उपाध्यक्ष पद भरा जाना जरुरी
संसद लोकतन्त्र में सर्वोपरि होती है क्योंकि इसमें भारतीय गणतन्त्र की जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि बैठते हैं। ये प्रतिनिधि विभिन्न राजनैतिक दलों के होते हैं मगर सभी का उद्देश्य व लक्ष्य संविधान के अनुसार देश का शासन चलाते हुए इसके विकास व प्रगति का होता है। यह विकास लोगों के विकास पर निर्भर करता है क्योंकि लोगों से मिल कर ही देश बनता है। संसद को चलाने के अपने नियम व प्रथाएं होती हैं। ये नियम व प्रथाएं इसीलिए होती हैं जिससे संसद के दोनों सदनों में सत्ता पक्ष व विपक्ष के बीच संवाद व वार्तालाप की स्थिति सदैव बनी रहे और इन्हीं के मार्फत देश की समस्याओं का हल हो। हमारे पुरखे हमारे हाथ में जो संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली सौंप कर गये हैं उसमें लोकसभा व राज्यसभा की कार्यवाही को चलाने के लिए इन सदनों के अध्यक्षों की प्रतिस्थापना इस प्रकार की गई जिससे सदनों के भीतर पहुंचे सभी सदस्यों के अधिकार संरक्षित व सुरक्षित रह सकें क्योंकि ये प्रतिनिधि ही जनता की आवाज सदन में रखते हैं।
जहां तक लोकसभा का प्रश्न है तो यह जनता द्वारा चुना गया प्रत्यक्ष सदन होता है और इसी सदन में बहुमत के आधार पर सरकार का गठन होता है। यह अधिकार राज्यसभा को नहीं होता। इस सदन में अध्यक्ष के साथ एक उपाध्यक्ष भी होते हैं। दोनों ही पद संवैधानिक होते हैं। संविधान के अनुच्छेद 93 में यह स्पष्ट कहा गया है कि लोकसभा के एक अध्यक्ष व एक उपाध्यक्ष होंगे। अतः लोकसभा में इन दोनों पदों पर बैठे व्यक्तियों का होना जरूरी होता है। मगर हमने देखा कि पिछली 17वीं लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद पूरे पांच साल खाली पड़ा रहा और सदन का काम उनके बिना ही चलाया जाता रहा। लोकतन्त्र में कोई भी पद ‘निरापद’ नहीं होता। विशेष परिस्थितियों में हर बड़े से बड़े पद पर बैठे व्यक्ति की सत्ता को संसद में चुनौती दी जा सकती है। वैसे तो श्रेष्ठ परंपरानुसार लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव सर्वसम्मति से होना चाहिए परन्तु सदन में विभिन्न राजनैतिक दलों के बीच मतैक्य स्थापित न होने की वजह से इस पद पर चुनाव की भी नौबत आ जाती है जैसा कि इस बार हुआ और श्री ओम बिरला को ध्वनिमत से अध्यक्ष चुना गया।
परंपरानुसार लोकसभा अध्यक्ष पद सत्ता पक्ष अपने पास रखता है औऱ उपाध्यक्ष पद विपक्ष को दे देता है। इसकी वजह यही है कि लोकतन्त्र आपसी सहयोग व सहकार से ही चलता है। अतः उपाध्यक्ष पद पर विपक्ष के प्रत्याशी को बैठा कर संसद के सुचारू व निर्बाध तरीके से चलाने की गारंटी दी जाती है। संसदीय प्रणाली में बेशक बहुमत का शासन होता है मगर विपक्ष की भी इसमें भागीदारी हर कदम पर अपेक्षित रहती है। अक्सर विपक्ष के सुझावों से सत्ता पक्ष लाभान्वित होता है। इसकी वजह यह मानी जाती है कि विपक्ष में रह जाने पर इस पक्ष के सांसद आम जनता के निकट सम्पर्क में रहते हैं औऱ वे सरकारी नीतियों की खामियों के प्रति सरकार को सचेत करते रहते हैं। इससे सरकार ज्यादा से ज्यादा सतर्क होकर चलती है। यही कारण है कि लोकतन्त्र में सशक्त विपक्ष की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जाता है। लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद खाली रखना किसी भी तरह से संसदीय परंपराओं के प्रतिकूल माना जाता है।
अनुच्छेद-93 यह तो कहता है कि लोकसभा के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष होंगे मगर यह नहीं बताता कि उपाध्यक्ष का पद कितने दिनों बाद भरा जायेगा। इसमें यह तो कहा गया है कि अध्यक्ष स्वयं उपाध्यक्ष पद के लिए समुचित समय में अधिसूचना जारी करेंगे मगर यह नहीं कहा गया कि कितनी अवधि पर यह अधिसूचना जारी हो जायेगी। इसी खामी का लाभ पिछली लोकसभा में उठाया गया और पिछले अध्यक्ष भी रहे श्री ओम बिरला ने अधिसूचना जारी ही नहीं की परन्तु यह राजनैतिकता के विरुद्ध था। अतः इस बार खबरें आ रही हैं कि सत्ता पक्ष उपाध्यक्ष का पद भी भरेगा।
इस पद के लिए विपक्ष तैयारी कर रहा है और उसने अयोध्या से समाजवादी पार्टी के सांसद श्री अवधेश प्रसाद को इस पद के लिए लगभग तैयार कर लिया है। उपाध्यक्ष पद के अधिकार भी वे ही होते हैं जो अध्यक्ष पद के होते हैं। वैसे तो एक बार को छोड़ कर अभी तक लोकसभा में कभी भी अध्यक्ष के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव नहीं आया है। मगर इसकी संभावना किसी भी लोकसभा में बनी रहती है। विपक्ष के सांसद जब अध्यक्ष को पक्षपात करते देखते हैं तो वे अविश्वास प्रस्ताव ला सकते हैं जैसा कि पहली लोकसभा के भीतर इसके अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। हालांकि वह प्रस्ताव भारी मतों से गिर गया था। ऐसी सूरत में अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आते ही वह अपनी कुर्सी से उठ कर सदन में आकर सदस्यों के साथ बैठ जाते हैं और फिर प्रस्ताव पर होने वाले मतदान में हिस्सा भी नहीं लेते। उनकी अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष ही सदन की कार्यवाही का संचालन करते हैं। यह संवैधानिक व्यवस्था होती है। इस प्रकार आकस्मिकता में सदन को चलाने के लिए उपाध्यक्ष की अनिवार्यता होती है। वर्तमान हालात में सत्ता पक्ष यह पद विपक्ष को देना चाहेगा अथवा नहीं यह देखने वाली बात होगी। मगर संवैधानिक जरूरत के अनुसार इस पद को भरा अवश्य जाना चाहिए। वैसे सर्वसम्मति न होने पर इस पद पर भी चुनाव कराने का रास्ता खुला होता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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