भारत, तिब्बत और अमेरिका
तिब्बत के धर्म गुरु और वहां की निर्वासित सरकार के प्रमुख दलाई लामा से भेंट करने अमेरिका से वहां के सांसदों का जो प्रतिनिधिमंडल दो दिन की धर्मशाला यात्रा पर आया है उसका उद्देश्य निश्चित रूप से तिब्बत के लोगों के अधिकार उन्हें दिलाया जाना है। इस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व हालांकि अमेरिकी संसद की विदेशी मामलों की समिति के अध्यक्ष श्री माइकल मैकाल हैं मगर वहां की संसद की पूर्व अध्यक्ष श्रीमती नैंसी पेलोसी के इसमें शामिल होने से उन्हीं की तरफ राजनैतिक क्षेत्रों में उत्सुकता से देखा जा रहा है। श्रीमती पेलोसी 2022 में जब ताइवान के दौरे पर गई थीं तब भी बहुत विवाद हुआ था और चीन ने खूब आंखें भी तरेरी थीं। ताइवान को भी चीन अपना हिस्सा मानता है और वहां की सरकार के साथ विदेशों के सीधे सम्बन्धों पर तिलमिलाता है जबकि ताइवान खुद को एक स्वतन्त्र राष्ट्र बताता है। कमोबेश यही स्थिति तिब्बत की भी अमेरिका की नजर में है और वह चाहता है कि तिब्बत का चीन के साथ जो विवाद है वह निपटना चाहिए और दोनों पक्षों में बातचीत से इसे सुलझाया जाना चाहिए।
इस सन्दर्भ में अमेरिका का नजरिया बहुत साफ है। उसका मानना है कि तिब्बत के लोगों के साथ चीन ने नाइंसाफी की है जिसकी वजह से तिब्बती लोग कष्ट भुगत रहे हैं। चीन ने आजाद होते ही 1949 में ही तिब्बत को हड़पने की योजना बना ली थी। तिब्बत में अपनी फौजें भेजकर चीन ने 1959 के आते-आते पूरे तिब्बत को हड़प लिया और तब तिब्बत के धर्मगुरु व राजनैतिक शक्ति के प्रतिष्ठाता दलाई लामा ने भारत में शरण ली थी और हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला शहर में अपनी निर्वासित सरकार गठित की थी। तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने तिब्बत से आने वाले लाखों शरणार्थियों को भारत में पनाह दी थी। तभी से लेकर आज तक दलाई लामा तिब्बत के लोगों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं परन्तु चीन तिब्बत को अपना हिस्सा बताकर वहां के तिब्बती लोगों पर जुल्म ढहा रहा है। दुनियाभर में चीन अकेला एेसा देश है जिसे विस्तारवादी कहा जाता है। अमेरिका शुरू से ही तिब्बत के हक में रहा है और वह दलाई लामा का बहुत सम्मान भी करता है। दलाई लामा पिछले साठ सालों से शान्तिपूर्वक व अहिंसक तरीके अपनाकर पूरी दुनिया के सामने अपना पक्ष रख रहे हैं मगर चीन जिद पर अड़ा हुआ है कि वह तिब्बत पर अपना दावा नहीं छोड़ेगा। चीन की हठधर्मिता की नीति और उसका सैन्य दिमाग (मिलिट्री माइंडेड) इस कदर प्रभावी है कि उसने पं. नेहरू की सदाशयता और उनके मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पण को कमजोरी समझा और 1962 में अचनाक ही भारत पर हमला बोल दिया। कुछ कूटनीतिक विशेषज्ञों का यह मानना रहा है कि चीनी आक्रमण तिब्बत के प्रति भारत की नीति का जवाब था।
अमेरिका पूरी दुनिया में मानवीय अधिकारों का अलम्बरदार कहलाया जाता है। हालांकि इस मामले में वह चुनीन्दा रहा है परन्तु ितब्बत को लेकर इस देश की सभी राजनैतिक पार्टियों का रुख व नजरिया एक जैसा रहा है। नैंसी पेलोसी जिन प्रतिनिधिमंडल में आयी है उसमें अमेरिका की प्रमुख पार्टियों डैमोक्रेटिक पार्टी व रिपब्लिकन पार्टी, दोनों के ही सदस्य हैं। इससे अमेरिका के लोगों की तिब्बत के बारे में राय का अन्दाजा लगाया जा सकता है। अमेरिकी संसद के दोनों सदन तिब्बत के बारे में दो कानून बना चुके हैं जिन पर अभी राष्ट्रपति जो बाइडेन के हस्ताक्षर होने हैं। इसके बाद अमेरिका तिब्बत की समस्या हल करने के बारे में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मुहीम तेजी से चला सकता है। अमेरिका के दलाई लामा को दिया गया यह खुला समर्थन है। इसी वजह से चीन ने नैंसी पेलोसी की यात्रा की कड़ी निन्दा की है और अमेरिका को चेतावनी दी है कि राष्ट्रपति बाइडेन इन कानूनों पर हस्ताक्षर न करें। मगर पेलोसी के साथ आये श्री माइकल ने धर्मशाला में ही साफ कर दिया है कि राष्ट्रपति के दस्तखत न करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। जहां तक भारत का सवाल है तो 2003 तक भारत पं. नेहरू की नीतियों पर ही चल रहा था और ऐलान कर रहा था कि तिब्बत एक स्वायत्तशासी देश के समरूप है।
यदि गौर से देखा जाये तो भारत तिब्बत को भूटान जैसा ही देश मानता था। मगर 2003 में केन्द्र की भाजपा नीत अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने एक ऐतिहासिक गलती कर डाली और स्वीकार कर लिया कि तिब्बत चीन का ही एक इलाका है। भारत की इस सदाशयता का जवाब चीन ने यह दिया कि उसने सिक्किम को भारत का अंग स्वीकार कर लिया परन्तु उसके तुरन्त बाद उसने अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा ठोकना शुरू कर दिया। कुछ राजनैतिक पंडितों का यह मानना रहा है कि चीन की सबसे दुखती रग तिब्बत पर उसका दावा स्वीकार करके भारत ने अक्साई चीन को पाने का स्वर्ण अवसर गंवा दिया। भारत यदि 2003 में थोड़ी कूटनीतिक शतरंज बिछाता तो ‘अक्साई चीन’ भी भारत को मिल सकता था और पाक अधिकृत कश्मीर की कारोकोरम घाटी के पांच हजार वर्ग कि.मी. भूमि को भी इसके बदले में ले सकता था। यह जमीन पाकिस्तान ने चीन को तोहफे में 1963 में दे दी थी। मगर तब अमेरिका पाकिस्तान को अपनी गोदी में लिये बैठा था। अतः आज के दौर में भारत को सबसे पहले हितों को साधना होगा। 2003 तक भारत की सीमाएं तिब्बत से लगी हुई मानता था। मगर इसके बाद परिस्थिति बदल गई और भारत की सीमाएं तिब्बत की जगह चीन से सटी हुई मानी जाने लगीं। मगर मानवता का भारत भी सिरमौर माना जाता है अतः भारत में रह रहे तिब्बती शरणार्थियों की समस्या को वह भलीभांति समझता है। भारत को आगे की देखनी होगी क्योंकि राष्ट्रपति बाइडेन के संसद में बने कानूनों पर हस्ताक्षर करते ही तिब्बत की समस्या अन्तर्राष्ट्रीय समस्या का रूप ले लेगी।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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