India's historic elections: भारत के ऐतिहासिक चुनाव
स्वतन्त्र भारत के इतिहास में 1 जून को सम्पन्न हुए लोकसभा चुनावों का अपना विशिष्ट स्थान होगा। नम्बर एक ये चुनाव असाधारण चुनाव समझे गये, दूसरे इन चुनावों के केन्द्र में आम लोगों के मुद्दे रहे, तीसरे ये चुनाव समूचे भारत की आर्थिक- सामाजिक दिशा के भविष्य को तय करने वाले माने गये। इनमें सबसे महत्वपूर्ण लोगों के मुद्दे रहे क्योंकि अन्ततः ये मुद्दे ही किसी देश की दशा और दिशा तय करते हैं। इसी वजह से यह भी कहा जा रहा है कि इन चुनावों को लोगों ने अपने हाथ में ले लिया। 1952 के प्रथम चुनावों के बाद ये चुनाव सबसे अधिक लम्बी अवधि 42 दिनों तक सात चरणों में चले। लम्बे चुनावों का लाभ किस पार्टी या पक्ष को हुआ इसका पता 4 जून को मतगणना वाले दिन चलेगा परन्तु इतना निश्चित है कि इन चुनावों में भारत के मतदाता ने जम कर हिस्सा लिया बेशक मतदान प्रतिशत पिछले चुनावों से कम रहा है परन्तु चुनावी मुद्दों में आम आदमी की संलिप्तता बताती है कि उसने अपने विवेक का इस्तेमाल करके राजनैतिक दलों को सबक सिखाने का काम किया है।
लम्बे चले चुनावों में जिस तरह चुनावी मुद्दों को बदलने का निरन्तर प्रयास किया गया उससे यह साबित हो गया है कि राजनैतिक दलों का बौद्धिक विकास थम सा गया है और वे अपनी ही दुनिया में मस्त रहना चाहते हैं। लोकतन्त्र में जब जमीनी मुद्दे अंगड़ाई लेते हैं तो राजनीति का चेहरा विद्रूप होने लगता है और राजनीतिज्ञ स्वयं को बेचारा दिखाने की कोशिश में लग जाते हैं। मगर यह लोकतन्त्र ही है जो राजनीतिज्ञों को ‘जन नेता’ बनाता है। हमारे देश में एक से बढ़कर एक जन नेता हुए हैं जिनकी बहुत लम्बी फेहरिस्त है। इनकी पहचान यही रही है कि इन्होंने जनता की भावनाओं को अपनी आवाज दी और उनके सपनों को पंख लगाये।
इन चुनावों में जाति जनगणना जिस प्रकार एक मुद्दा बनी उसकी पहली आवाज जन नेता व समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने साठ के दशक में इस प्रकार दी थी कि अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों के अलावा पिछड़े समझे जाने वाले समाज के सपनों को पंख लग गये थे। जनसंघ के नेता दीन दयाल उपाध्याय डा. लोहिया के विचारों से कई स्तर पर सहमति रखते थे। मसलन वह डा. लोहिया के इस विचार से पचास के दशक में ही सहमत थे कि भारत व पाकिस्तान का एक महासंघ बनाया जाये जिससे विभाजन की त्रासदी से उपजी पीड़ा को समाप्त किया जा सके और भारतीय उपमहाद्वीप में स्थायी शान्ति स्थापित हो सके। इसके पीछे सोच यही था कि पाकिस्तान के अलग हो जाने के बाद इस सच्चाई को स्वीकारते हुए यथार्थ के धरातल पर दोनों देशों की एक समान समस्याओं का स्थायी हल ढूंढा जाये परन्तु इस बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि पाकिस्तान ने केवल भारत विरोध को अपने वजूद की शर्त बना कर अपनी समस्याओं का हल एटम बम से खोजने का तरीका ईजाद किया। मगर भारत के प्रभुद्ध लोगों ने एटमी ताकत के शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए प्रयोग की राह पर आगे बढ़ना पसन्द किया जिसकी वजह से अमेरिका जैसी ताकत को भी इसके साथ परमाणु समझौता अपने संविधान में संशोधन करके करना पड़ा। भारत की यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है जो उसने 2008 में हासिल की थी।
इसी प्रकार भारत की आन्तरिक राजनीति के स्तर पर इसका लोकतन्त्र पूरी दुनिया में इसकी महान उदार ताकत (साफ्ट पावर) बना रहा और पूरे विश्व के देशों में इसका विशिष्ट सम्मान रहा। अतः इन चुनावों में जब लोकतन्त्र ही एक मुद्दा बना तो उसका सम्बन्ध स्वाभाविक रूप से आम जनता से जुड़ता चला गया और इसका सन्दर्भ संविधान बनता चला गया। निश्चित रूप से यह काम चुनावी मैदान में जिस तरीके से हुआ उसने नई पीढि़यों को यह सोचने के लिए मजबूर किया कि आखिरकार उनके देश की असली ताकत क्या है? देश वही मजबूत बनता है जिसके लोग विवेकशील और वैज्ञानिक सोच के होते हैं। स्वतन्त्रता के संघर्ष के दौरान महात्मा गांधी की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि उन्होंने भारत के आम गरीब-मजदूर आदमी के मन में आजादी पाने का जज्बा पैदा किया था। यह आजादी केवल अंग्रेजों का राज समाप्त करने के लिए ही नहीं थी कि बल्कि आम हिन्दुस्तानी में आत्मसम्मान का भाव पैदा करने के लिए भी थी। यही वजह थी कि गांधी ने 1934 में ही कह दिया था कि आजादी मिलने पर भारत एक संसदीय लोकतन्त्र बनेगा और इसकी सरकार का गठन वयस्क मताधिकार के आधार पर किया जायेगा और उस सरकार का कोई मजहब नहीं होगा।
सभी हिन्दू-मुसलमानों के बराबर के हक होंगे। क्या उस समय की गई यह घोषणा कोई छोटी बात थी? क्योंकि गांधी जानते थे कि मुस्लिम लीग जैसी संस्था को अंग्रेज अपने कन्धे पर बैठाकर भारत को तोड़ने की साजिश पर्दे के पीछे रचने में लगे हुए हैं। 1932 में ही उन्होंने पुणे में डा. भीमराव अम्बेडकर के साथ समझौता करके यह निश्चित कर दिया था कि आजाद भारत में अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों को राजनैतिक आरक्षण प्राप्त होगा। स्वतन्त्र भारत की रूपरेखा गांधी स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान ही तय कर रहे थे और बता रहे थे कि यह सारा कार्य पुख्ता और स्वतन्त्र लोकतन्त्र के भीतर ही होगा। वर्तमान चुनाव गांधी के इस विचार को ही पुख्ता करने वाले माने जाएंगे क्योंकि चुनाव परिणाम जो भी आएंगे। वे केवल लोकतन्त्र की विजय के ही प्रमाण होंगे।