गिरते पुल, टूटती छतें और बेशर्म व्यवस्था
बहुत पहले मैंने एक लघुकथा पढ़ी थी... इंजीनियर साहब चिंता में थे। बेटे के लिए कार खरीदनी थी, समझ में बिल्कुल नहीं आ रहा था कि धन की व्यवस्था कहां से करें। रास्ता नहीं सूझ रहा था, बेचैनी बढ़ती जा रही थी, उसी दौरान खबर आई कि बाढ़ के कारण उनके इलाके की सड़कें बह गई हैं, कुछ पुल धराशायी हो गए हैं। उन्होंने तत्काल ठेकेदार को फोन लगाया, बातचीत के बाद उन्होंने राहत की सांस ली। यह सुनिश्चित हो गया था कि नए पुलों और सड़कों के निर्माण से कार आ जाएगी।
बिहार में लगातार गिर रहे पुलों और देश के कई विमानतलों पर ढहते निर्माण से वह कहानी याद आ गई है, इसे व्यवस्था की बेबसी, बेशर्मी और भ्रष्टाचार का खुल्ला खेल नहीं तो और क्या कहें कि केवल 18 दिन में बिहार में 12 पुल धराशायी हो गए, दिल्ली, जबलपुर और राजकोट में एयरपोर्ट की छतें और केनोपी गिर गईं लेकिन ऐसी शांति बनी हुई है जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। कहने को इन सभी मामलों की जांच के लिए कमेटियां गठित कर दी गई हैं, उनकी रिपोर्ट कब आएगी, यह किसी को पता नहीं और रिपोर्ट आ भी जाए तो कहीं फाइलों में दब कर रह जाएगी क्योंकि भ्रष्टाचार का मकड़जाल इसे कभी सामने नहीं आने देगा। क्या यही विकसित भारत की तस्वीर है? क्या इसी रास्ते पर चल कर हम तीसरी बड़ी आर्थिक ताकत बनने जा रहे हैं?
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस सालों में देश में ढाई सौ से ज्यादा और पिछले चालीस सालों में दो हजार से ज्यादा पुल धराशायी हुए हैं। इनमें नालों पर बने छोटे पुल और फुटओवर ब्रिज शामिल नहीं हैं, सवाल यह नहीं है कि बिहार में पुल गिर रहे हैं. सवाल यह है कि क्यों गिर रहे हैं? निश्चय ही कुछ पुल पुराने थे लेकिन अररिया जिले में बकरा नदी पर उद्घाटन से पहले ही पुल ढह जाने को लेकर क्या जवाब है? आप यह जानकर हैरान रह जाएंगे कि इस पुल के 2 पिलर पूरी तरह धंस गए और 6 पिलर क्षतिग्रस्त हो गए। जो पुलों के निर्माण का विशेषज्ञ नहीं है, वह भी यह बता देगा कि धंसे पिलर के नीचे की जगह को भ्रष्टाचार ने खोखला कर दिया था।
स्थानीय निवासियों ने अधिकारियों से कहा भी था कि इसकी गुणवत्ता ठीक नहीं है, रेत खनन को भी रोकना चाहिए लेकिन अधिकारियों के कान पर जूं नहीं रेंगी। किसी भी निर्माण के विभिन्न चरणों में निरीक्षण होता है, लगने वाली एक-एक सामग्री की गुणवत्ता की जांच होती है। चरण-दर-चरण संतुष्टि के बाद ही काम आगे बढ़ता है, निश्चय ही पुल निर्माण की अनदेखी की गई होगी। अन्यथा पुल कैसे बहता? जरा इसे भी समझिए कि किसी भी निर्माण के लिए उसमें उपयोग होने वाली सामग्री की बाजार दर और श्रम को जोड़कर एक बेस रेट तय किया जाता है। कई बार तो यह देखने में आता है कि निविदा के लिए निर्धारित दर से भी कम दर पर ठेकेदार काम करने को तैयार हो जाते हैं। क्या बगैर किसी भ्रष्टाचार के यह संभव है? निश्चय ही वह गुणवत्ता से समझौता करेगा और मुंह बंद रखने के लिए अधिकारियों को रिश्वत देगा। जाहिर सी बात है कि काम कमजोर होगा और वही होगा जो बिहार में अभी हो रहा है। वही होगा जो दिल्ली, जबलपुर और राजकोट के एयरपोर्ट पर हुआ है। आम तौर पर यह माना जाता है कि एयरपोर्ट पर निर्माण की गुणवत्ता सर्वश्रेष्ठ होती है लेकिन अब तो यह भी भ्रम जैसा लगने लगा है।
भ्रष्टाचारियों को जैसे अभयदान मिला हुआ है, बिहार के ही खगड़िया में 1717 करोड़ रुपए की लागत से बन रहा पुल गिर गया था। कितने लोगों को सजा हुई उस मामले में? करीब दो साल पहले गुजरात के मोरबी में सस्पेंशन ब्रिज गिरने की घटना याद है आपको? उसमें 141 लोगों की मौत हो गई थी। क्या हुआ उस मामले में? एक और घटना याद दिलाता हूं आपको, करीब दो साल पहले बिहार के रोहतास जिले में लोहे के एक बड़े पुल को चोर काट कर ले गए, सुनने में यह अजीब घटना लगती है लेकिन यही सच है। ये सारी घटनाएं व्यवस्था की नाकामी को दर्शाती हैं, आज हर कोई जानता है कि सड़कें बनती हैं और कुछ ही दिनों बाद गिट्टी उभर आती है या सीमेंट की सड़कों में दरारें पड़ जाती हैं। गांवों में तो और भी बदतर काम होते हैं। आप जानकर हैरान रह जाएंगे कि अकेले मुंबई में ही हर साल सैकड़ों करोड़ रुपए गड्ढों को भरने और सड़कों को दुरुस्त करने में खर्च होते हैं। इसी साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुंबई में जिस अटल सेतु का उद्घाटन किया था, मैंने सुना है कि उसमें भी दरार पड़ गई है। सांसदों को और विधायकों को भारी-भरकम विकास निधि हर साल मिलती है। यदि उस निधि से हुए कार्यों का ऑडिट करा लिया जाए तो गुणवत्ता के मामले में अस्सी प्रतिशत काम रिजेक्ट हो जाएंगे।
इन रास्तों से लोक प्रतिनिधि भी गुजरते हैं लेकिन उनकी आवाज न संसद में गूंजती है और न विधानसभा में, न वे धरना देते हैं और न ही उपवास करते हैं। कारण क्या यह है कि वे ऐसे कार्यों को प्रश्रय देते हैं? लोकप्रतिनिधि के प्रश्रय के बगैर कोई अधिकारी गलत काम करने की हिम्मत कर ही नहीं सकता। व्यवस्था की स्थिति क्या है, इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि पीएम से लेकर सीएम तक कहते हैं कि एक पेड़ लगाओ। मेरा निजी अनुभव है कि पेड़ लगाते हैं तो उसके ट्री गार्ड चोरी हो जाते हैं और सिस्टम कुछ नहीं कर पाता। जिनके हाथ में पावर है वे राजनीति में इतने उलझे हैं कि न कुछ पढ़ने और न ध्यान देने की फुर्सत है। केवल खुद की राजनीति को बचाने में लगे हैं, अब तो ऐसा समय आ गया है कि दिल्ली-मुंबई से लेकर गांव की गलियों तक की सड़कों और पुलों को लेकर न्यायालय सुओ मोटो ध्यान दे तभी कुछ बेहतर की उम्मीद की जा सकती है।