संसद को कटुता भरे आचरण में लौटने में ज्यादा देर नहीं लगी
नवगठित 18वीं संसद को कटुता, संघर्ष और सरासर बुरे आचरण की 'सामान्य' स्थिति में वापस आने में देर नहीं लगी। सत्तारूढ़ दल द्वारा बिना किसी परेशानी के राजस्थान के कोटा से सांसद ओम बिरला को लगातार दूसरे कार्यकाल के लिए अध्यक्ष के रूप में चुनने के बाद लोकसभा शोर-शराबे और अव्यवस्थित दृश्यों की अपनी पुरानी स्थिति में लौट आई।
इस बार संख्या में अपेक्षाकृत बड़े विपक्षी दल ने आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ मनाने के सवाल पर खुद को विभाजित पाया। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने 26 जून, 1975 के संदर्भ में स्वत: संज्ञान लेते हुए एक बयान दिया, यह वही दिन था जिस दिन देश विपक्षी नेताओं की राष्ट्रव्यापी गिरफ्तारियों और मीडिया पर व्यापक सेंसरशिप की खबरों से जगा था। उन्होंने देश के लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे काले कृत्य की कड़ी निंदा की। उन्होंने कहा, यह संविधान पर खुला हमला था। लोगों की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों को रातों-रात ख़त्म कर दिया गया था और एक निरंकुश शासन स्थापित कर दिया गया था।
ओम बिरला ने सदन को हजारों भारतीयों के बलिदान की याद दिलाई, जिन्होंने आपातकाल का बहादुरी से विरोध किया और 19 महीने तक जेल में रहे, जिसके दौरान बड़ी संख्या में लोगों को अपमान और यातना का सामना करना पड़ा। जब बिरला आपातकाल के निंदात्मक संदर्भ को पढ़ रहे थे तब बड़ी संख्या में विपक्षी सदस्य सहमति में सिर हिला रहे थे, जबकि कांग्रेस के सदस्यों ने पचास साल पहले की घटनाओं के संदर्भ में कुछ विरोध के साथ खुद को अलग-थलग पाया। इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के जिक्र पर कांग्रेस की बेचैनी समझ में आ सकती थी। आखिर वो राहुल गांधी की दादी थीं। बिरला के आपातकाल के लंबे संदर्भ के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने युवा पीढ़ी को तत्कालीन विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए वीरतापूर्ण संघर्ष की याद दिलाई। आख़िरकार इंदिरा गांधी को इस ग़लत धारणा के साथ संसदीय चुनाव कराने के लिए मजबूर होना पड़ा कि देश में अपेक्षाकृत शांति आपातकाल शासन से खुशी का सुझाव देती है। वह हार गईं और लोकतंत्र बहाल हो गया।
राहुल ने खुद को तब और अधिक उजागर कर दिया जब उन्होंने आपातकाल के मुद्दे पर लोकसभा अध्यक्ष से मिलकर उनके सामने इमरजेंसी के प्रस्ताव पर अपनी नाखुशी जाहिर की। उन्होंने कहा था कि ऐसे राजनीतिक प्रस्तावों से हमें बचना चाहिए लेकिन यह कैसे एक राजनीतिक कृत्य था जबकि पूरा देश एक व्यक्ति के रूप में इंदिरा गांधी द्वारा संविधान पर हमले की निंदा करता है। ऐसे में यह किसी भी सच्चे लोकतंत्रवादी की समझ से परे है। इस बीच नए 'इंडिया' गठबंधन की विपक्षी एकता का दावा भी पूरी तरह से उस वक्त उजगार हो गया जब विपक्ष स्पीकर के चुनाव पर मत विभाजन कराने में विफल रहा। साथ ही कांग्रेस ने अपने सदस्य के. सुरेश के नामांकन दाखिल करने के बाद सांसद ओम बिरला को बिना किसी मतविभाजन के लगातार दूसरे कार्यकाल के लिए लोकसभा अध्यक्ष बनने की अनुमति दी। क्योंकि विपक्ष को डर था कि चुनाव से विपक्षी एकता कि खटास सबके सामने आ जाएगी। इससे पहले ममता बनर्जी ने कांग्रेस पार्टी द्वारा उनसे सलाह लिए बिना के. सुरेश को मैदान में उतारने के एक तरफा फैसले का विरोध किया था। वह इस मामले को हल्के में लेने को तैयार नहीं थी और उन्होंने जोर देकर कहा कि विपक्ष की ओर से कांग्रेस कोई भी निर्णय लेने से पहले उनसे सलाह जरूर लें। इसके आगे विपक्ष में चल रहे और भी मतभेद जल्द ही जनता के सामने आ जाएंगे इसका मुख्य कारण यह है कि राहुल गांधी और ममता बनर्जी दोनों की ही प्रधानमंत्री पद के महत्वाकांक्षी हैं।
मल्लिकार्जुन खड़गे द्वारा राज्यसभा के स्थगन की मांग करने से लगता है कि उन्होंने लंबे समय तक एक विधायक व संसद सदस्य के रूप में अपने अनुभव से जनता को धोखा दिया है। कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे ने गांधी परिवार के प्रति वफादारी को दिखाते हुए केवल नीट पर अपना पक्ष रखने के लिए सभापति की अवहेलना की और राज्यसभा सदन के वेल में आकर हंगामा किया। जब भाजपा सांसद सुधांशु त्रिवेदी राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बोल रहे थे तो उस वक्त उद्धव ठाकरे गुट की सांसद प्रियंका चतुर्वेदी की ओर से खड़गे का हस्तक्षेप भी मुद्दा विहिन था, क्योंकि प्रियंका चतुर्वेदी के बयान भी औचित्यहीन थे जिस कारण सभापति ने उन्हें जोर देकर बैठने को कहा था। हमें आने वाले हफ्तों में आगामी बजट सत्र के दौरान इस तरह का अप्रिय माहौल और भी देखने को मिल सकता है।