चुनाव में मुद्दों की बजाय आरोप-प्रत्यारोप पर जोर
लोकसभा चुनाव की लहर पूरे देश में चल रही है। पांच चरणों का मतदान भी हो चुका है लेकिन अभी तक कोई ऐसा मुद्दा सामने नहीं आया जिसे लेकर ये चुनाव लड़ा जा रहा हो। राजनीतिक दल और नेता एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप, विवादित बयान देकर चुनावी रैलियों और सभाओं में तालियां पिटवा रहे हैं। राजनीतिक दलों के चुनावी वादों और गारंटी से भरे भाषण आकाशवाणी, टीवी चैनल के माध्यम से जनमानस के मन को लुभाने की कोशिशों में जुटे हैं लेकिन इनमें ये गारंटी व वादे किस तरीके से पूरे किए जायेंगे, बेरोजगारी, महंगाई कैसे काबू में होगी इसका खुलासा कोई भी पार्टी नहीं कर रही है। आज गरीब पहले से भी ज्यादा गरीब हो रहा है उसे अमीर के समकक्ष कैसे लाया जाएगा? इसका जिक्र कहीं नहीं है, सिर्फ सीटों की संख्या कितनी जीतनी होगी ये बता कर जरूरी मुद्दों से भटकाने की कोशिश है।
चुनाव आते ही सभी राजनीतिक दल लुभावने वादों से जनता को रिझाने में लगे हैं मगर जिन मुद्दों को चुनाव विमर्श में आना चाहिए वे गायब हैं। सबसे पहला मुद्दा शिक्षा का होना चाहिए। राजनीतिक दलों को चाहिए कि वह नागरिक स्वास्थ्य का भी मुद्दा बनाएं। आज भी स्वच्छ पेयजल हर जगह उपलब्ध नहीं है। कृषि क्षेत्र जल संकट से जूझ रहा है। पर्यावरण सुरक्षा की भी बात होनी चाहिए। बढ़ते प्रदूषण पर कोई भी राजनीतिक दल बात नहीं करता। सबसे अहम मुद्दा बेरोजगारी का तो है ही। मतदाताओं को भी चाहिए कि उचित मुद्दों पर बात करने वाले दलों को ही अपना वोट दें।
आजादी के बाद देश में हुए पहले चुनाव से लेकर ताजा आम चुनाव तक चुनाव आते ही राजनीतिक दल जनसाधारण का ध्यान वास्तविक मुद्दों से भटकाने के लिए ऐसे-ऐसे मुद्दे लाते हैं जो मतदाताओं को भ्रमित करते हैं। देश के आम चुनाव में चुनावी मुद्दे जनसाधारण की समस्याएं होनी चाहिए जो उनके दैनिक जीवन को प्रभावित करती हैं। आज के मेधावी युवा देश से विदेश में पलायन कर रहे हैं। मुद्दा यह होना चाहिए कि उनका पलायन रोका जाए। उन्हें रोजगार दिया जाए। देश के आर्थिक विकास के साथ आम आदमी की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो। आम जनता से जुड़े मुद्दे चुनाव का मुद्दा होना चाहिए लेकिन सरकार और विपक्ष दोनों ही शायद आमजन से जुड़े मुद्दों से मुंह बचाते दिखाई देते हैं। चुनाव प्रचार के उफान पर न आने का सबसे बड़ा कारण मुद्दों को लेकर विपक्ष में निरंतरता प्रदर्शित करने का अभाव है। खासतौर से विपक्षी गठबंधन बनने के बाद भी विपक्ष मैदान में खुलकर उतरने के बदले सीट बंटवारे की गुत्थी सुलझाने में ही उलझा रहा। इससे विपक्ष कोई मुद्दा तय ही नहीं कर सका। 2019 का आम चुनाव इस चुनाव से बिल्कुल अलग था। चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पूर्व ही सियासी मैदान भ्रष्टाचार बनाम राष्ट्रवाद का रूप ले चुका था। कांग्रेस नेता राहुल गांधी राफेल सौदे में भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर चैकीदार चोर है, के नारे लगवा रहे थे, जबकि भाजपा पुलवामा आतंकी हमले के जवाब में पाकिस्तान के खिलाफ हुई एयर स्ट्राइक को मोदी है तो मुमकिन है का नारा लगा रही थी। राफेल मामले में पीएम पर व्यक्तिगत हमले को भाजपा गरीब पर हमले से जोड़ रही थी। इन दोनों ही मुद्दों पर तब राष्ट्रव्यापी चर्चा शुरू हो चुकी थी।
