सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति दिलाओ
विश्व के अन्य देशों की तरह भारत में भी 8 मार्च महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। वैसे सन् 1909 में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका द्वारा पहली बार पूरे अमेरिका में 28 फरवरी को महिला दिवस मनाया गया। सन् 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल द्वारा कोपनहेगन में महिला दिवस की स्थापना हुई और 1911 में ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में लाखों महिलाओं द्वारा रैली निकाली गई।
रूस की महिलाओं ने लंबा संघर्ष किया और सफल भी हुईं। उन्हें तो मताधिकार पाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ा, पर भारत की महिलाओं को स्वतंत्रता के साथ ही हमारे संविधान में समानता का अधिकार दे दिया। कोई भेदभाव नहीं, पर अब हमारे देश में महिला दिवस मनाना भी एक त्यौहार या यूं कहिए आवश्यक औपचारिकता हो गया है। 8 मार्च की आहट के साथ ही कई प्रकार के आयोजन सरकारी, गैर सरकारी स्तर पर करने के पूरे प्रबंध कर लिए जाते हैं। हर वर्ष ऐसा ही होता है। भारत की महिलाओं ने जो उन्नति की है, हर क्षेत्र की ऊंचाइयों को छू ही नहीं लिया अपितु रास्ते नापकर शिखरों तक पहुंची हैं वह किसी आठ मार्च के कारण नहीं, अपनी योग्यता, परिवार और समाज से प्राप्त अवसर तथा आत्मबल से ही पा सकी हैं। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि अब जब देश का संविधान, कानून महिलाओं के लिए हर रास्ता खोल रहा है तो क्या यह सच नहीं कि महिलाएं स्वयं ही कुरीतियों, पुरानी अवांछित परंपराओं को छोड़ने को तैयार नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि पिंजरे तो खुले हैं, पक्षी अब उड़ना नहीं चाहता, क्योंकि उन्हें पिंजरे में बंद रहकर जो मिल जाए, जैसा मिल जाए उसी में गुजारा करने की आदत हो गई है। प्रायः यह देखा जाता है कि जिन परिवारों में घूंघट या बुर्के में महिलाओं को बंद रखा जाता है वहां बहुत सी महिलाएं भी घंूघट के पक्ष में जोरदार वकालत करती नजर आती हैं। उन्हें यही सिखा दिया गया है कि यह बड़ों की इज्जत है। आश्चर्य तो तब हुआ जब एक बड़े राजनीतिक परिवार की महिला जब अपने ससुर के लिए चुनावों में वोट मांगने गई तो तीन हाथ लंबा घूंघट निकाला था और यह कह रही थी कि मैं अपने कुलवंश की मर्यादा का पालन कर रही हूं। ऐसे ही बुर्के में बंद महिलाएं क्यों नहीं इतनी हिम्मत जुटा पाईं कि एक झटके में वे इस बंधन से मुक्त हो जाएं। तीन तलाक तो भारत सरकार ने खत्म कर दिया लेकिन यह याद रखना होगा कि सरकार द्वारा कानून बनाने से पहले मुस्लिम महिलाओं का एक बड़ा वर्ग लाखों की संख्या में तीन तलाक के विरुद्ध सड़कों पर आ गया था।
आश्चर्य यह है कि जिस महिला को हलाला के नाम पर यातनाएं दी जाती थीं वह भी सहती थी, प्रश्न है आखिर क्यों? क्या मजहब-समाज, परिवार का दबाव इतना अधिक रहता है कि वे उससे चाहकर भी मुक्त नहीं हो सकतीं। जिस दिन देश की महिलाएं यह पर्दा प्रथा समाप्त करना चाहेंगी उसके लिए एक ही दिन पर्याप्त होगा महीनों का संघर्ष नहीं, पर कोई तो आगे आए। घूंघट और बुर्के की बात छोड़कर अगर हम उन महिलाओं की चर्चा करें जो आज की परिभाषा के अनुसार सशक्त हैं, जनप्रतिनिधि बनीं, पंच-सरपंच से लेकर पार्षद, महापौर तक का पद प्राप्त किया, जिला परिषदों, इम्प्रूवमेंट ट्रस्टों की अध्यक्ष भी बनी, पर उनमें से शायद दो प्रतिशत ही ऐसी होंगी जो अपने पद, अधिकार का स्वयं प्रयोग करती होंगी।
