India WorldDelhi NCR Uttar PradeshHaryanaRajasthanPunjabJammu & Kashmir Bihar Other States
Sports | Other GamesCricket
Horoscope Bollywood Kesari Social World CupGadgetsHealth & Lifestyle
Advertisement

संयुक्त राष्ट्र संघ का कोई औचित्य नहीं

05:34 AM Nov 29, 2023 IST
Advertisement

कहने को तो संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व पटल पर एक भारी-भरकम नाम है, मगर काम के नाम में टाएं-टाएं फिस! जिस प्रकार से इसकी भूमिका यूक्रेन व रूस युद्ध और इजराइल व हमास युद्ध को रोकने में ज़ीरो रही है, यह आज मात्र एक सफ़ेद हाथी बनकर रह गया है। संयुक्त राष्ट्र की स्थापना 24 अक्तूबर 1945 को संयुक्त राष्ट्र अधिकारपत्र पर 50 देशों के हस्ताक्षर होने के साथ हुई। इस का गठन इसलिए हुआ था कि जो तबाही व बर्बादी व जान-ओ-माल प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1919) और ​िद्वतीय विश्वयुद्ध (1939-1944) ने झेली थी, ऐसा न हो, मगर अमेरिका की कठपुतली बनकर रह जाने के कारण इसकी नाकारामकता ने सिद्ध कर दिया की इसके बाद का कुछ नहीं। हर युद्ध के बाद इसकी सकारात्मकता शून्य ही रही, क्योंकि उसके बाद भी भारत-चीन और न जाने कितने छोटे- बड़े युद्ध हो चुके हैं, संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका न के बराबर ही है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के विजेता देशों ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से स्थापित किया था। वे चाहते थे कि भविष्य में फिर कभी द्वितीय विश्वयुद्ध की तरह के युद्ध न उभर आए। संयुक्त राष्ट्र की संरचना में सुरक्षा परिषद वाले सबसे शक्तिशाली देश (संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस, रूस और यूनाइटेड किंगडम) द्वितीय विश्वयुद्ध में बहुत बहुत राष्ट्र थे।
वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र में 195 राष्ट्र हैं, विश्व के लगभग सारे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त राष्ट्र शामिल हैं। इस संस्था की संरचना में महासभा, सुरक्षा परिषद्, आर्थिक व सामाजिक परिषद्, सचिवालय, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय और संयुक्त राष्ट्र न्यास परिषद सम्मिलित हैं। संयुक्त राष्ट्र के मुख्य उद्देश्य हैं: युद्ध रोकना, मानवाधिकारों की रक्षा करना, अंतर्राष्ट्रीय कानूनी प्रक्रिया, सामाजिक और आर्थिक विकास उभारना, जीवन स्तर सुधारना और बिमारियों की मुक्ति हेतु ईलाज, सदस्य राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय चिन्ताएं स्मरण कराना और अंतर्राष्ट्रीय मामलों को संभालने का मौका देना है। इन उद्देश्य को निभाने के लिए 1948 में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा प्रमाणित की गई।
संयुक्त राष्ट्र के शांन्तिरक्षक वहां भेजे जाते हैं जहां हिंसा कुछ देर पहले से बन्द है ताकि वह शान्ति संघ की शर्तों को लागू रखें और हिंसा को रोककर रखें। यह दल सदस्य राष्ट्र द्वारा प्रदान होते हैं और शान्तिरक्षा कर्यों में भाग लेना वैकल्पिक होता है।
विश्व में केवल दो राष्ट्र हैं जिन्होंने हर शान्तिरक्षा कार्य में भाग लिया है: कनाडा और पुर्तगाल। शान्तिरक्षा का हर कार्य सुरक्षा परिषद द्वारा अनुमोदित होता है।
