हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा
कृष्ण चंद्र, उर्दू के दिग्गज लेखक जिनको हिंदी तो क्या उर्दू वाले भी भूल गए, उनकी नाती निहारिका अमेरिका से भारत आई हुई थी और दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के अर्जुन सिंह उर्दू डिस्टेंस लर्निंग सेंटर में मिली क्योंकि वह उर्दू भाषा सीखना चाह रही थी। जब उससे पूछा गया कि वह उर्दू क्यों सीखना चाह रही है तो उसने कहा कि उसके दादा कृष्ण चंद्र उर्दू के एक महान लेखक थे और 1940 से 1970 के दौर में उनकी उर्दू की कहानियां "शमा", "सुषमा", "बानो", "खिलौना", "उर्दू डाइजेस्ट", "सैय्यारा डाइजेस्ट" आदि में प्रकाशित हो पूर्ण विश्व के उर्दू भाषियों में पढ़ी जाती थी और उसके पास वे सुरक्षित हैं वह उनको पढ़ना चाहती है। उर्दू की बात पर हिंदी का यह थोड़ा बदला हुआ जुमला फिट है की जहां पहुंचे न रवि, वहां पहुंचे "उर्दू" कवि। शायर-ए-मशरिक़, पंजाब के डा. सर मुहम्मद इकबाल भले ही पाकिस्तान चले गए हों, मगर चलती दुनिया तक जो पंक्तियां, भारत के लिए कह गए हैं, उन्होंने भारत को अमर कर दिया, “हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा, सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा!’’ क्या खूब कहा है मिर्ज़ा ग़ालिब ने:
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क
जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं,
जिस काफ़िर पे दम निकले!
उनका एक और शेर है ः
इश्क़ पर ज़ोर नहीं,
है ये वो आतिश गालिब
के लगाए न बने, बुझाए न बने!
यूं तो गालिब के उर्दू दीवान में 1150 शेर हैं, जिनके कारण वे दुनिया में हरदिलाजीज हैं, मगर उनके फारसी के दीवान में 7500 शेर हैं। इनका तो आम लोगों को कोई पता ही नहीं। इस में कोई दो राय नहीं, चाहे वह उर्दू शायरी हो या हिंदी काव्य, सदा ही और विशेष रूप से स्वतंत्रता संग्राम के समय, उनका जादू सर चढ़ कर बोला है, जैसे मुहम्मद रफ़ी के स्वर में, "अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं, सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं", जिसने लाखों युवाओं को भारतीय सेना में ज्वाइन करने को प्रेरित किया। ठीक ऐसे ही, लता मंगेशकर ने भी एक बड़े समूह में 1962 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री, पंडित जवाहर लाल नेहरू के कहने पर यह गीत "ए मेरे वतन के लोगों..." गाकर भारतवासियों की रग-रग में देश के प्रति धारा प्रवाह प्रेम व वीर रस की भावना स्फुटित की थी। इस प्रकार के अनगिनत उर्दू के गाने ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन से जनता सुनती चली आ रही है। लेखक के पिता, नूरुद्दीन अहमद बताते हैं कि 23 अक्तूबर 1947 का, जब देश के विभाजन के बाद, मुहम्मद अली जिन्नाह और उनके जैसे कुछ दिग्भ्रमित लोगों के कारण जब मुस्लिम लोग पाकिस्तान जा रहे थे तो इमाम-उल-हिंद हज़रत मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने पुरानी दिल्ली की शाहजहानी जामा मस्जिद की सीढ़ियों से एक ऐसा आत्मा को विभोर करने वाला और रूह को हिलाने वाला भाषण उर्दू में दिया कि पुरानी दिल्ली के रेलवे स्टेशन से लाहौर की ट्रेन पकड़ने के लिए बैठे मुसलमानों ने अपने अपने घरों को वापिस जा कर अपने बिस्तरबंद खोल दिए।
भारत की संसद में स्वर्गीय सुषमा स्वराज और पूर्व प्रधानमंत्री, मनमोहन सिंह के मध्य वायरल ऐतिहासिक शायराना नोक झोंक तो सब ने देखी होगी, मगर बांसुरी स्वराज भी मां से कुछ कम नहीं। जब वह करोल बाग़ में अपना चुनाव प्रचार कर रही थीं तो किसी कांग्रेसी ने उनको बुरा-भला कहा तो उन्होंने अफ़जल मंगलौरी का यह शेर बोला,
"यारों के दांत बड़े ज़हरीले हैं,
हम को भी सांपों का मंतर आता है!"
जब अबुल कलाम आज़ाद ने विभाजन के पश्चात् मुसलमान कौम से कहा कि वे कहां जा रहे हैं, उनकी मस्जिद की मीनारें, खानकाहें और गंगा व जमुना का पानी उन्हें पुकार रहे हैं। यह सुनना था कि अधिकतर मुसलमानों ने अपने बिस्तर बंद खोल दिए और पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से लाहौर को जाने वाली पैसेंजर ट्रेन को गुड बाय कहा। "हमारे बचपन में हमने अपने पिताजी को उर्दू के अख़बार और पत्रिकाएं पढ़ते हुए देखा है," कहते हैं, असम के पूर्व राज्यपाल, जगदीश मुखी। हालांकि अब उर्दू भाषा व उर्दू माध्यम स्कूल, उर्दू पुस्तकें आदि आज या तो न के बराबर हैं, या समाप्त हो चली हैं, मगर उर्दू की तहज़ीब व संस्कृति बची हुई है, जैसा कि हम उर्दू लेखिका और अनुवादक, रखशंदा जलील द्वारा रचित कार्य और ताज़ा पुस्तक, "लव इन द टाईम ऑफ हेट" में देखते हैं, जिस में उन्होंने बहुत से लेखों को एकत्रित कर उर्दू से अंग्रेज़ी में प्रेम, इश्किया शायरी, देश प्रेम, नातों, मनक़बत, गज़ल, नज़म आदि को ही नहीं, मुंशी प्रेम चंद, सआदत हसन मंटो, इंतेजार हुसैन, बेकल उत्साही, कृष्ण बिहारी नूर, महिंदर सिंह बेदी, राजा मेहदी अली खान, जोन एलिया, सिराज अनवर, गोपी चंद नारंग आदि का भी जिक्र है। उर्दू के संबंध में उनके द्वारा रचित लगभन 40 पुस्तकों में उनकी ज़ोर इसी बात पर है कि उर्दू मुहब्बत की भाषा है, विभाजन की नहीं, जैसा कि नफरती भावनाओं से प्रेरित कुछ लोग कहते हैं। क्या खूब कहा है, प्रख्यात शायर, बशीर बद्र ने :
"सात संदूकों में भर कर बंद कर दो नफरतें,
आज इन्सान को मुहब्बत की ज़रूरत है बहुत!"
जय हिंद।