डूसू चुनाव पर न्यायपालिका सख्त
दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) चुनावों के लिए शुक्रवार को मतदान सम्पन्न हो गया। डूसू चुनावों पर सभी की नजरें लगी रहती हैं क्योंकि इन्हें राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश की प्राथमिक पाठशाला माना जाता है। इन्हीं चुनावों से कई ऐसे धुरंधर नेता निकले हैं जिन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में अहम जिम्मेदारियां सम्भाली हैं। डूसू से लेकर नगर निगम, विधानसभा और लोकसभा तक का सफर तय किया है। दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्र संघ चुनावों की शुरूआत 1954 में हुई थी। तब से लेकर अब तक इन चुनावों से निकले नेताओं ने काफी लोकप्रियता हासिल की। इनमें दिवंगत अरुण जेतली, अजय माकन, विजय गोयल, सुभाष चोपड़ा, अलका लाम्बा, रागिनी नायक, नुपूर शर्मा जैसे नाम प्रमुख हैं। जैसे-जैसे राजनीति विद्रुप होती गई उसका असर छात्र संघ चुनावों पर भी पड़ा। दिल्ली ही नहीं किसी भी विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव अब बहुत ज्यादा महंगे हो गए हैं। खर्च की सीमा कुछ भी हो फिर भी इन चुनावों पर भी करोड़ों का खर्च होता है। डूसू चुनावों में भी जिस तरह प्रचार के लिए उम्मीदवारों की गाड़ियों का काफिला सड़कों पर दौड़ा, पोस्टर, बैनर, होर्डिंग और हैंडबिल उड़ते नजर आए हैं, उससे साफ है कि इन चुनावों में भी धन-बल का इस्तेमाल जमकर हुआ है।
ऐसे में चुनाव प्रचार के लिए काफी पैट्रोल खर्च हुआ है। प्रचार के लिए महंगी और लग्जरी गाडि़यों का इस्तेमाल हुआ। उम्मीदवारों के लिए पिज्जा, बर्गर, चाय तक की व्यवस्था की गई और हो सकता है कि छात्रों को लुभाने के लिए भीतर खाने उपहार भी बांटे गए हों। अगर राजनीति की प्राथमिक पाठशाला ही इतनी महंगी हो गई हो तो फिर सांसद और विधायकों के चुनाव में कितना धन खर्च किया जाता होगा, इसका अनुमान आप लगा सकते हैं। डूसू चुनावों में करोड़ों रुपए के खर्च को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट ने सख्त रुख अपनाया और चुनावों की मतगणना पर तब तक रोक लगा दी जब तक कि पोस्टर, होर्डिंग समेत सम्पत्ति को विरुपित करने वाली सारी सामग्री को पूरी तरह से हटा नहीं दिया जाता। हाईकोर्ट ने पिछली सुनवाई के दौरान सख्त टिप्पणी की थी कि यह मनी लॉड्रिंग नहीं लोकतंत्र का उत्सव है।
कोर्ट ने वोटों की गिनती पर रोक लगाने के अलावा डीयू अधिकारियों को भी फटकार लगाई। अधिकारियों को फटकार लगाते हुए कोर्ट ने कहा, 'नियमों के उल्लंघन से निपटने के लिए एक प्रणाली स्थापित करने में डीयू विफल रही। डीयू के अधिकारियों ने मानकों को गिरने क्यों दिया और इसे रोकने के लिए कदम क्यों नहीं उठाए?' कोर्ट ने आगे कहा, अगर विश्वविद्यालय अपने छात्रों को अनुशासित नहीं करेगा तो कौन करेगा। आपके पास सारी शक्तियां हैं। आप छात्रों को निष्कासित या फिर अयोग्य घोषित कर सकते हैं लेकिन आपसे 21 उम्मीदवार नहीं संभाले गए। आप लाखों छात्रों को कैसे संभालेंगे।
कोर्ट ने यह भी कहा कि पोस्टर, होर्डिंग हटाने में दिल्ली यूनिवर्सिटी, दिल्ली नगर निगम और डीएमआरसी द्वारा जितने पैसे खर्च किए जाएंगे उनका भुगतान सभी उम्मीदवारों से वसूला जाएगा। लिंगदोह कमेटी ने इन चुनावों में हर उम्मीदवार के चुनाव की सीमा 5000 रुपए तय कर रखी है। दिल्ली विश्वविद्यालय के 52 कॉलेज हैं। आज के महंगाई के दौर में अगर 52 कॉलेजों में प्रचार करना हो तो क्या 5000 के निर्धारित खर्च सीमा में ऐसा किया जा सकता है। यह बड़े स्तर का चुनाव है। सवाल यह है कि हाईकोर्ट ने जो सवाल खड़े किए उन्हें भी किसी तरह से अनुचित नहीं कहा जा सकता लेकिन जितनी चुनाव राशि तय की हुई है वह भी आज के समय में व्यावहारिक नहीं है। 5000 रुपए की राशि से एक कॉलेज का चुनाव नहीं लड़ा जा सकता, तो फिर 52 कॉलेजों का प्रचार कैसे मैनेज हो सकता है। हम विश्व में सबसे बड़े प्रजातंत्र के नागरिक होने पर गर्व करते हैं। देश का खर्च बचाने के लिए एक राष्ट्र-एक चुनाव लागू करने की बात भी की जा रही है। राजनीतिक दल चुनावों में जितना खर्च करते हैं उसे देखकर यह स्पष्ट है कि चुनावों में काले धन का इस्तेमाल होता है।
लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए हर उम्मीदवार करोड़ों का खर्च करता है। इससे साफ है कि निर्वाचित होने पर उसका पहला मकसद वैध-अवैध गतिविधियों से अपना खर्च पूरा करना है। इसका अर्थ यही है कि चुनाव की व्यवस्था ही धन शक्ति और भ्रष्टतंत्र पर आधारित है। अगर विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनावों में बेतहाशा धन का इस्तेमाल किया जाता है तो इसका अर्थ यही है कि सिस्टम के जरिये चुनावों को भ्रष्ट बनाने की प्रक्रिया जारी है।
जिस लोकतंत्र की नींव ही भ्रष्ट और अनैतिक संसाधनों पर खड़ी हो उससे भविष्य में ईमानदारी की उम्मीद क्या की जा सकती है। मतगणना में कौन जीतेगा, कौन हारेगा यह सवाल अब गौण है लेकिन जो सवाल हाईकोर्ट ने खड़े किए हैं वह भविष्य के चुनावों के लिए एक उदाहरण बनेंगे। उम्मीद है कि डूसू चुनावों में सुधारों की अच्छी शुरूआत हो जाए।