Loksabha election 2024: चुनावों में राहुल गांधी को कितना फायदा?
लोकतंत्र में वही राजनीतिज्ञ नेता बन पाता है जो जनता से शक्ति लेकर उसकी आवाज को अपनी आवाज देता है। कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष श्री राहुल गांधी ने यह कला बहुत देर से सीखी। वास्तव में यह कला उन्होंने अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान हुए अनुभवों से सीखी। राहुल गांधी की पांच महीने से अधिक चली 4000 किलोमीटर की कन्याकुमारी से कश्मीर तक की पैदल यात्रा उनके जीवन में एक मील का पत्थर साबित हुई। श्री राहुल गांधी को यह देखना होगा कि उनका मुकाबला उस नरेंद्र मोदी से है जिसने भारत के लोगों के दिलों में उतरकर अपनी लोकप्रियता बनाई और उनके दैनिक जीवन को भीतर तक प्रभावित किया।
नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अभी तक बरकरार मानी जाती है और राहुल गांधी के लिए यह कोई छोटी चुनौती नहीं है। राहुल गांधी की सबसे बड़ी ताकत इस देश की युवा शक्ति है। जिस प्रकार से उन्होंने सेना में भर्ती की अग्नि वीर योजना को निरस्त करते हुए देश के नौजवानों में यह चेतना भरी है कि राष्ट्र की रक्षा के लिए उनका अधिकार और उनकी भावनाएं कभी भी टुकड़ों में बांट कर नहीं देखी जा सकती हैं, उन्हें युवा वर्ग में वर्तमान राजनीतिक माहौल में लोकप्रियता प्रदान कर रही है। परंतु इतना निश्चित है कि राहुल गांधी ने जो मुद्दे चुनावी विमर्श में खड़े किए हैं वह ठीक वैसे ही हैं जैसे कभी डॉक्टर राम मनोहर लोहिया खड़े किया करते थे। भारतीय चुनाव में महंगाई और बेरोजगारी को एक केंद्रीय मुद्दा बना देना कोई छोटी बात नहीं कहीं जा सकती क्योंकि 5 साल बाद होने वाले हर चुनाव में महंगाई व बेरोजगारी एक मुद्दा तो रहे मगर कभी केंद्र में नहीं आ पाए थे। राहुल गांधी ने इन मुद्दों को केंद्र में लाकर पूरे राजनीतिक विमर्श को आर्थिक नीतियों के खांचे में खड़ा कर दिया है।
यदि हम गौर से देखें और भारत के चुनावी इतिहास का विश्लेषण करें तो 1952 से लेकर 2024 तक अभी तक केवल 1971 के लोकसभा चुनाव ऐसे हुए जिनके केंद्र में आर्थिक मुद्दे रहे। 1971 के चुनाव में स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने जब गरीबी हटाओ का नारा दिया था तो निश्चित रूप से उनका मंतव्य भारत की आर्थिक नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन का था। निश्चित रूप से वह समाजवादी नीतियों का दौर था और इंदिरा जी का समाजवाद तब लोगों के सिर चढ़कर बोला। वर्तमान राजनीतिक दौर में राहुल गांधी ठीक अपनी दादी की भूमिका में आए लगते हैं जो लोगों का ध्यान आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित करना चाहते हैं। राहुल गांधी का राजनीतिक ग्राफ बढ़ने का मुख्य कारण यही लगता है कि उन्होंने न केवल देश के युवा वर्ग का ध्यान बेरोजगारी जैसे मुद्दे पर केंद्रित किया है बल्कि आम जनता का ध्यान भी उन आर्थिक मुद्दों की तरफ खींचा है जो आजादी के बाद से इस देश का राजनीतिक धर्म माना जाता है। यह राजनीतिक धर्म भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था रही है। यह अर्थव्यवस्था भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का आर्थिक मॉडल था। इसी मॉडल के चलते भारत ने अपना बहुमुखी विकास इस प्रकार किया कि एक तरफ देश में सार्वजनिक संपत्ति का सृजन हुआ और निजी क्षेत्र में निवेश बढ़ा तथा दूसरी तरफ राष्ट्रीय संपत्ति का समेकित बंटवारा हुआ। गरीबों को आर्थिक मदद देकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने की इस नीति के तहत 1991 के आते-आते भारत में मध्यम वर्ग का इतना बड़ा बाजार सृजित हुआ की पूरी दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियों की लालची आंखें भारत की तरफ उठने लगी और उन्हें यह आकर्षक बाजार के रूप में दिखाई देने लगा। इस वर्ष से शुरू हुआ आर्थिक उदारीकरण का दौर भारत को एक बाजार के रूप में देखने का दौर ही कहा जाएगा। तब से लेकर अब तक भारत बाजार मूलक