ज्यादातर पार्टियों ने अपने-अपने घोषणा पत्र में फ्रीबिज की बात की है। हमारे देश में उस तरह से पब्लिक ओपिनियन बनाने की कोशिश नहीं हुई इसलिए मतदाता जाति, समाज जैसे मुद्दों पर सिमट जाता है। घोषणा पत्र की दृष्टि से क्या नेता लोगों को बीच जा रहे हैं या नहीं यह भी समस्या होती है। क्या अभी भी हमारा चुनाव मंडल के दौर पर रहेगा, क्या हमारा चुनाव रोजगार के मुद्दे पर होगा? सनातन का मुद्दा हो, सीएए का मुद्दा हो मुद्दे सभी थे। ये और बात है कि चाहे पक्ष हो या विपक्ष दोनों उसे उस तरह से नहीं उठा पाए हैं। देश के राजनीतिक दल विजन से ज्यादा टेलीविजन पर निर्भर है। टेलीविजन प्रभावित जो राजनीति हो गई है उसकी वजह से विजन कहीं मिसिंग है। जहां तक घोषणा पत्र की बात है तो भाजपा का घोषणा पत्र अच्छा है और कांग्रेस का भी घोषणा पत्र अच्छा है लेकिन देश में घोषणा पत्र पर कभी चुनाव नहीं हुए। यह बस औपचारिकताभर रह गया है। जहां तक मुद्दे की बात है तो यह पूरा चुनाव विकेंद्रित हो गया है। जैसे जम्मू-कश्मीर के मुद्दे जो हैं वो वहां के लोगों के मुद्दे हैं। यहां तक कि चुनाव क्षेत्र तक के हिसाब से मुद्दे विकेंद्रित हो गए हैं। 2014 और 2019 के चुनाव हमने राष्ट्रीय मुद्दे पर देखे। इस बार का चुनाव स्थानीय मुद्दे पर हो रहा है। विपक्ष अगर कमियां गिनाएगा तो वह किसे इसके लिए जिम्मेदार बताएगा। मुद्दे बनाना विपक्ष का काम होता है। सरकार ये कहती है कि हमने बहुत अच्छा काम किया, हमने यह बना दिया, इतनी सड़कें बना दीं, इतना रोजगार दे दिया हमें वोट दीजिए, अगर विपक्ष की बात करेंगे तो पिछले एक साल में मुद्दा बनाने की जगह विपक्ष गठबंधन बना रहा है, नहीं बना रहा इसी पर उलझा रहा।
सरकार की बात करेंगे तो वह कह रही है कि हमने राम मंदिर बनाने की बात कही थी हमने बना दिया। विपक्ष ने जितने मुद्दे उठाए वो सभी चूचू का मुरब्बा निकले। हर चुनाव में विपक्ष ईवीएम का मुद्दा उठाता है। अगर यह इतना बड़ा मुद्दा होता तो विपक्ष चुनाव का बहिष्कार कर देता। जनता भी सड़कों पर उतर आती। विपक्ष ने इलेक्टोरेल बाण्ड के मुद्दे को चुनाव में मुद्दा बनाने की कोशिश तो की लेकिन वो इसमें कामयाब नहीं हो सका। आज चुनाव आकर्षक वादों और आधारहीन दावों के बल पर लड़ा-लड़ाया जा रहा है। जनता से जुड़े मुद्दों को नजरंदाज कर विकास के दावे किए जा रहे हैं। मतदाता को राजनीतिक दलों से उनके दावों और वादों के आधार के बारे में पूछना चाहिए। वास्तविकता तो यह है कि चुनावी मुद्दों के नाम पर अनावश्यक मुद्दे उछाल कर जनता का ध्यान विकेंद्रित किया जा रहा है। राजनीतिक दलों को आमजन से जुड़े मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए तभी देश और देशवासियों का कल्याण और विकास संभव हो पाएगा।