विध्वंस से सृजन की ओर
प्रलय के बारे में बहुत पढ़ा और सुना है। विध्वंस और बर्बादी का दूसरा नाम प्रलय ही है। 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ धाम में जो सैलाब आया था उसे जल प्रलय ही माना गया था। अब पूरा देश खबरिया चैनलों पर कुल्लू से केरल तक जल प्रलय देख रहा है। जलवायु परिवर्तन ने वर्षा और भूस्खलन की तीव्रता को बढ़ा दिया है। हिमाचल, उत्तराखंड और केरल में कहीं गांव दफन हो चुके हैं, कहीं ताश के पत्तों की तरह पुल बह चुके हैं, पहाड़ दरक रहे हैं आैर सड़कें बह चुकी हैं। यह सब जानते हैं कि यह प्राकृतिक आपदा मानव निर्मित है। मानव ने पहाड़ों को तोड़ डाला है। पहाड़ों की चोटियों और पहाड़ी खड्डों में भी होटल, रिजोर्ट और मकान बनाए जा रहे हैं। पहाड़ों में विशालकाय सुरंगों का बनाना, बड़े-बड़े बिजली घर बनाना, सुरंगों के लिए पहाड़ों में विस्फोट करना, यह सारे कारण पर्वतीय राज्यों में आपदा को निमंत्रण दे रहे हैं। जरूरी नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं चेतावनी देकर आएं। आपदाएं बिना चेतावनी के भी आ जाती हैं। शांति हो या युद्ध काल हमारी सेना, राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (एनडीआरएफ) और एसडीआरएफ के जवानों ने देवदूत बनकर लाखों लोगों की जानें बचाई हैं। केदारनाथ धाम हो, कुल्लू, मंडी हो या फिर केरल का वायनाड, सभी क्षेत्रों में सेना और एनडीआरएफ के जवान न केवल लोगों को बचा रहे हैं बल्कि बचाए गए लोगों को जीवन की शुरूआत करने में भी मदद दे रहे हैं। हर आपदा में हमें सेना आैर एनडीआरएफ की याद आती है। इनके अलावा भी स्थानीय पुलिस, विशेष अभियान समूह, अग्निशमन बल, तटरक्षक बल आैर नौसेना की संयुक्त टीमें भी काम कर रही हैं। यह सभी बल आपदा प्रभावित लोगाें के लिए देवताओं के समान हैं। आपदा में कोई मदद का एक हाथ भी आगे बढ़ता है तो वह तिनके के सहारे के समान होता है। जवान मलबे से न केवल शव निकाल रहे हैं बल्कि जिन्दगी की तलाश भी कर रहे हैं। जवानों ने छोटे-छोटे बच्चों की िजन्दगियां बचाकर उन्हें राहत शिविरों में पहुंचाया। भारतीय सेना और आपदा बल के जवानों ने चूरलामल में बेलीब्रिज को बहुत कम समय में बनाकर आवाजादी शुरू करा दी है। इंजीनियरिंग और पेशेवर कौशल में दक्ष भारतीय सेना की दक्षिणी कमान की इंजीनियर टॉस्क फोर्स ने इरुवनिपझा नदी पर तेजी से निर्माण किया जिससे राहत कार्यों में गति आई है।
उत्तराखंड के केदारनाथ धाम में फंसे लगभग 6000 यात्रियों को रेस्क्यू करना आसान नहीं था लेकिन भारतीय वायुसेना ने एम-1 और चिनुक हैलीकाप्टरों से यह काम कर िदखाया। सोनमर्ग और गौरीकुंड के बीच पुल बनाकर आवाजाही शुरू करा दी है। हिमाचल में भी ऐसा ही किया जा रहा है। लातूर के भूकम्प, 2015 में चेन्नई की बाढ़, 2013 की केदारनाथ धाम त्रास्दी, 2004 में सुनामी आैर 2018 में केरल की बाढ़ के दौरान भी भारत के सशस्त्र बलों ने आपदा प्रबंधन में विशेष भूमिका निभाई है। 90 के दशक में एनडीआरएफ जैसी फोर्स की जरूरत महसूस होने लगी थी जो तमाम तरह की आपदाओं में जाकर लोगों को बचा सके। तब एनडीआरएफ की शुरूआत की गई। अपने काम और खास तरह की दक्षता के कारण यह दुनिया में सर्वश्रेष्ठ फोर्स बन चुकी है। यद्यपि सशस्त्र बल मुख्य रूप से बाहरी खतरों से देश की सुरक्षा में शामिल रहते हैं परन्तु अब आपदा बल दूसरे देशों में भी जाकर बेहतर सेवाएं दे रहे हैं।
अब केरल के वायनाड में नई टाऊनशिप बसाने की योजना बनाई जा रही है। जहां-जहां विध्वंस हुआ है वहां सृजन करना हमारा दायित्व भी है। सृजन की शक्ति विध्वंस से भी बड़ी होती है। यह आशा और उम्मीदों से भरी एक नई अलख जगाती है, जो लोगों में शक्ति का संचार कर नवचेतना जगाती है। विध्वंस होने में देर नहीं लगती लेकिन निर्माण और सृजन में जीवन खप जाता है। सृष्टि का नियम ही विध्वंस के बाद नवसृजन है लेकिन नवसृजन इस तरीके से होना चाहिए कि हादसे से बचने के िलए पूरे बंदोबस्त किए जाएं। विकास कार्यों के लिए जापान और ताइवान जैसे देशों से भी हमें बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। पहाड़ों को स्थिर बनाए रखने के लिए विशेष तरह की तकनीक अपनाई जानी चाहिए। ताइवान और जापान में भी पहाड़ काटे जाते हैं लेकिन वहां पर ऐसे यंत्र लगाए जाते हैं कि समय रहते पता चल जाता है िक पहाड़ पर कितना दबाव है और वह लोगों काे पहाड़ के दरकने को लेकर सचेत कर देता है।
भारत में समस्या यह है कि यहां भूमाफिया हर जगह सक्रिय हैं। पहाड़ों का खनन लगातार इसी तरह जारी रहा तो प्रलय को रोक नहीं पाएंगे। संकट की घड़ी में समूचे देश को चाहिए कि वह अापदा प्रभावित राज्यों में नवसृजन की मदद के िलए हाथ आगे बढ़ाएं। केन्द्र सरकार तो मदद कर ही रही है, देश के हर नागरिक को यथासम्भव मदद का हाथ बढ़ाना चाहिए, साथ ही मनुष्य को प्राकृति संग जीने को भी अपनी आदतों में शामिल करना होगा अन्यथा उसे प्राकृति के कहर का सामना करना ही पड़ेगा।