व्यवस्था के दौर में आ चुका है जिसमें सर्वाधिक अपेक्षा कृषि क्षेत्र की हुई है। इसी वजह से हम इस क्षेत्र में बेचैनी का आलम देखते हैं। राहुल गांधी ने इस बेचैनी को पड़कर भारत के किसानों की चिंता करने की कोशिश की है और कृषि उत्पादन पर न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का कानून बनाने का वादा भी वह कर रहे हैं। इसके साथ ही राहुल गांधी देश के युवा वर्ग को रोजगार देने के लिए जिस प्रशिक्षु योजना को लागू करना चाहते हैं उसे भी कानूनी जामा पहनाने की बात कर रहे हैं। यहां वह डॉक्टर लोहिया के बहुत करीब नज़र आते हैं।
हालांकि डॉक्टर मनमोहन सिंह भारत में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के जनक कहे जाते हैं परंतु उन्हीं के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष रहते हुए राहुल गांधी की मां श्रीमती सोनिया गांधी ने उन्हीं की सरकार से भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार जैसे कानून बनवाने में सफलता प्राप्त की। लोकतंत्र की यह भी विशेषता होती है कि इसमें लोगों के अधिकार मिलने में थोड़ी देरी हो सकती है परंतु जो भी अधिकार मिलते हैं वह स्थाई होते हैं। यह विचारधारा डॉक्टर लोहिया की ही नहीं बल्कि मूल रूप से महात्मा गांधी की है। राहुल गांधी को इस बात से मतलब नहीं है कि उनके बारे में राजनीतिक वर्ग क्या राय बनाता है बल्कि इस बात से मतलब ज्यादा है कि भारत में रहने वाले जो लोग स्वयं को पीड़ित और वंचित समझते हैं उनके बीच उनकी हैसियत क्या बनती है। भारतीय संविधान को एक चुनावी मुद्दा बना देना यह राहुल गांधी की सफलता मानी जा सकती है। हालांकि भारत में संविधान बचाओ आंदोलन पिछले लगभग 6 वर्षों से चल रहा था। जनता दल (यू) के अध्यक्ष रहे स्वर्गीय श्री शरद यादव तो इस संविधान बचाओ आंदोलन की कमान थामें ही चल बसे। संविधान बचाओ की बात करके राहुल गांधी ने यह तो आम जनता तक संदेश पहुंचा ही दिया है कि देश की वर्तमान सरकार का रवैया संविधान के प्रति उस सार्थकता का नहीं है जिसकी अपेक्षा लोकतंत्र में की जाती है। उनके राजनीतिक ग्राफ बढ़ने का एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि वह लोकतंत्र में मिले लोगों के अधिकारों को इससे जोड़ रहे हैं और लोगों को बता रहे हैं कि यदि संविधान का ढांचा बदल दिया जाता है तो भारत की सामाजिक व्यवस्था तहस-नहस हो जाएगी। विशेष रूप से अनुसूचित जातियों, जनजातियों, पिछड़ों आदि को मिला आरक्षण का अधिकार बट्टे खाते में जा सकता है। इस संदर्भ में राहुल गांधी का यह कहना कि वह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समुच्य आरक्षण पर लगाई गई 50% सीमा को हटा देंगे और इसे आगे बढ़ा देंगे अगर जातिगत जनगणना में इन वर्गों की जनसंख्या अधिक निकलती है। इस मुद्दे पर उनकी तुलना चौधरी चरण सिंह से की जा सकती है। चौधरी चरण सिंह हालांकि जाति के स्थान पर व्यवसाय की बात करते थे और इसमें भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़े व्यवसायों की विशेषतौर पर। राहुल गांधी को समझ आ गया है कि लंबी राजनीति भविष्य की दृष्टि के साथ ही की जा सकती है। इसमें उन पर पंडित नेहरू की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। परंतु श्री राहुल गांधी का मुकाबला इन चुनावों में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता से होगा।
आम लोगों के मनोविज्ञान को समझने में मोदी माहिर माने जाते हैं और उनके लोकप्रिय होने की असली वजह यही मानी जाती है। आम लोगों के साथ संवाद स्थापित करना मोदी की विशेषता कही जाती है क्या यही विशेषता राहुल गांधी ने हासिल कर ली है जो उनकी जनसभा में लोग अब प्रतिक्रियाएं देते नजर आने लगे हैं । राहुल गांधी को यह कला सीखने में निश्चित रूप से बहुत लंबा समय लगा है। उनकी दूसरी मणिपुर से मुंबई तक की यात्रा जिसे न्याय यात्रा कहा गया उसमें भी यही पक्ष उभर कर के सामने आया कि लोगों के दुख और वेदना को किस प्रकार नेता पहचान कर अपनी आवाज देते हैं।