भारत-यूरोप आर्थिक कॉरिडोर
इटली के अपुलिया शहर में सम्पन्न विश्व के सात सर्वाधिक औद्योगिक देशों का शिखर सम्मेलन जी-7 समाप्त हो गया जिसने एशिया महाद्वीप की शक्ति का संज्ञान लेते हुए भारत की केन्द्रीय भूमिका भी नियत की और स्वीकार किया कि भारत से यूरोप तक का आर्थिक काॅरिडोर बनना चाहिए। भारत ने जी-20 सम्मेलन की मेजबानी करते हुए इस आशय का प्रस्ताव रखा था। इस प्रस्ताव का अनुमोदन यदि जी-7 देश करते हैं तो हमें समझ जाना चाहिए विश्व व्यापार में भारत की भूमिका कितनी बढ़ने वाली है। दरअसल यह पिछले 75 वर्षों से भारत द्वारा किये जा रहे सतत प्रयासों का प्रतिफल है क्योंकि 1991 में भारत में आर्थिक उदारीकरण शुरू होने के बाद अभी तक अमेरिका व यूरोपीय देशों का नजरिया भारत को एक बड़े बाजार के रूप में देखने का रहा है। परन्तु अब इसमें परिवर्तन आ रहा है क्योंकि भारत विदेशी पूंजी निवेश का भी केन्द्र बनता जा रहा है और आयातित टैक्नोलॉजी के सहारे इसके उत्पादन में भी वृद्धि दर्ज हो रही है। अतः यूरोपीय देशों का हित भी है कि भारत से उनके देशों को निर्यात बढे़ क्योंकि भारत में श्रम सबसे सस्ता है।
भारत की क्षमता आधुनिकतम टैक्नोलॉजी को आत्मसात करके उत्पादन बढ़ाने की है। इसमें इसके उन लोगों का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है जो टैक्नोलॉजी को साध लेने में सक्षम होते हैं। भारत ने इस जी-7 सम्मेलन में शिरकत एक पर्यवेक्षक देश के रूप में की थी। कुल आठ देशों को इस हैसियत में आमन्त्रित किया गया था जिनमें भारत भी एक देश था। भारत-यूरोप आर्थिक कॉरिडोर का उद्देश्य एशिया, फारस की खाड़ी और यूरोप के बीच सम्पर्क व आर्थिक एकीकरण को बढ़ावा देना मात्र ही नहीं है बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की भूमिका को महत्ता की स्वीकारोक्ति भी है। यह गलियारा या कॉरिडोर भारत से संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, इजराइल और यूनान होते हुए पश्चिमी यूरोप पहुंचेगा। इससे समूचे एशियाई महाद्वीप की आर्थिक शक्ति में अभिवृद्धि होगी औऱ यह एशिया की ही दूसरी आर्थिक शक्ति चीन के ‘वन बेल्ट वन रोड’ का जवाब भी होगा। चीन पूरे एशिया में अपना आर्थिक दबदबा कायम करना चाहता है जिसकी वजह से उसने अपनी परियोजना शुरू की थी। भारत- यूरोप कॉरिडोर के अन्तर्गत भारत, सऊदी अरब , अमेरिका व यूरोप के बीच एक विशाल सड़क व रेलमार्ग और पानी के जहाजों के जल मार्ग की परिकल्पना की गई है।
इस कॉरिडोर के बनने के बाद यूरोप व अमेरिका तथा एशिया व भारत के मध्य व्यापार सस्ता होगा जिसका लाभ दोनों पक्षों के देशों को मिलेगा। परन्तु भारत को जी-7 देशों के सख्त रूस विरोधी रवैये पर भी कड़ी नजर रखनी होगी। रूस भारत का सच्चा व परखा हुआ मित्र देश है। जी-7 देशों ने जिस तरह रूस की मदद करने वाली चीनी सम्पत्तियों के खिलाफ कार्रवाई करने की बात कही है उससे हमें सतर्क होने की जरूरत है। रूस का उक्रेन से पिछले दो साल से युद्ध चल रहा है। भारत का रवैया इस मामले में शुरू से ही यह रहा है कि केवल बातचीत से ही विवादों का हल होना चाहिए। युद्ध की मार्फत हल नहीं खोजा जा सकता। जी-7 सम्मेलन के देशों अमेरिका, जापान, इटली, फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी व कनाडा ने संकल्प लिया कि उन संस्थाओं के खिलाफ भी प्रतिबन्ध लगाया जायेगा जिन्होंने रूस की उनके द्वारा लगाये गये आर्थिक व सैनिक प्रतिबन्धों से बचने में मदद की। पूरी दुनिया जानती है कि चीन लगातार रूस को हथियार भेज रहा है। इस मामले में भारत को बहुत सावधानी बरतनी होगी क्योंकि रूस के साथ भारत का भी आर्थिक कारोबार व व्यापार बदस्तूर चालू है। भारत को अपने आर्थिक व सैनिक हित सभी दृष्टियों से सुरक्षित रखने होंगे।
जाहिर है कि भारत की विदेश नीति पंचशील के सिद्धान्तों पर टिकी हुई है जिसके मूल में सह अस्तित्व व भाईचारा व शान्ति सौहार्द है। रूस-यूक्रेन युद्ध के मामले में जहां चीन रूस की मदद कर रहा है वहीं यूरोपीय देश यूक्रेन की सैनिक व आर्थिक सहायता कर रहे हैं। जी-7 सम्मेलन शुरू होने के अगले दिन ही इन देशों ने यूक्रेन को 50 अरब डालर का ऋण देने की स्वीकृति प्रदान की थी। दूसरी तरफ स्विटजरलैंड में रूस- यूक्रेन युद्ध को रुकवाने व दोनों देशों के बीच शान्ति स्थापित करने के लिए एक वैश्विक सम्मेलन हो रहा है। इसमें भारत भी शिरकत कर रहा है परन्तु न तो इसमें चीन गया है और न ही रूस गया है। इसके साथ अमेरिका राष्ट्रपति जो बाइडेन भी नहीं गये। भारत चाहता है कि पूरा मामला कूटनीतिक प्रयासों व बातचीत से सुलझे। इस सम्मेलन में 90 से अधिक देश भाग ले रहे हैं। मगर विचारणीय मुद्दा यह है कि इस प्रकार के वैश्विक सम्मेलनों का तभी कोई सफल हल निकल सकता है जबकि युद्धरत दोनों देश पूरी ईमानदारी के साथ अपनी-अपनी हठधर्मिता त्यागें। भारत केवल इतना ही चाहता है। जब तक यूक्रेन व रूस दोनों को बातचीत की मेज पर नहीं लाया जायेगा तब तक सभी प्रयास कागजी प्रस्ताव बन कर रह सकते हैं।