वो गले मिले तो बाकी की जान क्यों जली ?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन गले क्या मिले, पूरा का पूरा पश्चिम हाय-तौबा मचाने लगा है। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने तो यहां तक कह दिया कि ‘यह बहुत ही निराशाजनक है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र दुनिया के खूनी अपराधी को गले लगा रहा है। वो भी तब जब यूक्रेन में बच्चों के अस्पताल पर जानलेवा हमला हुआ है।’ पश्चिम के दूसरे देशों को भी यह नागवार गुजरा है क्योंकि वे यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि नरेंद्र मोदी किसी भी सूरत में पुतिन को गले नहीं लगाएंगे। यहां तक कि पश्चिमी थिंक टैंक के बड़े-बड़े सूरमा सोशल मीडिया पर इस बारे में लिख भी रहे थे लेकिन जो लोग नरेंद्र मोदी की कार्यशैली से वाकिफ हैं, वे यह जानते हैं कि मोदी कभी भी किसी को भी अपनी कूटनीति से अचंभित कर सकते हैं। इस बार भी उन्होंने यही किया है, रूस खुश है तो अमेरिका से लेकर यूरोप तक पर जैसे किसी ने जले पर नमक छिड़क दिया है। इधर चीन की चिंता स्वभाविक है लेकिन वह खुले तौर पर कुछ बोल भी नहीं सकता है। इस वक्त उसे रूस की सबसे ज्यादा जरूरत है।
नरेंद्र मोदी का रूस दौरा ऐसे समय में हुआ जब यूरोपीय देश नाटो के बैनर तले रूस को दबोचने की नीयत से अमेरिका में इकट्ठा थे। चूंकि हाल के वर्षों में अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते मधुर हुए हैं इसलिए पश्चिमी देशों को लग रहा था कि अभी तक भारत ने भले ही रूस की खुले रूप से आलोचना नहीं की है मगर वह रूस का साथ भी नहीं देगा। मोदी कम से कम पुतिन को गले नहीं लगा कर एक संदेश तो दे ही सकते हैं। मगर हुआ बिल्कुल उल्टा पुतिन ने नरेंद्र मोदी को अपने घर पर भोजन के लिए बुलाया और साथ ही रूस के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाजा तो दूसरी तरफ मोदी बड़ी गर्मजोशी के साथ गले मिले। यह दृश्य सामने आते ही पश्चिमी देशों को जैसे भूकंप का झटका लग गया। आलोचना के स्वर तेजी से उभरने लगे, आश्चर्य की बात यह है कि दोनों के गले मिलने से वो इतने विचलित हो गए कि उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि मोदी ने पुतिन के साथ बैठक में बड़े स्पष्ट शब्दों में यह कहा कि युद्ध के मैदान में मसलों का हल नहीं निकाला जा सकता है।
उन्होंने यहां तक कहा कि युद्ध में जब बच्चों की मौत होती है तो दिल छलनी हो जाता है। यही बात मोदी ने पुतिन के सामने बैठकर इससे पहले भी कही थी तब पश्चिमी देशों ने उनकी बात का स्वागत किया था। इस बार क्या हो गया? इस मामले में मुझे विदेश मंत्री एस. जयशंकर की बात बड़ी सही लगती है कि यूरोप का नजरिया एकपक्षीय है। वह अपनी समस्या को तो दुनिया की समस्या मानता है लेकिन दुनिया की समस्या को वह समस्या मानता ही नहीं है।
