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‘निर्मल’ बजट से अपेक्षाएं!

05:59 AM Jul 08, 2024 IST
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संसद का बजट सत्र आगामी 22 जुलाई से शुरू हो रहा है जो 12 अगस्त तक चलेगा। इसके अगले दिन ही वित्तमन्त्री निर्मला सीतारमन चालू वित्त वर्ष 2023-24 का केन्द्रीय बजट पेश करेंगी। यह लोकसभा चुनावों में भाजपा की 303 सीटों से घटकर 240 रह जाने पर एनडीए की मोदी नीत सरकार का पहला बजट होगा जिसे लेकर अभी से वित्त क्षेत्रों में कई कयास लगाये जा रहे हैं। निर्मला सीतारमन देश की पहली वित्त मन्त्री होंगी जो लगातार सातवीं बार बजट पेश करेंगी। उन्होंने इस वर्ष का अंतरिम बजट भी विगत फरवरी महीने में पेश किया था। निर्मला सीतारमन के साथ एक और विशेषता है कि वह लोकसभा की न होकर राज्यसभा की सदस्य हैं। भारत में 1982 तक केवल लोकसभा के सदस्य ही वित्तमन्त्री इसलिए बनते थे कि कोई भी सरकार लोकसभा के प्रति ही जवाबदेह होती है। यही वजह है कि बजट को लोकसभा में ही पारित कराना सरकार की मूल जिम्मेदारी होती है। राज्यसभा में बजट पर बहस जरूर होती है मगर वह इस पर बहस करने के बाद लोकसभा को यथारूप में वापस भेज देती है।

वहीं दूसरी तरफ यदि लोकसभा में सरकार द्वारा रखा गया बजट यदि गिर जाता है तो सरकार को इस्तीफा देना पड़ता है। राज्यसभा से वित्तमन्त्री बनाने की प्रथा स्व. इन्दिरा गांधी ने शुरू की थी जब उन्होंने भारत रत्न स्वर्गीय प्रणव मुखर्जी को वित्तमन्त्री बनाया था। चालू वित्त वर्ष का बजट कई मायनों में विशिष्ट समझा जा रहा है। एक तो यह लोकसभा चुनावों के बाद का बजट होगा। इन चुनावों में विपक्ष खास कर कांग्रेस व इंडिया गठबन्धन की ओर से आर्थिक मुद्दे उठाकर ही चुनाव लड़ा गया था। विपक्ष ने जिस तरह महंगाई व बेरोजगारी को अपने प्रचार का मुख्य मुद्दा बनाया और उसी के सहारे अपनी सीटों में गुणात्मक वृद्धि की उसे देखते हुए निर्मला सीतारमन को इस मोर्चे पर माकूल कदम उठाने पड़ेंगे। साथ ही अर्थव्यवस्था में गति लाने के लिए व आम औसत भारतीय की क्रय क्षमता बढ़ाने के लिए उन्हें बजट में प्रावधान करने पड़ेंगे। साथ ही निजी क्षेत्र का निवेश बढ़ाने के लिए भी कारगर तरीके सोचने होंगे। इस मामले में औसत आदमी की क्रय क्षमता के लिए ढांचा गत वित्तीय संशोधन भी करने पड़ेंगे। हमने देखा कि वित्तीय मुद्दों पर चुनाव के दौरान भाजपा किनाराकशी करती रही और उसने अपने ही मुद्दों को ऊपर रखने का भरपूर प्रयास किया।

जाहिर है कि वे आर्थिक मुद्दे नहीं थे। इसके बावजूद भाजपा की 240 सीटें आयीं और कांग्रेस को मात्र 100 सीटों पर ही सब्र करना पड़ा। निजी क्षेत्र का निवेश बढ़ाने के लिए जरूरी है कि उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढे़ जिससे अधिकाधिक कम्पनियां इस क्षेत्र में निवेश करके बढ़ी हुई मांग की आपूर्ति करें। अर्थव्यवस्था एेसा चक्र होता है जिसमें मांग बढ़ने पर बाकी सभी औजार काम करने लगते हैं और चक्र तेजी से घूमने लगता है। इसके लिए जरूरी है कि आम हिन्दोस्तानी के पास खर्च करने के लिए आवश्यक धन हो। अर्थात उसकी क्रय क्षमता में वृद्धि हो। वित्तीय पंडितों को अपेक्षा है कि सीतारमन इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों ही प्रकार के करों में रियायत दे सकती हैं जिससे लोगों की क्रयक्षमता में बढ़ोत्तरी हो सके। इस सन्दर्भ में यह कहा जा रहा है कि वित्तमन्त्री आयकर की श्रेणियों को अधिक उदार बना सकती हैं खासकर सबसे निचले पायदान पर रहने वाले लोगों को आयकर में छूट मिल सकती है और इसके लिए आधार आय सीमा को बढ़ाया जा सकता है। एेसा करना निर्मला सीतारमन के लिए बहुत सरल है। इसकी घोषणा वह बजट में ही कर सकती हैं। परन्तु जहां तक परोक्ष या इंडायरेक्ट टैक्स का सवाल है तो वित्तमन्त्री को लम्बी कवायद करनी पड़ेगी। चुनाव में हमने वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) की दरों की कथित गैर तार्किकता की कहानी को विपक्ष से मुंह से बार-बार सुना।

