कारगिल: अद्वितीय बहादुरी और अक्षम्य असफलता
पिछले सप्ताह हम कारगिल विजय दिवस मनाकर हटे हैं। यह हमारे 527 सैनिकों की याद में मनाया जाता है जिन्होंने 25 साल पहले अद्वितीय बहादुरी दिखाकर पाकिस्तानियों को ऊंची बर्फीली पहाड़ियों से खदेड़ दिया था। यह दिवस उसी शौर्य गाथा को श्रद्धांजलि है। 84 दिन यह युद्ध 15000 फुट तक की उंचाई पर और 200 किलोमीटर लम्बाई पर लड़ा गया लेकिन यह दिवस हमारी व्यवस्था की घोर असफलता की भी कहानी है। हम सोए पाए गए और इस भारी लापरवाही की कीमत हमारे जवानाें ने अपने खून से अदा की। फरवरी 1999 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस भरकर, देवानन्द समेत यात्रा पर लाहौर गए थे, वहां एक भाषण में अटल जी ने कहा, “यह लोहा या इस्पात की बस नहीं है,यह हमारे दोनों मुल्कों के अवाम के जज्बसतों की बात है”। पर उस सज्जन को मालूम नहीं था कि उनकी बस को पंक्चर करने का इंतज़ाम तो तत्कालीन पाक सेनाध्यक्ष परवेज़ मुशर्रफ पहले ही कर चुका था।
पाकिस्तान के जरनैल दोस्ती के लिए तैयार नहीं थे इसलिए कारगिल में घुसपैठ कर सारे प्रयास को ध्वस्त कर दिया। संकेत तब ही मिल गया था जब परवेज़ मुशर्रफ ने लाहौर में हमारे प्रधानमंत्री को सेल्यूट करने से इंकार कर दिया था। हमें तब ही चौकस हो जाना चाहिए था कि नवाज़ शरीफ़ के दोस्ती के प्रयास को सेना का समर्थन प्राप्त नहीं है और सेना के आशीर्वाद के बिना यह प्रयास सफल नहीं होगा, पर जैसे चीन के मामले में नेहरू गलती खा गए, वैसे ही पाकिस्तान के बारे वाजपेयी धोखे में रहे। जब मई में पाकिस्तान की शरारत का पता चला तो वाजपेयी ने नवाज शरीफ से पूछा, “ मियां साहिब, यह क्या हुआ”? नवाज शरीफ का जवाब था कि मुशर्रफ ने उन्हें अंधेरे में रखा। इस पर विवाद है। जानकारों के मुताबिक़ नवाज शरीफ को यह तो मालूम था कि ऐसी कोई योजना रावलपिंडी के सैनिक मुख्यालय में मौजूद है, पर शायद यह नहीं मालूम था कि परवेज मुशर्रफ ने इसे क्रियान्वित भी कर दिया है। परवेज मुशर्रफ ने यह योजना बेनजीर भुट्टो को भी बताई थी जिसने इसे तत्काल रद्द कर दिया था। नवाज शरीफ को भी इसकी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी, क्योंकि अक्तूबर, 1999 में परवेज मुशर्रफ ने उनका तख्ता पलट दिया और खुद राष्ट्रपति बन बैठे लेकिन वाजपेयी ने शान्ति का प्रयास नहीं छोड़ा और जुलाई, 2001 में परवेज मुशर्रफ को आगरा शिखर वार्ता के लिए बुला लिया। यह सम्मेलन सफल नहीं रहा। मुशर्रफ ने इसके लिए अप्रत्यक्ष तौर पर लालकृष्ण अडवानी को जिम्मेदार ठहराया। हमारे भी कई लोगों ने बाद में बताया कि अडवानी को समझौते की भाषा पसंद नहीं आई लेकिन यह दिलचस्प है जिस परवेज मुशर्रफ ने सेना अध्यक्ष रहते वाजपेयी को सेल्यूट करने से इंकार कर दिया था, ने राष्ट्रपति बनकर आगरा में भारत के प्रधानमंत्री को सेल्यूट किया था, पर यह अलग बात है। असली बात है कि कारगिल हमारी बड़ी खुफिया असफलता थी और यह पहली ऐसी चूक नहीं थी। 1962 में चीन की घुसपैठ से लेकर, 1999 में कारगिल, 1999 में इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण, 2008 में मुम्बई हमला, 2019 में पुलवामा हमला, 2020 में गलवान में चीनियों का हमला, सब हमारी खुफिया चूक के प्रमाण हैं। आजकल हम जम्मू क्षेत्र में बार-बार आतंकियों के हमले झेल रहे हैं और हमारे सैनिक शहीद हो रहे हैं। हर जिस भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की तरफ़ हाथ बढ़ाया उसके हाथ झुलस गए हैं।
