लोकसभा चुनावों में जमीनी लड़ाई
लोकसभा चुनावों का बिगुल संसद के चालू अन्तिम सत्र से ही बज गया है क्योंकि सत्ता पक्ष व विपक्ष एक-दूसरे के खिलाफ श्वेत व श्याम पत्र ले आये हैं। असली सवाल चुनाव में भाजपा व विपक्षी इंडिया गठबन्धन के बीच लड़ाई का रहेगा। भाजपा की कमान निश्चित रूप से प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के हाथ में है जबकि इंडिया गठबन्धन की बागडोर व्यावहारिक रूप से कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी के हाथ में है। इंडिया गठबन्धन में फिलहाल 27 राजनैतिक दल शामिल हैं। इनमें मुख्य दल कांग्रेस पार्टी ही है और ‘रोटी को ठंडा करके खाने’ के पक्ष में दिखाई पड़ती है। जिसकी वजह से इन दलों के बीच प्रत्याशियों के नाम पर मतैक्य नहीं हो पा रहा है। कांग्रेस की यह चुनावी रणनीति भी हो सकती है क्योंकि आजकल जो सियासी हालात बने हुए हैं वे स्थिरता की जगह अस्थिर ज्यादा दिखाई पड़ते हैं। इसकी कई वजह हैं परन्तु सियासी शतरंज में जिस तरह आम आदमी अर्थात मतदाता की उपेक्षा हो रही है वह भी कम हैरत में डालने वाली बात नहीं है। इस मामले में राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा लीक से हट कर लगती है क्योंकि इसमें आम आदमी सीधे शिरकत करता दिखाई पड़ रहा है।
राजधानी में जिस तरह दक्षिण के राज्यों के मुख्यमन्त्रियों ने हाल में केन्द्र की नीतियों के खिलाफ डेरा डाला वह भी स्वयं में हैरत में डालने वाली बात है। भारत में भौगोलिक रूप से उत्तर-दक्षिण के बीच काफी अन्तर है। सबसे पहला अन्तर तो मौसम का ही होता है। दक्षिण में 12 महीनों गर्मी का मौसम ही रहता है और नाम के लिए गुलाबी जाड़े आते हैं। दूसरा सबसे बड़ा अन्तर भाषा या जुबान का रहता है। जिसके चलते अन्तर थोड़ा गहरा समझा जाता है परन्तु हकीकत में जमीन पर एेसा नहीं है। दक्षिण भारत के लोगों में उत्तर भारत के लोगों के प्रति एक ‘वीरभाव’ शुरू से ही रहता आय़ा है क्योंकि इनकी धरती विदेशी आक्रमणों का मुख्य केन्द्र रही है परन्तु अंग्रेजों ने पहला आक्रमण कोलकाता व मद्रास में ही किया और फ्रांसीसियों ने भी दक्षिण भारत के समुद्री इलाकों से ही अपनी भारत विजय शुरू की।
कोलकाता रेजीडेंसी व मद्रास रेजीडेंसी इसका प्रमाण रही हैं। इसलिए विदेशियों से लड़ने में दक्षिण के लोग भी पीछे नहीं रहे हैं। आधुनिक भारत में दक्षिण भारत के राजनेता उत्तर भारतीयों में भी खासे लोकप्रिय रहे हैं। भाषा की दिक्कत होने के बावजूद उत्तर भारतीयों में दक्षिण के विद्वान नेताओं की लोकप्रियता रही है। यह विधा कांग्रेस पार्टी के पास थी कि वह चुनावों में अपने दक्षिण के नेताओं को उत्तर भारत में भी भेजा करती थी। मुझे अभी तक याद है कि 1971 के लोकसभा चुनावों में पार्टी का प्रचार करने भारत के रक्षामन्त्री रहे स्व. वी.के. कृष्णा मेनन आये थे। उस समय मैं मेरठ कालेज में बी. एससी. फाइनल का छात्र था। शहर में मुनादी हुई कि शाम को शहर के घंटाघर पर कांग्रेस प्रत्याशी के समर्थन में श्री वी.के. कृष्णा मेनन की सभा होगी।
कांग्रेस के प्रत्याशी नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज के जनरल रहे स्व. शाहनवाज खान थे जबकि विपक्षी चौगुटे (जनसंघ, संगठन कांग्रेस, स्वतन्त्र पार्टी व संसोपा) के प्रत्याशी श्री हरिकृष्ण शास्त्री थे। हरिकृष्ण स्वर्गीय प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री के सबसे बड़े पुत्र थे। दोनों में टक्कर बहुत जोरदार मानी जा रही थी। शाम को श्री कृष्णा मेनन की सभा हुई तो उहोंने धारा प्रवाह अंग्रेजी में भाषण दिया। सभा स्थल खचाखच भरा था। जनता में इस कदर खामोशी थी कि हल्की सी आवाज भी शोर की तरह सुनाई पड़ती थी।
