चुनाव सुधार के मन्त्र से लेकर एक चुनाव तक
1974 में जब स्व. इन्दिरा गांधी के शासन के विरुद्ध स्व. जय प्रकाश नारायण ने अपना सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन छेड़ा था तो इस आन्दोलन के प्रमुख विषयों में से एक चुनाव सुधार का विषय भी था। जय प्रकाश नारायण चाहते थे कि भारत में लगातार महंगे होते जा रहे चुनावों को सस्ता किया जाये जिससे एक साधारण प्रबुद्ध नागरिक भी राजनैतिक प्रक्रिया में सक्रियता से भाग ले सकें। जयप्रकाश नारायण मानते थे कि भारत की भ्रष्टाचार की जड़ चुनाव प्रणाली ही है जिसके शुद्ध होने पर ही देश से भ्रष्टाचार को समाप्त किया जा सकता है। जयप्रकाश अर्थात जेपी के इस आन्दोलन में उस समय देश की सभी प्रमुख विपक्षी पार्टियां शामिल थीं जिनमें भारतीय जनसंघ भी कालान्तर में जुड़ गई थी।
जेपी आन्दोलन मूल रूप से छात्रों के आन्दोलन का ही वृहद स्वरूप था जिसका जन्म गुजरात से हुआ था। गुजरात में छात्र सामान्य नागरिक समस्याओं को लेकर आन्दोलनरत हो गये जिसकी शुरूआत कालेज व विश्वविद्यालयों के छात्रावासों से हुई थी। बाद में यह आन्दोलन बिहार में फैला और इसका स्वरूप व्यापक होता चला गया। जयप्रकाश नाराय़ण ने उस समय इन्दिरा गांधी के शासन के दौरान बढ़ते भ्रष्टाचार को प्रमुख मुद्दा बनाया और आन्दोलन की बागडोर भी देर-सबेर संभाल ली। जय प्रकाश नाराय़ण तब तक पार्टी विहीन लोकतन्त्र की बात छोड़ चुके थे और देश में राजनीतिगत शुद्धिकरण चाहते थे। वह संस्थागत बदलाव भी चाहते थे। मगर साल 1974 में ही एक एेसी घटना हुई जिसने भारत की समूची चुनाव प्रणाली को महान संशय के वातावरण में लाकर खड़ा कर दिया।
दिल्ली की सदर बाजार लोकसभा सीट से 1971 के हुए चुनावों में जनसंघ के प्रत्याशी स्व. कंवर लाल गुप्ता कांग्रेस के स्व. अमरनाथ चावला से चुनाव हार गये थे। 1971 के चुनावों में दिल्ली की सभी सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार विजयी रहे थे। स्व. गुप्ता ने अमरनाथ चावला के चुनाव को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी थी। चुनौती का आधार स्व. चावला द्वारा निर्दिष्ट सीमा से अधिक चुनाव खर्च करना था। उच्च न्यायालय ने इसी आधार पर अमरनाथ चावला का चुनाव अवैध करार दे दिया। इसके बाद श्रीमती गांधी चुनाव कानून जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में एक संशोधन संसद में लाई जिसमें चुनाव में प्रत्याशी पर उसके राजनैतिक दल द्वारा किया गया कितना ही खर्च उसके चुनावी खर्च में शामिल नहीं होगा। इसमें यह प्रावधान भी किया गया कि किसी भी प्रत्याशी का कोई मित्र या हितैषी भी उसके चुनाव पर कितना ही धन खर्च कर सकता है। वह उसके चुनावी खर्च से बाहर होगा।
इस संशोधन के बाद चुनाव आयोग द्वारा लोकसभा व विधानसभा के प्रत्याशियों द्वारा खर्च किये जाने की नियत सीमा एक मजाक बन कर रह गई। प्रत्याशियों को अपने चुनाव में कितना ही धन अपने हितैषी या राजनैतिक दल की तरफ से खर्च करने की अनुमति मिलने के बाद से चुनावों में खर्च की जाने वाली धनराशि में अंधाधुंध बढ़ोत्तरी होने लगी। चुनावों में भ्रष्टाचार के धन का प्रभाव बढ़ने लगा जिसके असर से चुनावों में साधारण प्रबुद्ध नागरिक के खड़े होने की संभावनाओं पर पानी फिरना शुरू हो गया। जय प्रकाश इस व्यवस्था को जड़ से बदलना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अपने आन्दोलन के दौरान ही बम्बई उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीश श्री वी.एम. तारकुंडे की अध्यक्षता में एक समिति बनाई। तारकुंडे समिति के सामने सरकारी खर्च से चुनाव कराने का प्रमुख मुद्दा था जिससे भारत में चुनाव सस्ते होकर राजनीति पर पूंजीपतियों के लगातार बढ़ते प्रभाव का अन्त हो सके। तारकुंडे समिति ने अपनी रिपोर्ट जेपी को सौंप दी और उसमें सुझाव दिया कि भारत में सरकारी संसाधनों का प्रयोग कर चुनाव कराये जा सकते हैं बशर्ते कि सरकार की इसके लिए इच्छाशक्ति हो।