कारगिल का युद्ध हमारी सेना और खुफिया एजैंसियों के लिए किसी शॉक से कम नहीं था। उस वक्त तो आंकलन यह था कि पाकिस्तान युद्ध करने की स्थिति में नहीं है। कारगिल में घुसपैठ न केवल देर से पता चली बल्कि शुरू में सोच यह थी कि यह 30-40 आतंकवादी हैं, जो वादी में आतंक मचाकर या तो मारे जाएंगे या लौट जाएंगे। देर से पता चला कि वह रेगुलर सैनिक हैं जिन्होंने चुपचाप उन पहाड़ियों पर कब्जा कर लिया है, जहां से लेह- श्रीनगर हाईवे पर नजर रखी जा सकती है। क्या यह केवल खुफिया असफलता थी या उपलब्ध जानकारी को सही समझा नहीं गया और प्राप्त जानकारी पर अमल नहीं किया गया? इस पर दो राय है और कुछ बहस भी हो रही है।
जनरल वी.पी. मलिक जो उस समय सेनाध्यक्ष थे, का एक इंटरव्यू में स्पष्ट कहना है, “सेना हैरान रह गई, क्योंकि हमारे पास कोई खुफिया रिपोर्ट नहीं थी, न इंटेलिजेंस ब्यूरो से न ही ‘राॅ’ से। वास्तव में उन्होंने पाकिस्तान द्वारा हमले की सम्भावना को रद्द कर दिया था”। यही बात एक और पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल एन.सी. विज ने भी अपनी किताब, ‘अलोन इन द रिंग’ में लिखी है कि, “खुफिया असफसता के कारण भारत असावधान पकड़ा गया। न केवल घुसपैठ देर से पकड़ी गई, हमारी खुफिया एजैंसियां तो यह भी आंकलन नहीं लगा सकीं की वह मिलीटेंट हैं कि पाक सैनिक हैं”। दोनों सेनाध्यक्ष ने खुफिया एजैंसियों पर दोष लगाया है पर सेना के अपने पास भी तो सूचना एकत्रित करने का बड़ा प्रबंध है? सीमा पर सेना की अपनी चौकियां हैं और लगातार गश्त होती है। वह भी नहीं बता सके। जनरल मलिक ने स्वीकार किया, “लाइन ऑफ कंट्रोल पर हमारी चौकसी भी कमजोर रही”। उन्होंने इसके लिए चौकियों के बीच 9 किलोमीटर से लेकर 40 कलोमीटर के फासले को दोषी ठहराया है लेकिन इस धारणा को भी चुनौती दी गई है कि सेना के पास घुसपैठ की जानकारी नहीं थी। मेजर मनीष भटनागर जो कारगिल युद्ध के दौरान कंपनी कमांडर थे और जिन्हें बाद में बर्खास्त कर दिया गया, ने कहा है कि मई 1999 पहली बार पाकिस्तानी घुसपैठ के बारे अधिकृत जानकारी मिली थी पर उससे बहुत पहले उन्होंने घुसपैठ की जानकारी दे दी थी, पर उनकी सूचना को नजरंदाज कर दिया गया। कमोडोर सी. उदय भास्कर ने लिखा है कि “जो उस वकत कारगिल में सेवारत थे ने भटनागर के दावे की पुष्टि की है कि ब्रिगेड स्तर पर सेना को घुसपैठ के बारे सूचना मिली थी, पर जब भारतीय चोटियों पर उनके कब्जे की भयावहता, घुसपैठियों की पहचान और जो फायर पावर का उन्होंने इस्तेमाल किया के बारे जब जानकारी मिली तो बहुत हैरानी हुई”। श्यामल दत्ता जो तब इंटेलिजेंस ब्यूरो के डायरेक्टर थे, ने प्रधानमंत्री वाजपेयी को अपने हस्ताक्षर से लिखकर भेजा था कि कारगिल सैक्टर पर पाकिस्तान का जमावड़ा हो रहा है, पर सेना तक यह जानकारी नहीं पहुंची, अर्थात पूरा घपला हुआ था।