श्री कृष्णा मेनन हाथ में रूमाल रखते थे और कुर्ता व लुंगी पहनते थे। वह आधे घंटे से अधिक समय तक बोले और उन्होंने इन्दिरा गांधी की नीतियों की सराहना करते हुए कांग्रेस के लिए वोट मांगे। पूरे मेरठ शहर में उनका भाषण अंग्रेजी से हिन्दी में रूपान्तरित करने वाला कोई व्यक्ति उस समय कांग्रेसियों को नहीं मिल सका। इसका असली कारण यह था कि स्व. कृष्णा मेनन स्वतः ही कांग्रेस का प्रचार करने निकले थे। दुभाषिये का इन्तजाम न होने पाने की एक वजह यह भी रही होगी। जब उनका भाषण समाप्त हो गया तो कुछ पत्रकार लोगों से यह पूछते पाये गये कि आपकी समझ में क्या आय़ा? एक अधेड़ आयु के ग्रामीण से दिखने वाले व्यक्ति का एक पत्रकार को दिया गया जवाब मुझे अभी तक नहीं भूला है। उसने उत्तर दिया कि देख भाई कृष्णा मेनन क्या बोला ये तो मेरी समझ में नहीं आय़ा मगर एक बात समझ में आयी कि इन्दिरा गांधी। तो भैया इन्दिरा गांधी के लिए ये कृष्णा मेनन आय़ा था। बस मेरा वोट तो शाहनवाज को ही जायेगा। जबकि जनरल शाहनवाज के खिलाफ जनसंघ के कार्यकर्ता नारे लगा रहे थे कि ‘शाहनवाज की क्या पहचान बीवी-बच्चे पाकिस्तान।’
चुनाव परिणाम जब आये तो जनरल शाहनवाज लाखों वोटाें से जीते। श्री कृष्णा मेनन ने मेरठ के बाद उत्तर प्रदेश के कई और शहरों में भी जनसभाएं कीं और हर जगह उन्हें बहुत ही ध्यान से लोगों ने सुना। इसी प्रकार चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भी उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय थे। लोग उनके नाम का बहुत सम्मान करते थे। 1956 में कांग्रेस से अलग होकर उन्होंने अपनी अलग पार्टी स्वतन्त्र पार्टी बनाई थी। इस पार्टी को दक्षिण भारत में तो खास लोकप्रियता नहीं मिल पाई मगर उत्तर व पूर्व -पश्चिम भारत में इसे खासी लोकप्रियता हासिल हुई थी। चक्रवर्ती ने तो दक्षिण भारत में हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के लिए विशेष प्रयास भी किये थे। उनकी स्वतन्त्र पार्टी राजस्थान, गुजरात, ओडिशा, मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश तक में खासी लोकप्रिय इस हद तक थी कि 1967 में गुजरात से उनकी पार्टी के सांसदों की संख्या कांग्रेस के सदस्यों की संख्या से एक ज्यादा थी। अतः उत्तर-दक्षिण का अन्तर आम भारतीयों की निगाहों में बौद्धिक स्तर पर कभी नहीं रहा है। दक्षिण भारतीयों को उत्तर भारत के लोग बहुत सीधा- सादा व ईमानदार आदमी मानते रहे हैं। धार्मिक रूप से भी दक्षिण भारतीय बहुत ज्यादा सदाचारी व कर्मकांडी समझे जाते हैं। दक्षिण से उत्तर आने वाले संन्यासियों का विशेष सम्मान उत्तर भारत के लोग करते रहे हैं। राजनीति में भी दक्षिण भारत को उत्तर भारत से आगे माना जाता है क्योंकि इन राज्यों के लोग अपने जीवन के मुद्दों को ही राजनीति में रखते रहे हैं। यह बेवजह नहीं है कि इन राज्यों की राजनीति में इंडिया गठबन्धन का बोलबाला दिखाई पड़ रहा है। इसका सबसे बड़ा ऐतिहसिक कारण यह है कि इन राज्यों में पेरियार (तमिलनाडु) व श्रीनारायण गुरु (केरल) जैसे समाज सुधारक हुए जिन्होंने पिछड़ी जातियों के लोगों में आत्मसम्मान का बोध भरा जिसने राजनैतिक आकार लिया। उत्तर भारत में कोई भी ऐसा समाज सुधारक नहीं हुआ। यहां राजनैतिक बिरादरी में ही जाति के नाम पर वोट बैंक बनाने वाले नेता हुए। एकमात्र चौधरी चरण सिंह ही एेसे थे जिन्होंने राजनीति में मजहब को तोड़ कर पिछड़ों के आत्मसम्मान की बात की।
- राकेश कपूर