वर्तमान एनडीए सरकार को इसका जवाब इसलिए देना होगा क्योंकि आम मतदाताओं ने लोकसभा चुनावों में विपक्ष को बहुत मजबूत स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है और उसे कुल 237 सीटें दी हैं जबकि एनडीए को 297 सीटें दी हैं। (चुनाव बाद ताजा स्थिति यही है)। जीएसटी की दरों में संशोधन करने के लिए निर्मला जी को राज्य की उस संस्था जीएसटी कौंसिल या परिषद के पास जाना होगा जो इस बारे में अन्तिम निर्णय करती है। इस परिषद में प्रत्येक राज्य का वित्तमन्त्री शामिल होता है। वैसे पहले से ही परिषद की एक समिति इस बारे में विचार कर रही है और एक मन्त्रिमंडलीय समूह भी इस पर गौर फरमा रहा है। इसकी बैठक अगले महीने में जाकर होगी तभी इस मुद्दे पर विचार हो सकेगा। मगर जीएसटी की पुनर्निर्धारित करने के लिए राज्यों की सहमति जरूरी है और प्रत्येक राज्य का इसके लिए हामी भरना भी जरूरी। परिषद में दो-तिहाई वोट राज्यों के होते हैं व एक-तिहाई केन्द्र सरकार के होते हैं। कायदा तो यही है कि परिषद का हर फैसला सर्वसम्मति से होना चाहिए परन्तु एेसे मौके भी आ चुके हैं जबकि सर्वसम्मति नहीं बनी और फैसले भी हो गये।

परिषद बनने के बाद राज्यों के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उनके सभी वित्तीय अधिकार संसद से बार बनी इस परिषद के पास गिरवी हो गये हैं। राज्यों के पास केवल ईंधन (पेट्रोल-डीजल आदि व मदिरा जैसे ही उत्पाद बचे हैं जिन पर वे अपने हिसाब से बिक्री कर लगा सकते हैं। शेष सभी उत्पाद जीएसटी कौंसिल के प्रभुत्व में हैं। इस व्यवस्था के खिलाफ हम कभी-कभी राज्यों के मुख्यमन्त्रियों की आवाजें भी सुनते रहते हैं। मगर इसके साथ यह भी हकीकत है कि चुनावों में हमने जीएसटी दरों के खिलाफ भी विपक्ष की आवाजें सुनीं। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में जहां सरकार विकास व वृद्धि के लिए निजी क्षेत्र पर निर्भर हो जाती है वहीं जनता के प्रति जवाबदेही से लोकतन्त्र में मुक्त नहीं हो सकती। हम जो राज्यों के बीच प्रतियोगी वित्त विकास के फलसफे को सुनते रहते हैं उसका कारण यही है। निर्मला जी को इस मोर्चे पर चुनौता का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि बिहार व आंध्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री अपने-अपने राज्य के लिए विशेष दर्जा मांग रहे हैं। मगर वित्त आयोग इस मामले में व्यवधान है क्योंकि उसने विशेष राज्य के दर्जे की परिकल्पना को ही हांशिये पर फैंक दिया है। इसलिए इन राज्यों को केन्द्र से भारी वित्तीय व बजटीय मदद की अपेक्षा है। कुल मिलाकर बजट बनाने में चुनौतियां कम नहीं हैं और किसानों की न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को कानूनी जामा पहनाना मुमकिन नहीं माना जा रहा है जबकि चुनावों में यह भी एक बड़ा मुद्दा था।

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