जो लोग पुतिन और मोदी के गले मिलने को लेकर विरोधी तेवर अपना रहे हैं, उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि रूस और भारत की दोस्ती कोई नई नहीं है। पं. जवाहरलाल नेहरू के समय से ही हम पक्के दोस्त बने हुए हैं, हमारी भाषा भले ही दो हैं लेकिन हम एक स्वर में बोलते रहे हैं। राजकपूर जितना भारत में लोकप्रिय रहे हैं, उतने ही लोकप्रिय सोवियत रूस में भी थे। यदि पश्चिमी देश भारत के नजरिये से देखने की समझ दिखाएं तो उन्हें यह बात समझ में आ जाएगी कि भारत का कदम पश्चिम के विरोध में नहीं है बल्कि खुद के वजूद की जरूरतों के मुताबिक है। आज अमेरिका, फ्रांस या दूसरे देश भले ही हमें विभिन्न तरह के हथियारों की खेप देने को तैयार होते हैं लेकिन हम यह कैसे भूल जाएं कि जब अमेरिका खुले तौर पर पाकिस्तान का साथ दे रहा था तब वह रूस ही था जिसने हमारी सामरिक मदद की। वह हमेशा से हमारा विश्वसनीय साथी रहा है। आज स्थिति ऐसी पैदा हो गई है कि रूस बड़ी तेजी से चीन की तरफ झुकने को मजबूर हुआ है क्योंकि पश्चिमी देशों ने उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाया हुआ है। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि रूस के साथ अपनी दोस्ती को भारत और पुख्ता करे। पश्चिमी देशों के विशेषज्ञ कह रहे हैं कि भारत की सीमा पर यदि चीन कोई हरकत करता है तो रूस सीधे तौर पर साथ नहीं देगा। वैसी स्थिति में अमेरिका ही साथ के लिए आगे आएगा। यह आकलन अपनी जगह सही हो सकता है लेकिन यह भी सच है कि मौजूदा परिस्थिति में केवल रूस में ही यह दम है कि वह चीन को भारत के साथ तकरार न बढ़ाने की सलाह दे सके। चीन को भी पता है कि रूस की मदद के बगैर वह आगे नहीं बढ़ सकता।
कुछ अमेरिकी विशेषज्ञ कह रहे हैं कि भारत में रक्षा उपकरणों के उत्पादन को लेकर रूस की सहमति अमेरिका के लिए चिंताजनक है। मुझे ऐसी बातें बेवकूफी भरी लगती हैं। आप हथियार बनाकर दुनियाभर में बेचें और सबको लड़ाएं तो कोई बात नहीं मगर हम अपनी रक्षा के लिए हथियारों का उत्पादन करें तो आपके लिए खतरा है? मैं साफ शब्दों में कहना चाहता हूं कि नाटो की बैठक से ठीक पहले मोदी का पुतिन को गले लगाना पूरी दुनिया के लिए यह संदेश है कि भारत रणनीतिक मसले पर किसी की नहीं सुनेगा। भारत केवल विश्व शांति के लिए काम करेगा। पुतिन से गले मिलने के बाद मोदी का आस्ट्रिया जाना एक बड़ा संदेश है, कोई भारतीय प्रधानमंत्री 41 साल बाद आस्ट्रिया गया है।
बूढ़ों की लड़ाई में उम्र का सवाल...
जब मैं यह कालम लिख रहा हूं तब ट्रम्प पर गोली चलने की घटना हुई है और ट्रम्प शायद इससे मजबूत हो सकते हैं लेकिन यह बड़ा अजीब है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के मौजूदा दो उम्मीदवारों में से कोई भी जीते, वो अमेरिकी इतिहास का सबसे बूढ़ा राष्ट्रपति होेगा। इसके पहले का रिकॉर्ड रोनाल्ड रीगन के नाम है जो अपने दूसरे कार्यकाल के बाद 77 साल की उम्र में सेवानिवृत्त हुए थे। इस समय जो बाइडेन की उम्र अभी 81 साल है और ट्रम्प 78 साल के हैं, अमेरिकी जनजीवन में बुजुर्गों का काम करना कोई असामान्य बात नहीं है। अधिकृत आंकड़े बताते हैं कि वहां 75 साल से अधिक उम्र के करीब 20 लाख लोग नियमित रूप से काम कर रहे हैं। माना जा रहा है कि अगले एक दशक में यह आंकड़ा 30 लाख से भी ज्यादा हो सकता है। इसलिए इस बात में किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि बाइडेन और ट्रम्प इतनी उम्र में राष्ट्रपति क्यों बनना चाहते हैं, उम्र का सवाल तब उठा जब जो बाइडेन के भूलने की आदतें सामने आने लगीं। फिलहाल राष्ट्रपति की उम्र को लेकर सबसे ज्यादा चिंता में हैं व्हाइट हाउस और सीआईए के खुफिया अधिकारी कि क्या इतनी ज्यादा उम्र के राष्ट्रपति के साथ महत्वपूर्ण खुफिया जानकारियां साझा की जा सकती हैं? मगर उनके सामने भी विकल्प क्या है?