100 वर्ष में कुची लिए कृष्ण खन्ना
इससे पहले कि राजनैतिक शोरोगुल में हम भूल ही जाएं, इस शख्स को गौर से देखें। कला की दुनिया में विख्यात भारतीय चित्रकार कृष्ण खन्ना पूरी खामोशी के साथ इसी माह अपने जीवन के 100वें वर्ष में प्रवेश कर गए। उनका जन्म फैसलाबाद (उस समय का लायलपुर) में 5 जुलाई, 1925 को हुआ था और शुरुआती दौर की समूची शिक्षा गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से पाई थी।
वर्ष 2011 में पद्मभूषण से सम्मानित इस महान कलाकार की कूची आज भी चलती है। लाहौर ये वह उच्च शिक्षा के लिए इंपीरियल सर्विस कॉलेज इंग्लैंड में चले गए थे और लौटे तो मुम्बई का ग्रिंडलेज़ बैंक उनकी प्रतीक्षा में था। वर्ष 1961 में उन्होंने इसी बैंक की भारी-भरकम वेतन वाली नौकरी छोड़ दी ताकि पूरा समय ‘पेंटिंग’ को दे सकें। जब नौकरी छोड़ने के बाद वह बैंक की विशाल इमारत से बाहर निकले तो मुख्य द्वार पर कला की दुनिया की ओर से स्वागतार्थ देश के शिखर चित्रकार हुसैन एसएच रज़ा, एफएन डिसूजा आदि भी मौजूद थे। उन्होंने पहले एक साथ एक रेस्तरा में चाय की चुस्कियां लीं और फिर एक पांचतारा होटल में ‘डिनर’ किया। पुरानी यादें ताज़ा की गई। कृष्ण खन्ना की उन पेंटिंग्स पर भी चर्चा हुई जो भारत-विभाजन के समय उन्होंने बनाई थीं। इनमें उनकी ‘रिफ्यूजी ट्रेन लेट-16 घंटे’ को याद किया गया।
कृष्ण खन्ना का परिवार विभाजन के समय पहले लाहौर से शिमला चला आया था। फिर वहां से दिल्ली आ गए। वहां से मुम्बई चले गए। उन दिनों के बाद के वर्षों में इस कलाकार ने रामायण, महाभारत और अन्य मिथक-कथाओं, पौराणिक गाथाओं पर चित्रों की जो शृंखलाएं बनाईं, उन्हें आज भी विलक्षण एवं अद्भुत माना जाता है।
उम्र के 100वें वर्ष में प्रवेश के साथ कूची अब भी चल रही है। पेंटिंग्स अब लाखों में बिक रही है। लियोनार्डो द विंशी की महान मलाकृति ‘दी लास्ट सपर’ और वर्ष 2005 में कृष्ण द्वारा बनाई गई ‘दी लास्ट बाइट’ की चर्चा कला की दुनिया में आज भी भरपूर होती है। कृष्ण खन्ना की एक और बहुचर्चित पेंटिंग ‘शरशैय्या पर लेटे भीष्म के गिर्द एकत्र पांडवों’ पर आधारित है। यह पेंटिंग उस समय के लम्हों पर आधारित है, जब पांडवों को अपना अंतिम संदेश देने व भगवान कृष्ण को प्रणाम करते हुए भीष्म ने अंतिम सांस ली थी। उनका एक और चित्र भी चर्चा का विषय बना था जिसमें उन्होंने गांधी जी की हत्या पर अखबारों में डूबे हुए अवसाद भरे लोगों के चेहरों को कूची से उजागर किया गया था। कई हाथों में जाने के बाद यह काम अब भारतीय कला की आगामी सोथबी नीलामी में 35000-45000 डॉलर (15-20 लाख रुपए) की अनुमानित कीमत पर बिक्री के लिए रखी गई है।
खन्ना कहते हैं, लेकिन मैं नीलामी की कीमतों के माध्यम से कला को रेटिंग देने के चलन से सहमत नहीं हूं। उन्होंने आगे कहा कि यह कलाकार की ब्रांड इक्विटी को इंगित कर सकता है लेकिन ज़रूरी नहीं कि काम की कलात्मक कीमत को दर्शाता हो। खन्ना कलाकृतियां खरीदते थे और उन्होंने बेहतरीन व्यक्तिगत संग्रहों में से एक संग्रहालय बनाया है जिसमें 16 शुरुआती हुसैन शामिल हैं। उन्होंने 1961 में ग्रिंडलेज छोड़ दिया लेकिन उन्होंने कॉर्पोरेट जगत में अपने मित्रों को आधुनिक भारतीय कला के प्रति रुचि विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करना जारी रखा और उनमें से कुछ, जैसे कि लार्सन एंड टूब्रो के होल्क लार्सन, इस शैली के प्रशंसक और संग्रहकर्ता बन गए।