यह ठीक है कि अधिकतर महिलाओं को चुनाव लड़ने का मौका इसलिए मिलता है जब आरक्षण के कारण राजनीति में सक्रिय पुरुष चुनाव नहीं लड़ सकते तो उनके परिवार की महिलाओं को टिकट मिलती है। चुनाव महिला जीतती है, पार्षद, पंच-सरपंच, चेयरमैन पति बनते हैं। यहां प्रश्न महिलाओं से है कि क्या उन्हें यह नहीं ज्ञात कि पार्षद के क्या अधिकार हैं, कम से कम कर्त्तव्य तो याद होने चाहिए। महिला पार्षदों को केवल निगम की मीटिंग के अतिरिक्त बहुत कम देखा जाता है। पार्षद पति एक नया शब्द प्रचलन में आ गया। इससे पहले उत्तर प्रदेश में प्रधान पतियों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने इस पर कानून भी बनाया था। अब तो यह पार्षद पति निसंकोच मंचों से स्वयं को पार्षद कहलवाते, बड़े-बड़े कार्यक्रमों की शोभा बनते, फूल-मालाएं अपने गले में डलवाकर इतराते देखे जाते हैं, पर मंच सचिव उनके नाम के साथ पार्षद विशेषण लगाकर बोलते हैं वे सच बोलने से डरते हैं या चापलूसी करते हुए उन पार्षद पतियों को डर या भय से खुश करने की कोशिश करते हैं। बहुत सी महिला जनप्रतिनिधियों ने परिवार के टूटने के डर से पूरा ही आत्मसमर्पण कर दिया और अपने पद की मोहर पति के हाथों में देकर हस्ताक्षर करने की छूट भी दे दी। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, पर किसी सरकारी तंत्र में इतनी जुर्रत नहीं कि इस गैरकानूनी काम को रोक सकें।
महिलाओं के अधिकारों की रक्षा हमारे देश का सर्वोच्च न्यायालय डटकर कर रहा है। अभी कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह कहा गया कि तटरक्षक बल में महिलाओं को स्थायी कमीशन दिया जाए, अन्यथा हम देंगे। देश की महिला संविधान प्रदत्त समानता के कारण आज हमारी राष्ट्रपति हैं। बहुत सफल प्रधानमंत्री बन चुकी है। राज्यपाल तो अनेक हैं, राजदूत भी हैं। सागर की गहराइयाें से लेकर आसमान तक उड़ रही हैं, काम कर रही हैं। दुश्मनों के छक्के भी छुड़ा रही हैं।
मंचों पर भाषण करने वाले, विश्वविद्यालयों और कालेजों में महिला दिवस के सेमीनार करने वालों से एक ही निवेदन है कि विश्वविद्यालय, कालेजों, क्लबों की सुंदर सुरक्षित भाषणों के अनुकूल दीवारों से बाहर जाइए और उन तक पहुंचीए जिन्हें नहीं पता कि महिला दिवस उनके लिए मनाया जा रहा है या उनके कोई अधिकार हैं। उन्हें तो सब स्थानों पर बराबर का वेतन भी नहीं मिलता। भाषण देकर जश्न मनाने वाला देश का वर्ग है उन्हें बाहर आम जन तक पहुंचना ही होगा। कमरे में बंद ज्योति, जागृति की ज्योति उन तक पहुंचानी है जो अभी तन के साथ ही मन के भी अंधेरों में उपेक्षित, तिरस्कृत जीवन जी रही हैं, क्योंकि वे महिला हैं। मैंने ऐसी कुछ महिलाएं देखीं इसी वर्ष 2024 में जिनकी बाजू पर उनका नाम, गोदना गुंदवाकर नहीं लिखा, बल्कि यह लिखा है यह किसकी औरत है।
- लक्ष्मीकांता चावला