु हो गई।
समय के साथ-साथ सराय की शान-ओ-शौकत ख़त्म हो गई। अब यहां डीडीए के फ्लैट हैं। जूलियाना के वंशज कहां गए, ये भी एक राज़ है। 20वीं सदी की शुरुआत में, रायसीना इलाके से विस्थापित हुए गांव वाले यहां आकर बसने लगे थे क्योंकि वहां नई दिल्ली की नींव रखी जा रही थी। जुलेना सराय में ही मसीहगढ़ चर्च पिछले 114 सालों से मौजूद है। आज ‘सराय जुलेना गांव’, एक ऐसी पुर्तगाली महिला की एकमात्र निशानी के रूप में मौजूद है जिसकी हैसियत, मुग़ल दरबार में एक महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञ की सी थी।
- डॉ चन्द त्रिखा