भारत युद्ध के विरुद्ध
प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की तीन दिवसीय विदेश यात्रा समाप्त हो गई है जिसमें दो दिन उन्होंने रूस में गुजारे और एक दिन आस्ट्रिया में। श्री मोदी की रूस यात्रा पर अमेरिका ने जो ‘चिन्ता’ व्यक्त की है उसे भारत स्वीकार्य नहीं मान सकता है क्योंकि यह दो स्वतन्त्र व प्रभुसत्ता सम्पन्न देशों के बीच का आपसी मामला है। अमेरिका को मानवीय अधिकारों के बारे में भारत को उपदेश देने की आवश्यकता भी बिल्कुल नहीं है क्योंकि भारत का संविधान ही मानवीय अधिकारों पर टिका हुआ है। भारत के यूक्रेन के साथ भी अच्छे सम्बन्ध हैं और वह यह भी जानता है कि रूस व यूक्रेन के बीच में क्या चल रहा है। इन दोनों देशों के बीच पिछले दो साल से युद्ध चल रहा है। युद्ध में निश्चित तौर पर निरीह नागरिकों को भी नुक्सान पहुंचता है। मगर अमेरिका को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि एशिया में फिलिस्तीन व इजराइल के बीच भी युद्ध चल रहा है जिसमें रोजाना निरीह नागरिकों, यहां तक कि औरतों व बच्चों की भी हत्याएं हो रही हैं।
भारत गांधी का देश है और मानता है कि युद्ध से किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकता। युद्ध केवल बर्बादी और तबाही लेकर ही आता है मगर खुद अमेरिका व पश्चिमी यूरोपीय देश रूस-यूक्रेन युद्ध में शुरू से ही आग में घी डालने का काम कर रहे हैं और यूक्रेन को लगातार फौजी व आर्थिक मदद दे रहे हैं। यूक्रेन जिस तरह पश्चिमी देशों के सामरिक संगठन नाटो की सदस्यता के लिए छटपटा रहा है उसे किसी भी तरह रूस जायज नहीं मानता है तथा अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के विरुद्ध समझता है जो 90 के दशक में रूस व पश्चिमी देशों के बीच हुए थे। 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद यूक्रेन एक स्वतन्त्र देश के रूप में सोवियत संघ से ही निकल कर खड़ा हुआ जिसकी सीमाएं रूस से मिली हुई हैं। नाटो देशों की फौजें अपने दरवाजे पर रूस को कतई स्वीकार्य नहीं है। रूस व यूक्रेन के बीच जो सीमा विवाद है वह इन देशों के बीच का मामला है और भारत शुरू से ही कहता रहा है कि इस समस्या का हल केवल बातचीत से ही होना चाहिए। श्री मोदी ने रूस की यात्रा के दौरान भी भारत का यही रुख सामने रखा और स्पष्ट किया कि किसी भी झगड़े को निपटाने का रास्ता केवल वार्तालाप ही हो सकता है। श्री मोदी ने रूस से आस्ट्रिया पहुंच कर भी इस रुख को और खोला और कहा कि भोले-भाले लोगों की हत्या कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकती। इजराइल-फिलिस्तीन युद्ध के सन्दर्भ में इस तथ्य को अमेरिका को ही सबसे पहले समझना चाहिए।
श्री मोदी ने रूसी राष्ट्रपति पुतिन से भेंट के दौरान भी यह साफ कर दिया था कि यह समय युद्ध का नहीं बल्कि वार्तालाप का है। युद्ध की विभीषिका से भारत भलीभांति परिचित है और जानता है कि इसके बाद बेकसूर नागरिकों को ही कितने कष्टों को झेलना पड़ता है। ये लोग दोनों तरफ के होते हैं। मानवाधिकारों के मामले में फिलिस्तीनी जनता पिछले 75 साल से जिस तरह पीड़ाएं झेल रही है उसका कोई दूसरा सानी नहीं है। अतः अमेरिका को श्री मोदी की रूस यात्रा पर प्रतिक्रिया देने से पहले अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए था। दुनिया में किन्हीं भी प्रभुसत्ता सम्पन्न राष्ट्रों की भौगोलिक संप्रभुता के सन्दर्भ में राष्ट्रसंघ की नियमावली को मानना प्रत्येक देश का धर्म है। भारत अपने इस रुख को लेकर राष्ट्रसंघ के भीतर भी स्पष्ट विचार व्यक्त कर चुका है। मगर क्या वह है कि अमेरिका राष्ट्रसंघ में ही इजराइल-फिलिस्तीन युद्ध रुकवाने के प्रस्तावों का विरोध करता रहता है? मानवीय अधिकारों के बारे में अमेरिका दोहरा रुख कैसे अपना सकता है। देशों की भौगोलिक सीमाओं के बारे में राष्ट्रसंघ की नियमावली पूरी दुनिया में एक समान रूप से लागू होती है। अमेरिका को पता होना चाहिए कि दुनिया में राष्ट्रसंघ के अस्तित्व (1945 में) में आने के बाद अभी तक जितने भी युद्ध हुए हैं उनमें से 90 प्रतिशत से भी ज्यादा में अमेरिका की ही सक्रिय भूमिका रही है। सामरिक हथियारों का वह दुनिया में सबसे बड़ा सौदागर है।
भारत-पाक युद्धों के दौरान भारत ने अमेरिका का यह रूप देखा है। जहां तक रूस का सवाल है तो यह भारत का परखा हुआ सच्चा मित्र है और भारत यह दोस्ती कभी नहीं छोड़ सकता। पिछले दो दशकों में हमारे सम्बन्ध अमेरिका से भी मधुर हुए हैं परन्तु हमारी विदेश नीति पूरी तरह स्वतन्त्र है और दुनिया का कोई भी देश इसे प्रभावित नहीं कर सकता। भारत के द्विपक्षीय सम्बन्ध किस देश के साथ कैसे हैं यह केवल भारत ही तय करेगा। अमेरिका हमें रूस-यूक्रेन के बारे में क्या समझायेगा। हम तो पहले ही यह कह चुके हैं कि भारत बुद्ध का देश है और इसकी विदेश नीति भी बुद्ध से प्रेरणा लेकर ही आजादी के बाद तय की गई थी। बदलते वैश्विक सन्दर्भों के बावजूद भारत आपसी शान्ति व सह अस्तित्व पर ही विश्वास रखता है। इसका संविधान ही मानवतावाद का सबसे बड़ा दस्तावेज है।