राज्यपाल, राज्य और विधेयक !
राज्यपालों की भूमिका के बारे में भारत में अक्सर विवाद उठते रहे हैं। ये विवाद भी अलग-अलग किस्म के हुआ करते थे। पहले राज्यों में अनुच्छेद 356 के तहत राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने को लेकर अक्सर विवाद उठा करता था। इसका निपटारा 1988 में सर्वोच्च न्यायालय ने एस.आर. बोम्मई बनाम भारतीय संघ के मुकदमे का फैसला देकर कर दिया और आदेश दिया कि किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की तसदीक संसद के दोनों सदनों में भी करनी होगी परन्तु अब इस विवाद की किस्म बदल गई है। बहुत से मुख्यमन्त्रियों को यह जायज शिकायत रहती है कि उनके राज्यों में राज्यपाल संवैधानिक मुखिया के स्थान पर अधिशासी मुखिया की भूमिका में आकर चुनी हुई सरकार के कार्यों में हस्तक्षेप करते हैं। उनकी भूमिका को ये मुख्यमन्त्री किसी राजनैतिक एजेंट तक के रूप में निरुपित करने से भी नहीं बचना चाहते। इसी आलोचना का बहुत गंभीर पक्ष यह है कि राज्यपाल विधानसभाओं में बहुमत की सरकारों द्वारा पारित विधेयकों पर चौकड़ी मार कर सालों- साल बैठ जाते हैं जिससे लोगों द्वारा चुनी गई विधानसभा के अधिकारों का न केवल हनन होता है बल्कि उनकी प्रतिष्ठा भी जनता की निगाहों में गिर जाती है।
निश्चित रूप से यह संविधान द्वारा चुनी हुई लोगों की सरकार की अवमानना पहली नजर में देखी जा सकती है। संविधान में राज्यपाल के अधिकार और दायित्व स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं। इसके बावजूद ऐसी विसंगतियों का पैदा होना लोकतन्त्र की भावना के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। मगर सबसे गंभीर मामला विधानसभा में पारित विधेयकों को राज्यपाल द्वारा अपनी स्वीकृति न देना माना जा रहा है जबकि संविधान में राज्यपालों का इस बारे में स्पष्ट रूप से जो दायित्व तय किया हुआ है वह यह है कि एक विधानसभा में पारित किसी भी विधेयक को वह पुनर्विचार के लिए या तो पुनः राज्य सरकार को लौटा सकते हैं अथवा पहली बार में विधेयक के बारे में सन्तुष्ट न होने पर उसे राष्ट्रपति महोदय के पास उनकी अनुशंसा के लिए भेज सकते हैं मगर वह राज्य सरकार को पुनर्विचार के लिए भेजे गये विधेयक को पुनः प्राप्त करने के बाद उसे न तो राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं और न ही स्वयं उसे स्वीकृति देने से इन्कार कर सकते हैं। उन्हें विधेयक को स्वीकृति देनी ही होगी।
सर्वोच्च न्यायालय में आजकल तमिलनाडु सरकार ऐसा ही मुकदमा लड़ रही है जिसमें राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा पिछले कई सालों से विधेयकों को दबा कर रखा गया है। इस मामले की सुनावई स्वयं मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ अन्य दो न्यायामूर्तियों के साथ कर रहे हैं। जाहिर है कि तमिलनाडु में विपक्षी दल द्रमुक की सरकार है। यह सरकार 2020 में हुकूमत में आयी थी और तब से इसके एक दर्जन से अधिक विधेयकों पर राज्यपाल रवि चौकड़ी मार कर बैठे हुए हैं। मगर विगत 13 नवम्बर को उन्होंने एेसे ही दस विधेयकों को अपनी फाइलों से निकाल कर अपनी मुहर लगा कर राज्य सरकार को वापस भेज दिया। जबकि 10 नवम्बर को इसी से जुड़े एक मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने तल्ख टिप्पणी की थी कि राज्यपालों को विधेयकों को स्वीकृति देनी ही होगी और वे इन्हें अनन्तकाल तक लटका कर नहीं रख सकते। वास्तव में यह टिप्पणी न्यायामूर्ति ने पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित के उस कृत्य के सन्दर्भ में दी थी जिसमें उन्होंने पंजाब विधानसभा के दो दिवसीय विशेष अधिवेशन की वैधता पर ही सवाल खड़ा कर दिया था। तब न्यायालय ने कहा था कि ऐसा होना संसदीय लोकतन्त्र के लिए ही घातक होगा। तभी न्यायालय ने लम्बित विधेयकों के बारे में भी टिप्पणी की थी। मगर श्री रवि की विगत 13 नवम्बर की कार्रवाई का संज्ञान भी मान्य सर्वोच्च न्यायालय ने लिया और मुकदमे की सुनवाई के दौरान पूछा कि पिछले तीन सालों से राज्यपाल महोदय क्या कर रहे थे? इस बारे में सरकारी महाधिवक्त द्वारा जो भी तर्क रखे गये उन्हें कानूनी लीपा-पोती के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि संविधान में राज्यपाल के पास किसी विधेयक को ‘वीटो’ करने का कोई अधिकार नहीं है। इस तथ्य को तमिलनाडु सरकार के वकील श्री अभिषेक मनु सिंघवी ने बहुत सफाई के साथ न्यायालय के समक्ष खोलकर रख दिया और वह सब बताया जो ऊपर लिखा जा चुका है।
भारत की संघीय व्यवस्था में हर दौर में यह होता रहेगा कि राज्य में किसी दूसरे दल की सरकार हो और केन्द्र में किसी दूसरे दल की मगर इससे संविधान के वे प्रावधान नहीं बदल सकते जो राज्यपालों के अधिकार और दायित्वों के बारे में हैं। किसी राज्य में विपक्षी दल की सरकार होने का प्रश्न पूरी तरह राजनैतिक होता है। संवैधानिक रूप से वह बहुमत की चुनी हुई सरकार होती है और राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया गया एक संवैधानिक मुखिया होता है। उसका चयन राष्ट्रपति अपनी प्रसन्नता से करते हैं। अतः वह केवल संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति का प्रतिनिधि ही होता है। राज्य सरकार के हर संविधान सम्मत कार्य को स्वीकृति देने के नियम से बंधा होता है। सबसे बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि यदि विधानसभा में पारित प्रस्ताव पर ही राज्यपाल चौकड़ी मार कर बैठ जाते हैं तो क्या वह उन मतदाताओं के जनादेश को चुनौती नहीं देते जिसने राज्य सरकार को चुना है? हां वह वैसा जरूर कर सकते हैं जैसा कि झारखंड की राज्यपाल रहते स्वयं वर्तमान राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु ने किया था जब उन्होंने आदिवासियों के अधिकारों से सम्बन्धित विधानसभा द्वारा पारित एक विधेयक को तत्कालीन राष्ट्रपति के पास भेज दिया था। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान को भी नोटिस भेजा है जो पिछले लम्बे अर्से से राज्य विधानसभा में पारित आठ विधेयकों पर चौकड़ी मार कर बैठे हुए हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com