नेताओं, प्रवक्ताओं, एंकरों को कभी हंसते देखा है?
पूरी चुनावी प्रक्रिया के दौरान एक तथ्य बार-बार कचोटता रहा है कि आखिर हमारे टीवी एंकर, पार्टियों के प्रवक्ता, नेता लोग, कभी भी मुस्कराते या हंसते क्यों नहीं? सबके चेहरों पर तनाव, तीखापन एक-दूसरे को बीच-बीच में ही टोकते रहने का अभ्यास कुछ प्रश्न सीधे सादे- दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल, केंद्रीय मंत्री रवि शंकर, केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर, कांग्रेसी दिग्गज राहुल गांधी, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उड़ीसा के नवीन पटनायक को कभी भी अब तक की जि़ंदगी में खुलकर हंसते या मुस्कराते हुए भी देखा है? शायद नहीं। कुल मिलाकर शायद लालू यादव, अखिलेश यादव के अलावा कौन देखा गया है मुस्कराते हुए या हंसते हुए। उर्दू शायर अकबर इलाहाबादी ने शायद ऐसे ही संदर्भ में कहा था-
‘या तो दीवाना हंसे,
या तूं जिसे तौफीक दे।
वरना इस दुनिया में आकर
मुस्करा सकता है कौन
प्रख्यात साहित्यकार व दिवंगत पत्रकार धर्मबीर भारती की एक कृति है ‘अंधा युग’ इसे नाटक के रूप में दिल्ली, कोलकाता, लखनऊ, चंडीगढ़ में प्राय: खेला जाता रहा है। महाभारत-युद्ध की पृष्ठभूमि पर आधारित इस कृति में युद्ध के बाद की स्थिति पर एक तीखी टिप्पणी है-
युद्धोपरांत वह अंधा युग...
अवतरित हुआ,
जिसमें स्थितियां, मनोवृत्तियां
आत्माएं, सब विकृत हैं
एक बहुत पतली डोर, मर्यादा की
पर वह भी उलझी है, दोनों पक्षों में
अब आशंकाएं मंडराने लगी हैं क्योंकि मर्यादाओं की पतली डोर भी नहीं बची। राजनीति की भाषा विकृत है, चेहरे विकृत हैं, तेवर विकृत हैं। लगभग सबके कानों में रुई है, मगर मुख से जहरीले शब्दों की बौछार जारी है। चार जून के बाद भी आरोपों, प्रत्यारोपों की लू चलती रहेगी।
इन चुनावों में जितनी हिकारत, जितनी नफरत हमारे परिवेश में परस्पर उगली गई, उसमें एक सवाल बार-बार परेशान करता है कि क्या 4 जून के बाद स्थितियां सामान्य हो जाएंगी? क्या हारे हुए नेता लोग जीते हुए नेताओं को मुबारिकबाद देने के लिए आगे आ पाएंगे? कातिल, खूनी, दरिंदे, चोर, उठाईगीर, बलात्कारी और महाभ्रष्ट, ये सारे शब्द हमारे कई नेताओं ने एक-दूसरे की पीठ पर, छाती पर चस्पां किए। फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि चुनाव-परिणाम आने के फौरन बाद ये नफरत के पीले पत्ते या दाग बुहारे जा पाएंगे।
आशंका है कि कुछ दिन और नफरत बरसेगी। जो नेता नफरत के बाजार में मुहब्बत की दुकान खोलने की बात करते थे, वे भी अब उसी बाज़ार में वही सब बेचने पर आमादा हैं जो बिकता है। अपने ही देश में इस बार हम ऐसे मोड़ पर पहुंच गए, जहां सम्मान, प्यार, स्नेह की भाषा जानबूझ कर भुला दी गई। शायद इतनी नफरत किसी भी शत्रु देश के बारे में भी हमने नहीं परोसी, जितने परस्पर अपने ही देश, अपने ही लोगों द्वारा अपने ही नेताओं के खिलाफ परोसी गई। कुछ सप्ताहों के लिए हम अपने पूर्वजों को भी भूल गए। वाराणसी जैसे क्षेत्र में भी हमने शब्दों का कचरा, कूड़ा, कर्कट गंगा मैय्या के किनारे फैलाने में कोई परहेज़ नहीं किया।
एक अचरज यह भी था कि इस बार वाराणसी की जनसभाओं, रैलियों या नुक्कड़ बैठकों, टीवी चैनलों में भी किसी ने न तो बिस्मिल्लाह खां को याद किया, न ही उनकी शहनाई की गूंज का जि़क्र हुआ, न ही केदारजी की प्रख्यात कविता ‘बनारस’ का जि़क्र हुआ, न ही नज़ीर बनारसी या कबीर चौरा या अस्सी घाट का जि़क्र गोस्वामी तुलसीदास के संदर्भ में हुआ। सभी को लगा कि ऐसी चर्चाओं में वक्त बर्बाद किया तो वोट-एक्सप्रेस छूट जाएगी। ढर्रा वही बना रहा खूनी, चोर, दरिंदे, नशेड़ी, अहंकारी और बलात्कारी यही आरोप नए-नए रूपों में नई-नई तान के साथ गाए गए, उछाले गए।
एक दिलचस्प बात यह देखी गई कि कई टीवी डिबेट्स में एक-दूसरे का गला काटने को उतावले प्रवक्ता लोग और एंकर्स, कार्यक्रम के बाद चाय-कॉफी के प्याले पर एक साथ एक-दूसरे को धांसू प्रस्तुतियों के लिए मुबारिक देेते दिखाई दिए।
अब सही समय है कि देश में पारस्परिक सौहार्द, सहिष्णुता और रचनाधर्मिता का माहौल बने। चुनावी-खींचतान में साम्प्रदायिक तनाव भी बढ़ा है और विपक्षी गठबंधन के तेवर भी तीखे हुए हैं। दोनों पक्षों में यह आशंका बलवती होने लगी है कि चुनावों के बाद तनाव बढ़ेगा। आशंकाएं यदि बलवती रही और असुरक्षा का माहौल बना तो देश में व्यापक स्तर हिंसा एवं टकराव का खतरा उत्पन्न होगा। राष्ट्र की आंतरिक व बाहरी सुरक्षा का तकाज़ा है कि केंद्र में गठित सरकार सुनिश्चित बनाए कि शांति किसी भी शर्त पर बनी रहे। हर सामान्य भारतीय को भी 4 जून के बाद पारस्परिक सद्भाव तो पैदा करना ही होगा।