India WorldDelhi NCR Uttar PradeshHaryanaRajasthanPunjabJammu & Kashmir Bihar Other States
Sports | Other GamesCricket
Horoscope Bollywood Kesari Social World CupGadgetsHealth & Lifestyle
Advertisement

‘माता’ का ‘कुमाता’ हो जाना

05:51 AM Jan 11, 2024 IST
Advertisement

भारत की हिन्दू संस्कृति में मां अर्थात माता के व्यक्तित्व की जो व्याख्या की गई है वह शुद्धता, निर्मलता, पवित्रता का वह पावन स्वरूप है जिसके लिए देवता भी तरसते हैं। अतः हिन्दू शास्त्रों का यह आख्यान व्यर्थ नहीं है कि जहां स्त्री की पूजा होती है वहां देवता विराजते या रमण करते हैं। इसके साथ हिन्दू शास्त्र चार युगों सत्य युग, त्रेता युग, द्वापर युग व कलियुग की परिकल्पना करते हैं। पुराणों में इसका विशद वर्णन है। पहले तीन युगों में क्रमानुसार मनुष्य की मानवता का चरित्र धीरे-धीरे घटता जाता है मगर विलुप्त नहीं होता मगर कलियुग की परिकल्पना में इस चरित्र का निरन्तर ह्रास बताया जाता है। कलियुग के लक्षणों में सर्वाधिक हृदय विदारक परिवर्तन माता के ‘कुमाता’ हो जाने का है जो घनघोर कलियुग का परिचायक माना गया है। यदि हम मिथकीय या धार्मिक मान्यताओं को एक तरफ भी रख दें तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि मनुष्य अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लालच में और इन्द्रीय भोग्य तत्वों की लालसा में अधर्मी व कामी होता जा रहा है। पवित्र पारिवारिक व मानवीय रिश्तों के तार-तार होने की खबरें हम अक्सर पढ़ते रहते हैं।
भौतिकवाद के चलते हम मशीनों के गुलाम हो रहे हैं और इसे विकास का नाम दे रहे हैं। गांधी बाबा हमें जो रास्ता दिखा कर गये हैं उसमें व्यक्ति के निजी चारित्रिक व आध्यात्मिक विकास के बिना (अंध धार्मिकता नहीं ) सकल समाज का विकास नहीं हो सकता। यदि गांधी जी द्वारा 1909 में लिखी छोटी सी पुस्तिका ‘हिन्द स्वराज्य’ पढ़ी जाये तो उसमें वह मशीनीकरण के विरुद्ध खड़े दिखाई पड़ते हैं। मशीनी विकास और वैयक्तिक या सामाजिक विकास किसी भी राष्ट्र के सम्यक उत्थान व विकास के लिए बहुत आवश्यक होते हैं। यह विकास मानवीय सम्बन्धों की पवित्रता को कायम व मजबूत रखते हुए ही किया जा सकता है। जरा गौर करिये कि जिस महिला ‘सूचना सेठ’ पर अपने चार वर्षीय पुत्र की हत्या करने का आरोप लगा है वह आर्थिक रूप से इतनी विकसित और टैक्नोलॉजी के क्षेत्र में इतनी अग्रणी है कि उसने कृत्रिम ज्ञान (आर्टीफीशियल इंटेलिजेंस) के क्षेत्र में ‘स्टार्टअप’ शुरू किया और इस विधा में उसकी पहचान हारवर्ड विश्वविद्यालय तक ने की।
समाज में उसकी प्रतिष्ठा भी निश्चित रूप से इसी रूप में रही होगी। इसके बावजूद वह अपने अबोध चार वर्षीय पुत्र के साथ मां के सम्बन्ध में अन्तर्निहित वात्सल्य भाव के उत्सर्ग की ऊष्मा पर पानी डालती नजर आती है और उसे अपना ही पुत्र व्यवधान लगने लगता है। भौतिकवाद हमें इसी पारस्परिक सम्बन्ध की जड़ता में धकेल जाता है और हम अधिक धन व नाम कमाने के लालच में अपनी सबसे अनमोल निधि को उसके होम में स्वाहा करते जाते हैं। नारी का मां बनना उसे