संयुक्त राष्ट्र के संस्थापकों को ऊंची उम्मीद थी की वह युद्ध को हमेशा के लिए रोक पाएंगे, पर शीत युद्ध (1945-1991) के समय विश्व का विरोधी भागों में विभाजित होने के कारण, शान्तिरक्षा संघ को बनाए रखना बहुत कठिन था।
1947 में जब भारत-पाक विभाजन हुआ था और पाकिस्तान ने भारतीय कश्मीर को अपने कबाइली आतंकवादियों को भेज अपने आधीन कर लिया तो उस समय भारतीय प्रधानमंत्री, पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र संघ में गुहार लगाई कि उसका पूर्ण कश्मीर उसे वापिस लौटाया जाए, मगर पाकिस्तान ढिठाई से आजतक उस पर क़ाबिज़ है। यही नहीं, वह उसे "आज़ाद कश्मीर" कहता है और भारत के पास कश्मीर को "मकबूजा कश्मीर" कहा जाता है, जबकि "आज़ाद कश्मीर", भारत का अटूट अंग है, जो नेहरू की कूटनीतिक गलती के कारण हाथ से निकल गया। 1948 में जब पाकिस्तानी आदिवासी आतंकियों ने इस पर हमला बोला तो उसी समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू को सलाह दी थी कि तुरंत सेना को भेज अपना कश्मीर वापिस लें, मगर उन्होंने देर करदी और कश्मीर भारत के हाथ से निकल गया। इस पर संयुक्त राष्ट्र संघ को सांप सूंघ गया है।
आज भी जब हम यूक्रेन व रूस युद्ध और इजराइल व हमास युद्ध को देखें तो संयुक्त राष्ट्र संघ की दशा दयनीय और दिशा दिशाहीन हो गई है कि उसके लागातार यूक्रेन-रूस और इजराइल-हमास युद्ध को रोकने की इसकी बात को कोई नहीं सुन रहा। इससे पूर्व भी 1948 से इजराइल व फिलिस्तीन का युद्ध चल रहा है, जिसमें लाखों लोग मारे जा चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ को उसी समय से इजराइल और फिलिस्तीन को दो देशों की नीति के अंतर्गत न केवल दो देश बना देने चाहिए थे, बल्कि अपने शांति दूत भी छोड़ देने चाहिए थे। यूं तो यहूदी, जर्मन नाज़ी तबके के अत्यचार से बचने के लिए इस स्थान पर आए थे, और फिलिस्तीन निवासियों ने उनपर दया कर, रहने का स्थान दिया यहां तक तो ठीक था, मगर जब इजराइल की राल फिलिस्तीन की गाजा की ज़मीन पर टपकने लगी और अमेरिका की शह पर इन्होंने फिलिस्तीनियों पर हमले करने शुरू कर दिए, जिस से रंजिशें और गिले-शिकवे बढ़ते गए और दुश्मनी में बदल गए। तब से आज तक लाखों निहत्थे फिलिस्तीनियों का नरसंहार करते चले आ रहे हैं। हमास का 7 अक्तूबर का इसराइली नर संहार भी इसी पुरानी रंजिश का नतीज़ा था, जो पूर्ण रूप से अमानवीय था। इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र संघ ने आपनी भूमिका संजीदगी से नहीं निभाई है। इजराइल और फिलिस्तीन के मौजूदा युद्ध में, संयुक्त राष्ट्र संघ को चाहिए था कि बीच में आ कर हमास से इजराइली बंधक छुटवाते और गाजा पर बमबारी को भी रोकने का अल्टीमेटम देते। ऐसा नहीं हुआ क्याेंकि इसके दांत नहीं हैं। यही कारण है कि नेतन्याहू ने गाज़ा पर बमबारी रोकने के लिए इंकार कर दिया है।
पूरा यूक्रेन तबाह हो गया, पूर्ण गाजा समाप्त हो गया, दुनिया तो देखती ही रही, संयुक्त राष्ट्र संघ भी निठल्लों की तरह बैठा रहा। या तो इसे मैदान छोड़ देना चाहिए या इसे विश्व की सबसे मज़बूत सेना बनानी चाहिए जिसके पास अति आधुनिकतम हथियार हों और जो युद्ध न रोकने वाले देशों का मिज़ाज दुरुस्त करे।

 

Advertisement
Next Article