उदाहरण के लिए आईटीसी ने अपने पूर्व अध्यक्ष अजीत हक्सर ने खन्ना की सलाह के कारण अपने होटलों के लिए बहुत सारी कलाकृतियां बनवाना और खरीदना शुरू कर दिया। उन्होंने दिल्ली में आईटीसी मौर्य की छत के लिए मौर्य कैमियो को दर्शाने वाला भित्ति चित्र भी बनाया। 70 और 80 के दशक में, खन्ना ने एक बाज़ार और एक राज्य-प्रायोजित कला प्रतिष्ठान दोनों बनाने का प्रयास किया। इस दौरान उन्होंने जे. स्वामीनाथन के साथ स्थायी मित्रता स्थापित की और वे ललित कला अकादमी के पुनर्गठन और बाद में भोपाल में भारत भवन की स्थापना में भी सक्रिय रहे। कैनवास पर खन्ना की मुख्य चिंता मानवीय स्थिति और उसकी नैतिक दुर्दशा की अनिश्चितताओं से जुड़ी रही है।
बाइबिल के प्रसंगों की सार्वभौमिकता से लेकर स्थानीय घटनाओं जैसे बैंड वालों का जुलूस या रामू के ढाबे में चाय की चुस्की तक खन्ना को विषयवस्तु प्रदान करती है। वे फोटोग्राफी करने वाले पहले भारतीय कलाकार बने और 1969 में प्रोजेक्टेड प्रिंट की प्रदर्शनी आयोजित की।
खन्ना 1940 के दशक के आखिर में ग्रिंडलेज़ बैंक में एक अधिकारी शामिल हुए थे और राज कपूर, चेतन (भाई) और देव आनंद, बलराज साहनी और जोहरा सहगल जैसे प्रगतिशील कलाकारों के समूह से प्रेरित रचनात्मक अराजकता से भरी मुंबई में तैनात थे। खन्ना का कला की इस तूफानी दुनिया में प्रवेश तब हुआ जब चित्रकार एसबी पलसीकर ने उनका एक छोटा सा कैनवास लिया, जिस पर गांधीजी की हत्या के बाद अखबार पढ़ती भीड़ को दर्शाया गया था और इसे 1949 के बॉम्बे आर्ट सोसाइटी शो में रखा गया।
खन्ना याद करते हैं, 'मैं तब कोई पेशेवर चित्रकार नहीं था और मुझे लगा कि मेरा कैनवास अस्वीकार हो सकता है। न केवल काम स्वीकार किया गया बल्कि इसे प्रगतिशील कलाकार समूह (पीएजी) के सदस्यों के कामों के बीच में टांग दिया गया। हालांकि खन्ना द्वारा बताई गई हर कहानी में एक मोड़ होता है। उनके बाइबिल के पात्र समकालीन भारत से अपना रंग और रूप लेते हैं और उनका अर्जुन मध्ययुगीन शूरवीरों के कवच को अच्छी तरह से धारण कर सकता है। वे समय-समय पर अपने विषयों पर फिर से विचार करते हैं, उनमें विविधता लाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कोई संगीतकार या संगीतकार करता है।
उनकी नवीनतम कृति ‘लास्ट बाइट’ में ग्यारह भारतीय चित्रकारों का एक समूह है जो एक चाय के ढाबे पर बैठे हैं जो गुंडों और मजदूरों की वेशभूषा में हैं तथा ईसा मसीह जैसे दिखने वाले हुसैन खाली हाथ एक कप पकड़े हुए हैं जो ‘अंतर्राष्ट्रीयवादियों’ और उन लोगों के बीच बहस को संतुलित कर रहे हैं जो अपनी कला को स्वदेशी भू-भाग में स्थापित करना चाहते हैं। खन्ना आपको अपने चित्रों की व्याख्या करने के लिए छोड़ देते हैं और शरारती ढंग से कहते हैं- 'मुझे थोड़ी अनिश्चितता का गुण पसंद है।’
- डॉ. चंद्र त्रिखा