सम्पूर्णता में नारीत्व के शिखर पर पहुंचाता है और उसे सृष्टि की जननी का गौरव प्रदान करता है परन्तु जब स्वयं सृष्टि के प्रमुख व अविभाज्य अंग प्रकृति के हम विनाशक बनकर विकास करने का भ्रम पाल लेते हैं तो उसका प्रभाव मानवीय सम्बन्धों पर पड़ना स्वाभाविक सच है। बेशक हिन्दू संस्कृति को रूढ़िवादिता का जामा कुछ लोग पहना सकते हैं और नारी स्वतन्त्रता की यूरोपीय अवधारणा का गुणगान कर सकते हैं और मुझे भी प्रतिगामी सोच का बता सकते हैं परन्तु अन्तिम सत्य यही है कि स्त्री व पुरुष परिवार की गाड़ी खींचने वाले दो पहिये होते हैं और इसमें से अगर एक पहिये को अलग कर दिया जाता है तो परिवार नाम की संस्था मृत हो जाती है। एकल माता की गृहस्थी को ‘परिवार’ कह देना यूरोपीय अवधारणा है। यह अवधारणा स्वयं में प्रतिगामी विचार है क्योंकि मनुष्य के विकास के साथ ही पिता की अवधारणा और परिवार की संस्था ने जन्म लिया।
संयुक्त परिवार केवल हिन्दू परिकल्पना नहीं है बल्कि इस्लाम में भी इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। घर-गृहस्थी संभालने वाली महिला को पिछड़ा या विकास की दौड़ में पीछे रह जाने की अवधारणा ने पारिवारिक मानवीय सम्बन्धों को बिखेर कर रख दिया है। पितृ सत्तात्मक समाज की व्यवस्था समाज व व्यक्ति के विकास के साथ ही स्थापित हुई है वरना आदिकाल में तो केवल मां ही पुत्र की पहचान होती थी। समाज के विकास करने के साथ ही पुत्र या पुत्री की पिता पहचान विकसित हुई होगी। एक लम्बी जद्दोजहद के बाद समाज में पिता का वजूद कायम हुआ होगा ऐसा हमें व्यक्ति के विकास का इतिहास ही बताता है। मगर लगातार मशीनीकरण और भौतिकवाद ने हमें मशीनों में तब्दील कर दिया लगता है जिसकी वजह से जो भी व्यवधान हमारी निजी लालसाओं में आता है उसका खात्मा करना ही हम अपना अभीष्ट मान लेते हैं। स्त्री-पुरुष बराबर होते हैं मगर एक जैसे नहीं होते। इस हकीकत को हम कथित विकास के नाम पर रोज झुठलाते हैं और भौतिकतावादी चमक में और अधिक चमकीले दिखना चाहते हैं। प्रकृति को पराजित करने की मनुष्य की जिद उसे किस कथित विकास के अंधे कुएं में फेंक देगी, इस बारे में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता क्योंकि केवल कलियुग में ही माता ‘कुमाता’ बन सकती है। पूत तो कपूत सत्ययुग को छोड़ कर हर युग में बनता पढ़ा है जिसके उदाहरण हिन्दू शास्त्र देते हैं परन्तु माता के विमाता या कुमाता बनने की बात केवल कलियुग में ही कहते हैं। इसलिए देवी दुर्गा की स्तुति में यह पंक्ति भी आती है।
पूत ‘कपूत’ सुने हैं पर ना माता सुनी ‘कुमाता’
सभ्य समाज की पहचान स्त्री के सम्मान से होती है उसके रोजगार से नहीं। उसका सबसे बड़ा रोजगार अपनी सन्तान को सभ्य व इंसान बनाना होता है। स्वयं इंसानियत को पैरो तले रौंद कर कोई भी व्यक्ति कैसे अपना विकास कर सकता है। विकसित वही है जो सभ्य है ।
‘‘मैं हंसा मां प्रफुल्लित हुई, में रोया मां का रुदन फूटा
तीनों लोकों में गम छाया जब मुझसे मां का आंचल छूटा।’’
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

Advertisement
Next Article