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फ्रांस का त्रिशंकु जनादेश

06:24 AM Jul 10, 2024 IST
फ्रांस का त्रिशंकु जनादेश

फ्रांस में हुए संसदीय चुनाव में भारी उलटफेर देखने को मिला। राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की पार्टी को बड़ा झटका लगा है। वामपंथी गठबंधन न्यू पॉपुलर फ्रंट (एनएफपी) ने सबसे अधिक 182 सीटें हासिल की हैं, जबकि मैक्रों के गठबंधन को 168 सीटें मिलीं। नेशनल रैली और सहयोगी दलों को 143 सीटें मिली हैं। फ्रांस के चुनाव परिणाम हैरान कर देने वाले हैं। क्योंकि किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है और त्रिशंकु संसद के चलते राजनीतिक अनिश्चितता भी शुरू हो गई है। फ्रांस में गठबंधन सरकार का कोई इतिहास नहीं रहा है। अब की बार हुई अधिक वोटिंग का अर्थ यही है कि देश की जनता राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के नेतृत्व से खुश नहीं है और लोगों ने बदलाव के लिए वोट दिया है। जून में हुए यूरोपीय संसद के चुनाव में फ्रांस में मध्यमार्गियों को बड़ी हार का सामना करना पड़ा था। इसमें दक्षिणपंथी पार्टियों को भारी जीत मिली थी। 9 जून को नतीजे आए और उसी दिन राष्ट्रपति मैक्रों ने संसदीय चुनाव की घोषणा कर दी थी। उन पर इस बात का नैतिक दबाव था। फ्रांस की संसद का कार्यकाल 2027 में खत्म होना था लेकिन समय से पहले संसद भंग कर चुनाव कराने का फैसला उल्टा पड़ा।

फ्रांस में राष्ट्रवाद की आंधी चलने के बाद इमैनुएल मैक्रों सत्ता में आए थे लेकिन चुनाव परिणामों ने एक बार फिर साबित किया कि राष्ट्रवाद की आंधी बार-बार सफल नहीं होती। फ्रांस यूरोप क्षेत्र की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और कुछ हफ्ते बाद ही पैरिस में ओलिम्पिक खेलों की शुरूआत होने वाली है। त्रिशंकु संसद ने बहुत सारी दिक्कतें पैदा कर दी हैं। हार की ​जिम्मेदारी लेते हुए प्रधानमंत्री गैब्रियल ने इस्तीफा दे ​दिया है। फ्रांस में अति दक्षिणपंथी पार्टी नेशनल रैली काे सत्ता में आने से रोकने के​ लिए दूसरे चरण के चुनाव में मैक्रों की रेनेसां पार्टी और उसमें शामिल गठबंधन दलों और वामपंथी पार्टी न्यू पॉपुलर फ्रंट ने गठबंधन कर लिया था। इसके तहत दोनों समूहों ने 217 उम्मीदवार मैदान से हटा लिए थे। देश की जनता को धुर दक्षिणपंथियों के सत्ता में आने से अशांति फैलने का डर था। इस​लिए लोगों ने उसे वोट नहीं डाले।
अब सबसे बड़ा सवाल है कि आगे क्या होगा। हालांकि मैक्रों ने पहले ही यह कह दिया था कि चाहे कोई भी जीत जाए वह राष्ट्रपति पद से इस्तीफा नहीं देंगे।

राष्ट्रपति मैक्रों अगले प्रधानमंत्री के नाम पर कोई और निर्णय लेने से पहले नेशनल असैम्बली के नए स्वरूप का इंतजार करेंगे। फ्रांस के सामने अब दो विकल्प होंगे जो कि फ्रांस के इतिहास में पहले कभी नहीं दिखे हैं। मैक्रों हमेशा एक जैसी सोच रखने वाली पार्टियों के बीच गठबंधन बनाने की कोशिश कर सकते हैं लेकिन इसके लिए न्यू पॉपुलर फ्रंट को अलग होकर राष्ट्रपति के पीछे अपने कट्टरपंथी एजेंडे और उसूलों के बिना फिर से संगठित होना होगा। वामपंथी नेता जीन-ल्यूक मेलेंचन ने मैक्रों से वामपंथी न्यू पापुलर फ्रंट गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने का आग्रह किया है। वहीं दूसरे विकल्प के तौर पर मैक्रों एक टेक्नोक्रेटिक एडमिनिस्ट्रेशन भी नामित कर सकते हैं जो राजनीतिक उथल-पुथल के दौर को पाट सके। समाधान के तौर पर इन दोनों ही विकल्पों का मतलब संभवतः एक कमजोर सरकार होगी। जिसे कोई भी सार्थक बिल या कानून पारित करने में परेशानी होगी और अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर उसका प्रभाव भी कम होगा।

