अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता
भारत में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार इसकी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का आधारभूत सिद्धान्त रहा है। वर्तमान समय में स्वतन्त्र प्रेस का स्वरूप इलैक्ट्राॅनिक व डिजिटल मीडिया के आने के बाद जरूर बदला है मगर इसमें भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का विशेष महत्व भारतीय संविधान में नागरिकों को मिले स्वतन्त्र विचार व्यक्त करने के अधिकार से जुड़ा हुआ है परन्तु यह भी सत्य है कि स्वतन्त्रता के नाम स्वच्छन्दता के लिए भी लोकतन्त्र में कोई स्थान नहीं होता है। विशेषकर सोशल मीडिया मंचों पर हमें जो स्वच्छन्दता दिखाई पड़ती है उसकी कोई न कोई मर्यादा रखे जाने की जरूरत भी दिखाई पड़ती है। मगर इस पूरे मामले में सरकार की भूमिका बहुत सीमित है क्योंकि स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के माध्यम से लोगों को सच जानने का अधिकार होता है। बम्बई उच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार के उस कानून को अवैध व गैर संवैधानिक करार दिया है जो उसने पिछले साल सूचना प्रौद्योगिकी कानून में संशोधन करके किया था। इस कानून के तहत केन्द्र सरकार ने सूचनाओं या खबरों के सत्यापन का अधिकार अपने हाथ में ले लिया था और तथ्य अन्वेषी संभाग का गठन करने की घोषणा की थी। सरकार ने यह काम अपने पत्र सूचना विभाग को दिया था। बम्बई उच्च न्यायालय ने इसे अवैध घोषित किया है और बहुमत से कहा है कि सरकार का काम सूचना की सत्यता की जांच करने का नहीं है क्योंकि नागरिकों को अपने स्वतन्त्र विचार व्यक्त करने का मौलिक अधिकार है।
दरअसल विगत 31 जनवरी को बम्बई उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों ने इस मामले में विभाजित निर्णय दिया था। एक न्यायाधीश का फैसला कानून के पक्ष में था जबकि दूसरे का विपक्ष में था परन्तु तीसरे न्यायाधीश श्री अतुल एस. चन्दुरकर के पास जब यह मामला ले जाया गया तो उन्होंने अपना फैसला दिया। उन्होंने अपने फैसले का एेलान अब जाकर किया है जिससे कानून को अवैध घोषित करने वाले न्यायाधीशों का बहुमत हो गया है। श्री चन्दुरकर ने कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का मामला सूचना प्रौद्योगिकी कानून से बहुत ऊपर का है जिसके साथ सरकार छेड़छाड़ नहीं कर सकती क्योंकि इसका सम्बन्ध नागरिकों को मौलिक अधिकार देने वाले संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों से जुड़ा हुआ है। हमारे संविधान में प्रेस की स्वतन्त्रता का कहीं कोई जिक्र नहीं है मगर अखबार व मीडिया अपनी स्वतन्त्रता का अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार से ही लेते हैं जिस बारे में संविधान के अनुच्छेद 19(1) में उल्लेख है। दरअसल स्वतन्त्र भारत में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार की भी विशिष्ट कहानी है। डा. अम्बेडकर ने जब संविधान लिखा था तो अनुच्छेद 19 के तहत भारतीय नागरिकों को अभिव्यक्ति की सम्पूर्ण स्वतन्त्रता दी थी। इस अधिकार के तहत कोई भी व्यक्ति अपने विचारों का प्रतिपादन कर सकता था। जरूरी नहीं था कि ये विचार विशुद्ध रूप से अहिंसक ही हों।
यदि आजाद भारत में हिंसक विचारों के प्रतिपादन की भी स्वतन्त्रता दी जाती तो हमारी सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था में अराजकता पैदा होने का भारी खतरा था। इस तरफ सबसे पहले ध्यान प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू का गया और वह अनुच्छेद 19 में संशोधन लेकर आये। नेहरू ने यह संशोधन 1952 के प्रथम लोकसभा चुनावों से पहले किया जबकि 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू हो चुका था। यह नव लिखित संविधान में पहला संशोधन था। इस संशोधन को पं. नेहरू तत्कालीन लोकसभा (उस समय संविधान सभा को ही लोकसभा में बदल दिया गया था) में स्वयं लेकर आये थे जबकि कानून मन्त्री डा. अम्बेडकर थे। जब पं. नेहरू यह संशोधन लेकर आये तो डा. अम्बेडकर ने इसका पूर्ण समर्थन करते हुए कहा कि स्वतन्त्र भारत में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार देने के उत्साह में मैं यह भूल ही गया था कि इसमें हिंसक विचारों का प्रतिपादन करने वाले लोग भी सम्मिलित हो जायेंगे। अतः भारत में किसी भी स्तर पर हिंसा को बढ़ावा देने का समर्थन नहीं किया जा सकता है। जब यह संविधान संशोधन पारित हो गया तो तब इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने संशोधन को वैध करार दिया लेकिन वर्तमान समय में सूचना प्राैद्योगिकी कानून में संशोधन करके सरकार स्वयं अपने हाथों में यह अधिकार रखना चाहती थी कि किसी सूचना की सत्यता के बारे में अन्तिम मुहर उसी की लगेगी। बम्बई उच्च न्यायालय ने इसे अवैध करार दिया है।
लोकतन्त्र में स्वतन्त्र मीडिया को समाजवादी चिन्तक व नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने लोकतन्त्र के चौथे खम्भे की संज्ञा दी और कहा कि यह समूची व्यवस्था की चौकीदारी करता है परन्तु वर्तमान में सोशल मीडिया के आ जाने से परिस्थियों में गुणात्मक अन्तर भी आया है हमें इस तरफ भी ध्यान देना होगा। जहां तक मीडिया का सवाल है तो इसे आत्मसंयम बरतते हुए केवल सत्य को ही उजागर करने का कार्य करना होगा इसके लिए किसी सरकारी नियन्त्रण की जरूरत नहीं है। सोशल मीडिया पर भद्रता को बरतना भी एक जिम्मेदारी है जिसे हमें सामाजिक दायित्व समझना होगा।