तारकुंडे समिति ने इसके लिए कई व्यावहारिक सुझाव भी दिए जिनमें एक यह सुझाव यह भी था कि चुनावों के समय सभी राजनैतिक लोगों को सरकारी प्रचार-प्रसार माध्यमों (मीडिया) पर आनुपातिक समय दिया जाये और सार्वजनिक सभाएं करने के लिए सरकारी विद्यालयों के परिसरों व सार्वजनिक स्थलों का प्रयोग करने की इजाजत दी जाये। जेपी आन्दोलन के प्रमुख नेताओं ने तारकुंडे समिति की इस रिपोर्ट को महत्वपूर्ण रिपोर्ट माना जिसमें सरकार द्वारा एक चुनाव कोष स्थापित करने की भी पुरजोर वकालत की गई थी। परन्तु 1997 के लोकसभा चुनावों में इन्दिरा गांधी की कांग्रेस की उत्तर व पश्चिम भारत में महापराजय हुई और नवगठित विपक्षी गठजोड़ की नई पार्टी जनता पार्टी को लोकसभा में 298 सीटें प्राप्त हुई जबकि इंदिरा कांग्रेस को 153 सीटें मिली। जनता सरकार के प्रधानमन्त्री स्व. मोरारजी देसाई बने जो कि मूल रूप से कांग्रेसी ही थे। उन्होंने तारकुंडे समिति की रिपोर्ट नहीं माना और एक नये चुनाव सुधार आयोग का गठन कर दिया जिसके अध्यक्ष पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री एस.एल. शकधर थे।
शकधर अपनी रिपोर्ट दे ही रहे थे कि जनता सरकार पलट गई और इसके बाद कुछ समय तक चौधरी चरण सिंह की कार्यवाहक सरकार रही और 1980 में जब पुनः चुनाव हुए तो इन्दिरा जी पुनः प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हो गईं। इसके बाद कांग्रेस सरकारों ने हालांकि गोस्वामी समिति आदि चुनाव सुधारों के लिए गठित कीं जिनकी कुछ सिफारिशें भी लागू की गईं मगर किसी ने भी इंदिरा गांधी द्वारा किये गये जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में किये गये संशोधन को रद्द करने का सुझाव नहीं दिया जिसकी वजह से भारत का पूरा चुनाव तन्त्र धनतन्त्र में तब्दील होता जा रहा था।
असल सवाल यही है कि भारत चुनावों को किस प्रकार आम आदमी की पहुंच के भीतर लाया जाये जबकि इस तरफ ध्यान देने का समय किसी राजनीतिक दल के पास नहीं है और हम से एक देश-एक चुनाव की बात कर रहे हालांकि एेसा यदि मौजूदा राजनैतिक परिस्थितियों की पारगम्यता से होता है तो इसमें कोई हर्ज नहीं है क्योंकि 1967 तक तो भारत में लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुआ करते थे। परन्तु इनका एक साथ होना देश की लोकतान्त्रिक व संवैधानिक शर्तों के साथ सहज रूप से घटित होता था और भारत की बहुराज्यीय संघीय प्रणाली के तहत स्वाभाविक रूप से होता था। इसके लिए किसी राज्य सरकार या केन्द्र सरकार को कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करने पड़ते थे। अब जिस एक देश-एक चुनाव की बात हो रही है उसके लिए संविधान में कई संशोधन करने पड़ेंगे और राज्यों के जो अधिकार भारतीय संविधान में निहित हैं उनमें भी संशोधन करना पड़ेगा।
भारत की संघीय व्यवस्था अमेरिका की संघीय व्यवस्था से पूरी तरह अलग है। हमारे संविधान ने एक मजबूत केन्द्र का ढांचा इस तरह खड़ा किया है कि विभिन्न राज्य भी अपनी सांस्कृतिक व भौगोलिक विविधता के बीच अपना विशिष्ट चरित्र भारतीय संघ के भीतर ही बना कर रख सकें। बेशक तर्क इसके विरोध में भी दिये जा सकते हैं मगर हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय संविधान का पहला अनुच्छेद ही यह उद्घोषित करता है कि यह राज्यों का एक संघ है। फिर संविधान ने राज्यों को विशिष्ट अधिकार भी दिये हैं और संविधान ही यह कहता है कि केन्द्र सरकार की हर योजना को जमीन पर राज्य सरकार ही लागू करेगी।
अतः मूल बात चुनाव सुधारों की भी होनी चाहिए जिससे लोकतन्त्र को धनतन्त्र बनने से रोका जा सके। इसमें पहला मूल सवाल जनप्रतिनििध का आता है। मौजूदा चुनाव प्रणाली में केवल कोई धनपति ही लोगों का प्रतिनिधि बनने के लायक तैयार परिस्थितियों की वजह से हो सकता है तो फिर हम आम मतदाता को लोकतन्त्र का मालिक किस मुंह से कह सकते हैं। हालांकि अपने एक वोट के प्रयोग से वह किसी भी प्रत्याशी को विजयी बना सकता है मगर प्रत्याशियों में ही उसके सामने विकल्प केवल धनपतियों में से ही होंगे। लोकतन्त्र के लिए गंभीर प्रश्न यह भी है।
- राकेश कपूर