न्यू पॉपुलर फ्रंट ईंधन और खाद्य पदार्थ जैसी आवश्यक वस्तुओं की कीमत पर कैपिंग चाहता है। वह न्यूनतम वेतन को बढ़ाकर 1600 यूरो प्रतिमाह करना चाहता है। इसके अलावा वह सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि करना चाहता है और वह वैल्थ टैक्स भी लगाना चाहता है। दक्षिणपंथी नेता मरीन ली पेन की पार्टी ने नस्लवाद और यहूदी विरोधी भावनाओं को खत्म करने का मुद्दा बनाया था लेकिन फ्रांसीसी समाज में कई लोग अभी भी इस पार्टी के फ्रांस प्रथम रुख और बढ़ती लोकप्रियता को चिंता के साथ देखते हैं। यह पार्टी मुस्लिमों की कट्टर विरोधी मानी जाती है। इससे भी उसकी वो​टिंग पर असर पड़ा।

स्पष्ट है कि नया गठबंधन बनाने के लिए मध्यमार्गी मैक्रों की पार्टी और वामपंथी पार्टियों के बीच सौदेबाजी चल सकती है। गठबंधन का स्वरूप क्या होगा यह अभी स्पष्ट नहीं है। गठबंधन के चलते क्या फ्रांस में मजबूत सरकार बन पाएगी जो कोई भी बिल कानून आदि पारित करने में समक्ष हो सके। फ्रांस के लोगों ने महंगाई, अपराध, आव्रजन और मैक्रों सरकार की शैली सहित अनेक शिकायतों को लेकर मतदान में अपना गुस्सा निकाला है। मैक्रों ने हमास के साथ युद्ध में इजराइल के खिलाफ सख्त रुख अपनाने का वादा किया था लेकिन उनकी नीतियां स्पष्ट नहीं रहीं। इसी बीच वामपंथी नेता ज्यां ने बड़ा ऐलान कर दिया है कि उनका गठबंधन फिलिस्तीन को मान्यता देने की दिशा में काम करेगा। यूरोप के चार देश स्पेन, नार्वे, आयरलैंड और स्लोवानिया पहले ही​ फिलिस्तीन को मान्यता दे चुके हैं।

फ्रांस में पिछले कुछ समय से ऐसा हुआ कि जिसने राजनीतिक व्यवस्था को ही बदल कर रख दिया। फ्रांस का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा, इसका जवाब ढूंढने के लिए अभी वक्त लगेगा। सात साल पहले जब मैक्रों सत्ता में आए थे तब से राजनीतिक ताकतों में ​बिखराव देखने को मिल रहा है। फ्रांस की जनता अब वामपंथी, धुर दक्षिणपंथी , मध्यमार्गी और इसके साथ ही मध्य दक्षिणपंथी विचारधारा में बट चुकी है। इन पक्षों के भीतर भी अलग-अलग प्रतिस्पर्धाएं और पार्टियां हैं। कुल मिलाकर मैक्रों कमजोर हुए और वह आने वाले दिनों में सुलह-समझौतों की बात करेंगे। अगर मैक्रों किसी मध्यमार्गी को प्रधानमंत्री पद पर बैठाने में सफल हो जाते हैं तो यह उनकी बेहतर रणनीति होगी लेकिन वामपंथी दलों की ताकत को देखकर ऐसा सम्भव नहीं लगता। देखना होगा कि फ्रांसीसी सियासत में किसका दमखम रहता है।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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Shivam Kumar Jha

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