समलैंगिक विवाह मान्य नहीं
सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने एक मत से समलैंगिक विवाह को मान्यता देने से इन्कार करते हुए यह मामला संसद पर छोड़ दिया है और कहा है कि यह विषय उसके अधिकार क्षेत्र में आता है। न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने यह स्वीकार किया है कि समलैंगिक सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों के एक नागरिक के नाते जो अधिकार हैं वे उन्हें मिलने चाहिए और सामाजिक क्षेत्र में अन्य नागरिकों की तरह उन्हें भी बराबर के मौलिक अधिकार दिये जाने चाहिए परन्तु जहां तक उनके आपस में ही शादी करने का मामला है तो यह विषय संसद में बैठे जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को देखना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता में गठित संविधान पीठ ने समलैंगिक जोड़ों को बच्चा गोद लेने के हक के बारे में विभाजित राय व्यक्त की है मगर केन्द्र सरकार की इस दलील को स्वीकार किया है कि वह समलैंगिकों के सामाजिक व आर्थिक अधिकारों को तय करने के लिए कैबिनेट सचिव की सदारत में एक समिति का गठन करेगी जो इन मामलों को देखेगी।
समलैंगिक यौन सम्बन्ध बनाने को सर्वोच्च न्यायालय 2018 में ही गैर आपराधिक कृत्य करार दे चुका है। इसी से प्रेरित होकर कई संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय में उनके विवाह को भी वैध करार देने की याचिका दायर की थी जिसका विरोध केन्द्र सरकार ने किया था। भारत की सामाजिक संरचना को देखते हुए यदि केन्द्र ने समलैंगिक शादी को मान्यता देने का विरोध किया तो उसे किसी भी तरह गलत नहीं ठहराया जा सकता। बेशक भारत के पूर्व ऐतिहासिक काल के धार्मिक ग्रन्थों में कई ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे जो समलैंगिक सम्बन्धों की तरफ इशारा करते हैं परन्तु भारतीय समाज ने हमेशा ही ऐसे सम्बन्धों को प्रकृति के विरुद्ध यौन सम्बन्ध माना है और सामाजिक विकार की श्रेणी में रखा है। स्त्री और पुरुष का यौन सम्बन्ध ही प्रकृति को चलायमान रखता है। घर और कुटुम्ब का मतलब ही स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों से उत्पन्न फल का ही विस्तृत स्वरूप होता है। स्त्री-पुरुष सम्बन्ध ही प्यार या मोहब्बत की महायात्रा होती है जबकि प्रेम व भाईचारा समान लिंग के लोगों में भी रहता है। यह फर्क समझने की जरूरत है।
पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में हम वे सामाजिक सीमाएं नहीं लाघ सकते हैं जिनकी स्वीकार्यता से ही सुगन्ध के स्थान पर दुर्गन्ध का आभास होता है। यह कोई प्रतिक्रियावादी या प्रतिगामी सोच नहीं है बल्कि समाज को निरन्तर प्रगतिशील बनाये रखने का विचार है। नई सन्ततियां ही नये विचारों की सृजक होती हैं । यदि हम नव सृजन को ही सीमित करने की तरफ चल पड़ेंगे तो समाज प्रगति की तरफ न जाकर किसी पोखर में जमा पानी की तरह ठहर जायेगा। आधुनिकता का मतलब कतई नहीं होता कि प्रकृति जन्य स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का ही पत्थर की तरह जम जाने वाले विकल्प ढूंढने की दौड़ में शामिल हो जायें। यह किसी धर्म या मजहब का भी सवाल नहीं है बल्कि विशुद्ध रूप से समाज और व्यक्ति की गतिशीलता का सवाल है। स्त्री-पुरुष सम्बन्ध किसी धार्मिक उपदेश के मोहताज नहीं हैं बल्कि वे व्यक्ति की स्वयं की वैज्ञानिक आवश्यकता है परन्तु तस्वीर का दूसरा पहलू हमें समलैंगिक लोगों के प्रति पूरी सहानुभूति व समाज में उनकी प्रतिष्ठा व मर्यादा के लिए भी कहता है। अंग्रेजी शासनकाल में जिन वजहों से समलैंगिक सम्बन्धों को आपराधिक घोषित किया गया था उसके कुछ वाजिब कारण भी जरूर रहे होंगे क्योंकि तब तक यूरोपीय समाज में भी ऐसे सम्बन्धों के प्रति मानवीय चेतना का भाव नहीं था परन्तु अब समय बदल चुका है और मानवीय सम्बन्धों का व्यवहार भी बदल रहा है जिसके चलते भारत में भी बिना शादी के दो वयस्क स्त्री-पुरुष को साथ रहने की इजाजत है (लिव-इन रिलेशनशिप) । अतः एक ही लिंग के यदि दो व्यक्ति साथ रहना चाहते हैं तो उनकी निजता का सम्मान करते हुए इसकी इजाजत समाज को देनी पड़ेगी और उनके नागरिक अधिकारों का संरक्षण भी करना पड़ेगा। जहां तक विशेष विवाह अधिनियम (स्पेशल मैरिज एक्ट) का सवाल हो तो वह भी केवल दो विपरीत लिंग के लोगों के बीच ही हो सकता है। इसमें संशोधन करने का मतलब होगा विवाह की शर्तों को बदल देने के साथ ही परिवार की परिकल्पना को भी जड़ से बदल देना।
सवाल पैदा होना स्वाभाविक है कि समलैंगिक जोड़े द्वारा गोद लिये गये बच्चे की समाज में क्या स्थिति होगी? उसके जीवन से खिलवाड़ करने का हक किसी को कैसे मिल सकता है? बेशक समलैंगिक लोगों को भी समान आर्थिक आधिकार अन्य नागरिकों की तरह ही मिलने चाहिए चाहे वह पैतृक सम्पत्ति का मामला हो या अन्य आर्थिक सुरक्षा जैसे बीमा, स्वास्थ्य व पेंशन आदि मगर समाज की प्राकृतिक गतिशीलता को तोड़ने का अधिकार उन्हें कैसे मिल सकता है जबकि उनका खुद का व्यवहार ही प्राकृतिक न्याय के विपरीत देखा जाता है। हमारे सामने विज्ञान की खोजे हैं और नियम हैं । आकाशीय बिजली या तिड़त का उत्पादन भी धन व ऋण (प्लस और मायनस) ध्रुवों के टकराने से ही होता है। यह दकियानूसीपन नहीं है बल्कि विज्ञान को अपनाने का सवाल है।