India WorldDelhi NCR Uttar PradeshHaryanaRajasthanPunjabJammu & Kashmir Bihar Other States
Sports | Other GamesCricket
Horoscope Bollywood Kesari Social World CupGadgetsHealth & Lifestyle
Advertisement

इंडिया गठबंधन : कैसा बंधन

01:41 AM Dec 06, 2023 IST
Advertisement

सफल लोकतन्त्र में विपक्ष की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है और मजबूत विपक्ष को प्रजातन्त्र की मजबूती भी कहा जाता है। इसका एक ही कारण होता है कि लोकतन्त्र में जनता द्वारा चुनी गई सरकार जनता के लिए ही काम करती है। यह कार्य वह शासक भाव से नहीं बल्कि सेवाभाव से करती रहे इसके लिए जनता द्वारा चुना गया विपक्ष ही उसकी निगरानी भी करता है अतः सरकार को लगातार सेवाभाव में देखने का काम विपक्ष ही करता है क्योंकि वह भी सत्तारूढ़ पक्ष की तरह ही जनता द्वारा विभिन्न लोकतान्त्रिक सदनों में चुनकर भेजा जाता है। भारत की संसदीय प्रणाली में चुने हुए सदनों के भीतर सत्ता पक्ष और विपक्ष में सन्तुलन बनाये रखने के लिए इन्हें चलाने के एेसे नियम बनाये गये जिससे कभी भी सरकार सेवाभाव की जगह शासक भाव में न जा पाये। इसकी तफ्सील में जाना इस सम्पादकीय में संभव नहीं है क्योंकि आज देश के सामने तो ‘विपक्ष’ की ही समस्या है। 28 विपक्षी दलों को जोड़कर जो ‘इंडिया गठबन्धन’ इसी साल के जून महीने में बनाया गया था वह पहले ही झटके में तार-तार होता नजर आ रहा है और इसके सिपाही आपस में ही एक-दूसरे के खिलाफ तलवारें खींचते नजर आ रहे हैं।
सबसे पहले यह स्पष्ट होना जरूरी है कि इस गठबन्धन का गठन ही केन्द्र में मजबूत विपक्ष खड़ा करने के उद्देश्य से हुआ था। हाल में हुए विधानसभा चुनावों में इस गठबन्धन की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान हारने से इसमें शामिल अन्य दल इतने निराश हो गये हैं कि उन्हें सारा दोष कांग्रेस पर ही मढ़ने में ही अपनी ‘विजय’ नजर आ रही है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि वर्तमान राजनीतिज्ञों की सोच कितनी निजपरक और संकीर्ण दृष्टि की है। मगर इंडिया के अधिसंख्य क्षेत्रीय दलों को यह भी नजर आ रहा है कि कांग्रेस पार्टी ने तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति की चन्द्रशेखर राव सरकार को किस तरह हराया है। भारत राष्ट्र समिति एक क्षेत्रीय पार्टी है। अभी तक यह अवधारणा बनायी जाती थी कि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों को उनके अपने घर में नहीं हरा सकती। तेलंगाना जीतकर कांग्रेस ने इस अवधारणा को गलत साबित कर दिया है। दरअसल इंडिया गठबन्धन लोकसभा चुनावों के लिए बना था। विधानसभा चुनावों के लिए यह गठबन्धन नहीं था। इसका मतलब यह हुआ कि कांग्रेस के सहयोगी दलों को इन चुनावों में उसे समर्थन देना चाहिए था मगर बजाय समर्थन के कई दलों में कांग्रेस प्रत्याशियों के विरोध में अपने उम्मीदवार उतार दिये। आम आदमी पार्टी तो मिजोरम तक में जाकर चुनाव लड़ी जबकि अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने मध्य प्रदेश में 70 स्थानों पर चुनाव लड़ा। राजस्थान में भी आप पार्टी ने अपने प्रत्याशी उतारे।
बेशक लोकतन्त्र में हर पार्टी को चुनाव लड़ने का अधिकार होता है मगर आपस में तालमेल बैठाने या दोस्ती करने का फैसला तो राजनैतिक पार्टियां खुद ही करती हैं। अतः केवल एक दल को कैसे जिम्मेदार बनाया जा सकता है। जबकि किसी भी राजनैतिक गठबन्धन की हकीकत यह होती है कि इसमें विभिन्न विचारधाराओं व सिद्धान्तों की पार्टियां एक साझा मंच तैयार करती हैं जिससे वह अपने से मजबूत समझे जा रहे सत्तारूढ़ दल का मुकाबला कर सकें। अतः गठबन्धन में प्रत्येक पार्टी को अपने निजी हित छोड़कर समग्र हितों के बारे में सोचना होता है लेकिन यहां तो गजब हो रहा है। तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता बनर्जी कह रही हैं कि क्या मुझसे पूछकर खड़गे जी ने 6 दिसम्बर को इंडिया की बैठक बुलाई थी। अखिलेश यादव इसी बात पर बिफरे बैठे हैं कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस के नेता श्री कमलनाथ ने उनकी पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए सीटें क्यों नहीं दी? आखिरकार यह बैठक ही रद्द कर दी गई। इससे यही साबित होता है कि ये क्षेत्रीय दल तेलंगाना में कांग्रेस की जीत से खुश नहीं हैं और उत्तर भारत के तीन राज्यों में हुई उसकी पराजय को पूरे इंडिया गठबन्धन की गांठें खोलने वाला मान रहे हैं। यह नजरिया न तो गठबन्धन का हो सकता है और न देश में मजबूत विपक्ष खड़ा करने का। यदि लोकतन्त्र को भारत में मजबूत बनाना है तो सभी विपक्षी राजनैतिक दलों को सबसे पहले अपने स्वार्थ छोड़ने होंगे और देश को सर्वोपरि मानना होगा। एेसा नहीं है कि विपक्ष की राजनीति में गठबन्धन का प्रयोग भारत मंे पहली बार हो रहा है। सबसे पहले 1967 में नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन इसी सिद्धान्त के तहत हुआ था। उसके बाद 1971 के लोकसभा चुनावों में भी इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रमुख विपक्षी दलों ने गठबन्धन किया था जिसे ‘चौगुटा’ कहा गया था। इसके बाद 1977 के चुनावों में भी सभी प्रमुख विपक्षी दलों ने पहले गठबन्धन और बाद में जनता पार्टी बनाई। इसके बाद भी 80 व 90 के दशक में कई गठबंधन बने मगर सभी बाद में बिखर भी गये लेकिन चुनाव भी कई बार सब ने मिल कर लड़ेे और वे सत्ताधारी दल को पराजित करने में भी कई बार समर्थ साबित हुए लेकिन आज 2023 का अंत चल रहा है और राजनीतिक का कलेवर पूरी तरह से बदल चुका है लेकिन जो नहीं बदला है वह विपक्षी दलों खासकर क्षेत्रीय दलों का वह नजरिया जिसमें उनकी निगाह सिर्फ अपने राज्य की लोकसभा सीटों पर रहती है। यह नजरिया बदला जाना चाहिए और स्वीकार किया जाना चाहिए कि राष्ट्रीय चुनाव लड़ने के लिए उन्हें किसी राष्ट्रीय विपक्षी दल के नजरिये की ही जरूरत पड़ेगी।

Advertisement
Next Article