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‘जात न पूछो साधू की’

06:46 AM Aug 01, 2024 IST
‘जात न पूछो साधू की’

लोकतन्त्र दुनिया की सबसे बेहतर शासन प्रणाली है जिसमें आम जनता संसद के माध्यम से सत्ता में भागीदारी करती है। यह जनतन्त्र ही है जो अपनी पारदर्शी चुनाव प्रणाली से संसद में अपने जनप्रतिनिधियों को भेज कर सत्ता पक्ष और विपक्ष के खेमे तैयार करता है और उनके माध्यम से सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है परन्तु इस जनतन्त्र की मर्यादाएं जनप्रतिनिधि ही तैयार करते हैं और सुनिश्चित करते हैं कि सत्ता सर्वदा लोकोन्मुखी रह सके। भारत के लिए जनतन्त्र कोई नई चीज नहीं है हालांकि इसका उद्गम पश्चिमी सभ्यता से ही माना जाता है मगर यह हकीकत है कि आज से छह सौ साल पहले ही सन्त रैदास ने अपनी ‘बेगम पुरा’ रचना में एक समाजवादी लोकतन्त्र की अवधारणा को लिख दिया था और राज्य की मर्यादाएं व नागरिकों (प्रजा) के अधिकारों की व्याख्या की थी। उनके बाद सन्त कबीर ने भी अपनी ‘देस’ रचना में इसी फलसफे को आगे बढ़ाया और घोषणा की कि राजा के चरित्र की पहचान उसके राज में रहने वाले सबसे गरीब व्यक्ति की हालत से की जानी चाहिए। इसके सदियों बाद गांधी हुए और उन्होंने कहा कि लोकतन्त्र कभी भी ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ के सिद्धान्त पर नहीं चल सकता है। इसमें समाज के हाशिये पर पड़े आदमी की कीमत भी वही होगी जो समाज के प्रतिष्ठित समझे जाने वाले आदमी की मानी जाती है। गांधी के इसी सिद्धान्त को बाबा साहेब ने संविधान में उतारा और भारत के प्रत्येक वयस्क नागरिक को एक वोट का अधिकार दिया।

भारत के लोगों को गांधी ने वोट का अधिकार किसी तोहफे की तरह नहीं दिया बल्कि संवैधानिक अधिकार के तौर पर दिया। भारत के सन्दर्भ में यह अधिकार एक क्रान्ति थी जो गांधी जी के अहिंसक आन्दोलन के जरिये हुई थी क्योंकि अंग्रेजों ने भारत को लगातार दो सौ वर्षों तक गुलाम रखकर यहां के नागरिकों में दासता का भाव भर दिया था। इस दासता भाव को गांधी ने वोट क्रान्ति करके भारतीयों के मन से निकाला और ऐलान किया कि राजा किसी महारानी के पेट से पैदा नहीं होगा बल्कि नागरिकों के वोट के अधिकार से पैदा होगा। मगर इस बहुमत के शासन प्रणाली में गांधी ने बहुत एहतियात रखा और कहा कि वह अपने विरोधी के विचार उसे अपने से ‘ऊंचे आसन’ पर बैठा कर सुनना पसन्द करेंगे।

संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली में विपक्ष के नेता को वैधानिक दर्जा दिये जाने का मतलब यही है कि उसका रुतबा किसी भी तरीके से सरकार के रुतबे से नीचे रख कर न आंका जाये। मगर लोकसभा में जिस तरह विपक्ष के नेता श्री राहुल गांधी की जाति के मुद्दे ने तूल पकड़ा और उसे संसदीय कार्यवाही से निकाल दिया गया, वास्तव में कुछ गंभीर सवाल पैदा करता है। सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि हमारे जनप्रतिनिधियों की सामन्ती सोच में कितना फर्क आया है? जाति देखकर व्यक्ति को सम्मान देने की कुप्रथा का इन प्रतिनिधियों पर कितना असर है? भारत ही नहीं बल्कि समूचा भारतीय उपमहाद्वीप ही इस जाति प्रथा से पीड़ित माना जाता है। इसीलिए जब भारत आजाद हुआ तो इसने अपना लक्ष्य जातिविहीन समाज रखा क्योंकि भारत में जाति के आधार पर केवल समाज का बंटवारा ही नहीं है बल्कि बल्कि आर्थिक स्रोतों पर भी समाज की कथित उच्च जातियों का अधिपत्य माना जाता है। संविधान में आरक्षण की व्यवस्था बेशक सामाजिक आधार पर की गई मगर इसके लागू होने के बाद कथित निचली जातियों के लोगों की आर्थिक स्थिति में वह बदलाव नहीं आ पाया जिससे हम कह सकें कि राष्ट्रीय सम्पत्ति का बंटवारा न्यायसंगत तरीके से हुआ है। इस पीड़ा को एक कवि ने जिन शब्दों में लिखा वह यह है कि ,

‘‘आइये महसूस करिये जिन्दगी के ताप को
मैं ------ की गली में ले चलूंगा आपको’’

अतः जिस जातिगत जनगणना की बात आज राहुल गांधी कर रहे हैं उसका मूलाधार यही है क्योंकि राष्ट्रीय आय स्रोतों का बंटवारा भारत में आबादी की जातियों के अनुसार नहीं हुआ है जबकि उनके एक वोट की कीमत भी वही है जो टाटा, बिड़ला या अम्बानी के वोट की है। भारत की 140 करोड़ आबादी में यदि 90 प्रतिशत जनसंख्या दलितों, पिछड़ों व अल्पसंख्यकों की है तो राष्ट्रीय सम्पत्ति पर केवल दस प्रतिशत लोगों का अधिकार कैसे हो सकता है। इसी वजह से देश को संविधान देते समय बाबा साहेब अम्बेडकर ने कहा था कि इससे हमने राजनैतिक आजादी तो प्राप्त कर ली है मगर भारत में तब तक सामाजिक बदलाव नहीं आयेगा जब तक कि हम आर्थिक क्रान्ति न करें। मगर क्या सितम हुआ कि हम विपक्ष के नेता की जाति पर ही आकर अटक गये और भारत में फैली इस कहावत को भूल गये कि ‘जात न पूछो साधू की’। यह कहावत कबीरदास के ही एक दोहे से प्रचिलित हुई है। समाज में किसी व्यक्ति की जाति पूछना उसे हिकारत से देखने की तरह होता है। लोकतन्त्र में यह हिकारत वही व्यक्ति कर सकता है जो सदियों पुरानी सड़ी-गली कुरीति का शिकार हो। जबकि लोकतन्त्र सर्वदा भविष्य के बारे में सोचता है। इस व्यवस्था में असली राजनीति वही होती है जो आने वाली पीढि़यों का भविष्य सुन्दर और सुरक्षित करती है। अतः कबीर दास का यह दोहा आने वाली पीढि़यों को चेताता रहेगा,

‘जात न पूछो साधू की
पूछ लीजियों ज्ञान
मोल करो तलवार का
पड़ी रहन दो म्यान’’

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Shivam Kumar Jha

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