सांसद भी कानून की जद में
सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से ऐतिहासिक निर्णय देकर सांसदों व विधायकों के सदन के भीतर वोट देने या वक्तव्य देने के लिए रिश्वत लेने को अपराध की श्रेणी में डाल कर साफ कर दिया है कि इन सदस्यों को मिले विशेषाधिकारों का अर्थ बाजाब्ता जुर्म से उनका बरी होना नहीं है। संसद सदस्यों व विधायकों को जो विशेषाधिकार प्राप्त हैं वे सदन के भीतर बिना किसी खौफ या खतरे के अपने विचार व्यक्त करने के लिए होते हैं। हमारे संविधान निर्माताओं ने जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों को ये विशेषाधिकार सदनों के भीतर बिना किसी डर या लालच के जनता की आवाज और समस्याएं सरकार तक पहुंचाने के लिए दिये थे। ये अधिकार सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष के हर निर्वाचित प्रतिनिधि के पास बराबर रूप से होते हैं और सदन में कहे गये किसी भी कथन के लिए उन पर देश की किसी भी अदालत में मुकदमा नहीं चलता। उनके सभी कार्यों के समीक्षक सदन के अध्यक्ष होते हैं जो कि सदन की कार्यवाही के संरक्षक होते हैं परन्तु रिश्वत जैसे आपराधिक कृत्य से किसी सदस्य को छूट नहीं मिल सकती। मोटे तौर पर देखा जाये तो यह संसद या विधानसभा के भीतर धन के बूते या लालच के एवज में विशेषाधिकारों का गलत उपयोग ही कहलायेगा।
यदि कोई सांसद किसी भी सत्ता पर काबिज सरकार को बनाने या गिराने के लिए किसी तीसरे पक्ष से किसी भी प्रकार की रिश्वत लेता है तो यह घनघोर अपराध की श्रेणी में आता है और भ्रष्टाचार निरोधक कानून इस पर लागू होता है। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए संसद और विधानसभाएं ही अपने अधिकार क्षेत्र में कानून बनाती हैं मगर जब इनके सदस्य ही सदन के भीतर वोट देने या कोई वक्तव्य देने के लिए भ्रष्टाचार करते हैं तो उन्हें उनके ही बनाये गये कानूनों से छूट किस प्रकार मिल सकती है? मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाई. चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता में गठित संविधान पीठ ने इस सन्दर्भ में 1998 में इसी न्यायालय द्वारा दिये गये फैसले को निरस्त करते हुए कहा कि रिश्वत लेना विशेषाधिकारों के क्षेत्र से बाहर का मामला है जबकि 1998 में न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ ने इसे विशेषाधिकारों के क्षेत्र में रखते हुए निर्णय दिया था कि सदन के भीतर किये गये कार्यों के लिए सदस्यों को विशेषाधिकारों का संरक्षण प्राप्त होता है। सभी सात न्यायमूर्तियों ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि विशेषाधिकारों का सृजन सदनों की कार्यवाहियों को निरापद ढंग से चलाने के लिए किया गया था न कि आपराधिक गतिविधियों की अनदेखी करने के लिए। भ्रष्टाचार या रिश्वत एक अपराध है जिसे सदन के भीतर या बाहर एक दृष्टि से देखना होगा।
गौर से देखा जाये तो सांसदों को 1998 में सदन के भीतर रिश्वत लेकर वोट देने के मामले में जिस तरह भ्रष्टाचार निरोधक कानून से छूट दी गई थी वह प्राकृतिक रूप से गलत था। तब मामला यह था कि 1996 में स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव की जो कांग्रेस सरकार गठित हुई थी उसे लोकसभा के भीतर पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं था। सदन में लाये गये विश्वास मत का सामना करने के लिए उसे दूसरे दलों के सदस्यों की जरूरत थी। बहुमत जुटाने के लिए तब झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को रिश्वत रूप में खासा धन दिया गया। यह मामला अदालत में गया और तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव मुल्जिम बनाये गये। निचली अदालत में उन पर आरोप पत्र दाखिल हो गया और उन्हें अपनी जमानत करानी पड़ी। इस अदालत से उन्हें सजा भी हुई। यह प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तो तब के विद्वान न्यायाधीशों ने इसे संसद के भीतर का मामला बता कर विशेषाधिकारों का हिस्सा बता दिया। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने इसी फैसले को उलट दिया है। पूरे मामले में मूल प्रश्न 1998 में भी यही था और आज भी यही है कि क्या रिश्वत को किसी संसद सदस्य या विधायक का विशेषाधिकार समझा जा सकता है? न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ की पीठ ने इसी मुद्दे पर छायी धुंध को छांटने का काम किया है। इसके साथ ही देश की सबसे बड़ी अदालत ने विशेषाधिकारों के मुद्दे को न्यायिक समीक्षा के लिए भी खोल दिया है। बेशक संसद ही विशेषाधिकारों के मुद्दे पर विचार करने वाली सर्वोच्च संस्था है मगर इसके सदस्यों के सदन के भीतर किये गये कार्यों की समीक्षा भी अब सर्वोच्च न्यायालय में हो सकती है। दरअसल संसद या विधानसभाओं की कार्यवाहियों को सुचारू व बेखाैफ-ओ-खतर चलाने व निर्वाचित सदस्यों को जनता की समस्याओं से सर्वदा रूबरू रखने के लिए ही विशेषाधिकरों का गठन किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने साफ किया है कि लोकतन्त्र को स्वस्थ, गतिशील व जवाबदेह बनाये रखने के लिए यह व्यवस्था करना जरूरी होगा।