कहा जाएगा कि 25 साल के बाद इस मामले को कुरेदने की ज़रूरत नहीं है। पर यह कुरेदने की बात नहीं है। हमारे सिविल और सैनिक नेतृत्व की असफलता के कारण हमें 527 जाने कुर्बान करनी पड़ीं। सही सबक सीखने की जरूरत है। चार सदस्यीय उच्च स्तरीय कमेटी जिसका नेतृत्व सामरिक विशेषज्ञ के. सुब्रह्मण्यम ने किया था, का भी निष्कर्ष था कि पाकिस्तान का हमला ‘टोटल सरप्राइज’ अर्थात् बिल्कुल हैरान करने वाला था। ब्रिगेडियर देविन्दर सिंह जो 70 इनफैनट्री ब्रिगेड के कमांडर थे, ने कहा है कि “25 साल के बाद भी कई सवालों के जवाब नहीं मिले”। हमें दुश्मन की क्षमता का सही आंकलन नहीं था। न केवल हम असावधान थे, हमारे पास गोला-बारूद और सामान की बहुत कमी थी। युद्ध के बीच हमें रूस और इजराइल से महंगा सामान ख़रीदना पड़ा था। अब हम और ऐसी लापरवाही बर्दाश्त नहीं कर सकते क्योंकि हमें दोहरी चुनौती मिल रही है। कारगिल के समय चीन ख़ामोश रहा था क्योंकि न उसकी उतनी ताकत थी और न ही सीमा पार उस के पास इंस्फ्राटक्चर था। तब से चीन ने बहुत तरक्की कर ली है, वह तो अमेरिका को चुनौती दे रहा है और सीमा के दूसरी तरफ उसने अपना पूरा नेटवर्क बना लिया है।
जनरल वी.पी. मलिक दो मोर्चों, चीन और पाकिस्तान,पर एक साथ युद्ध की संभावना को रद्द नहीं कर रहे। चीन के विदेश मंत्री भारत और चीन के सहयोग की बात तो करते हैं, पर गलवान हमें चीन के असली इरादे के बारे बता गया है। यह भी समाचार है कि चीन के सैनिकों को पाक अधिकृत कश्मीर में देखा गया है, अगर उत्तरी सीमा पर चीन और पाकिस्तान की मिलीभगत होती है तो भारत के लिए गम्भीर चुनौती हो सकती है। लै. जनरल डी.एस. हुड्डा का कहना है कि हमें उस चुनौती के लिए सावधान रहना चाहिए। चीन कितना दखल देता है। यह बहुत कुछ उनकी वैश्विक महत्वकांक्षा और अमेरिका के साथ सम्बंधों पर निर्भर करेगा। इस बीच जम्मू का क्षेत्र गर्म हो गया है। फटेहाल पाकिस्तान जानता है कि वह भारत के साथ युद्ध नहीं कर सकता इसलिए जम्मू- कश्मीर में आतंकवाद का सहारा लेता रहेगा, वहां चुनावों की सम्भावना और लोकतंत्र की बहाली में वह व्यवधान डालना चाहता है और चुनाव से पहले भय का वातावरण बना रहा है। कश्मीर में पाकिस्तान के नेटवर्क को खत्म कर दिया गया है इसलिए आतंक का मुंह जम्मू के डोडा, कठुआ, रियासी, राजौरी और पूंछ की तरफ मोड़ दिया गया है। इस क्षेत्र में जंगल और ऊंचे पहाड़ हैं जहां छिपकर हमला करना आसान है इसीलिए हमारा लगातार नुक्सान हो रहा है। इस साल 15 हमले हो चुके हैं।
हमें समझना चाहिए कि यह लम्बा टकराव है। पूर्व राष्ट्रीय रक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन ने अपनी किताब ‘चौयसेज’ में लिखा है कि “यह वह टकराव है जिसका कोई हल नहीं है और यह लम्बा और हठी होगा”। अर्थात यह चलता जाएगा, पर इसका हमारी विकास यात्रा पर असर नहीं पड़ेगा, पर अगर दो मोर्चों पर लड़ना पड़ा तो निश्चित तौर पर बड़ी चुनौती होगी। कारगिल युद्ध में खुफिया असफलता अक्षम्य है। अपनी अद्वितीय बहादुरी और बलिदान से हमारे जवान अफसरों और सैनिकों ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों, राजनीतिक और सैनिक, की असफलता के दुष्परिणामों से देश को बचा लिया। पर ऐसी चूक फिर नहीं होनी चाहिए। विशेष तौर पर जब चीन हमारी सीमा पर आक्रामक है।