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भारत की मुत्तैहदा कौमियत और राम

02:32 AM Feb 02, 2024 IST
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भारत में अब लोकसभा चुनावों का शंखनाद हो चुका है। इन चुनावों में असली टक्कर हालांकि भारतीय जनता पार्टी व कांग्रेस के बीच ही होगी परन्तु हम इसका विस्तार एनडीए और इंडिया गठबन्धन के रूप में भी कर सकते हैं और कह सकते हैं कि लड़ाई सत्तारूढ़ दल व विपक्षी पार्टियों के गठबन्धन के बीच हो रही है। भाजपा ने विगत 22 जनवरी को अयोध्या में श्रीराम जन्म भूमि पर प्राण-प्रतिष्ठा समारोह को जिस विशाल स्वरूप में मनाया उसकी अन्तर्ध्वनि भारत की सांस्कृतिक पहचान भगवान श्रीराम के चारों ओर चुनावी विमर्श बुनने की ही है।
दूसरी तरफ कांग्रेस की वह विचारधारा है जिसे ‘मुत्तैहदा कौमियत’ का नाम 1936 में ही देवबन्द के जमीयत उल-उलेमा, हिन्द के सरपरस्त मौलाना मदनी ने देकर मुहम्मद अली जिन्ना के सामने चुनौती फैंकी थी कि वह हिन्दू और मुस्लिम को दो अलग-अलग कौमें बताने से बाज आयें और हिन्दोस्तानी राष्ट्रीयता की बात करें। महात्मा गांधी भी पूरी तरह मौलाना मदनी से इत्तेफाक रखते थे और हिन्दू- मुसलमानों को भारत मां की दो सन्ताने मानते थे। हिन्दू और मुस्लिम के साथ तब एक शब्द भारतीय जुड़ा रहता था जिसे जिन्ना ने अंग्रेजों के साथ साजिश करके अलग-अलग करने की कोशिश की और पाकिस्तान का निर्माण मुसलमानों के लिए करवा दिया मगर इसके बावजूद जिन्ना भारत के मुसलमानों की भारतीयता को बरबाद नहीं कर सका और नतीजा यह हुआ कि जितने मुसलमान पाकिस्तान में थे लगभग उतने ही 1947 में भारत में ही रहे जिन्हें आज भी खुद को भारतीय मुस्लिम कहने पर गर्व का अनुभव होता है।
आगामी लोकसभा चुनावों में राजनैतिक विमर्श इन्हीं दो मूल दार्शनिक सिद्धान्तों के बीच से निकलेगा जिसे भाजपा व कांग्रेस अपने-अपने हिसाब से जनता के सामने पेश करेंगी। एेसा नहीं है कि केवल 2024 के चुनावों में ही यह पहली बार होगा बल्कि 1952 के पहले चुनावों से ही भारत के मतदाताओं के सामने यह विमर्श रहा है खास कर तब जबकि पाकिस्तान नया-नया बना था। इसके बावजूद भारत का धार्मिक रूप से ध्रुवीकरण न होना बताता है कि हिन्दुत्व स्वयं में एक समावेशी व धर्मनिरपेक्ष दर्शन शास्त्र है जिसका प्रमाण भारत का मूल संविधान है जिसमें भगवान श्रीराम से लेकर मुगल शहंशाह अकबर व टीपू सुल्तान के मोहक चित्रों का समावेश है। इससे स्पष्ट होता है कि संविधान बनाने वाले हमारे दूरदर्शी पुरखों के सामने भारत की सांस्कृतिक एकता के सभी पदचिन्ह साफ थे और उनके दिमाग में किसी प्रकार की गफलत नहीं थी। यह बताता है कि ‘हिन्दू राष्ट्र’ व ‘हिन्दू राज’ में मूल अन्तर है। स्वतन्त्र भारत ने जिस धर्मनिरपेक्षता को अपनाया उसका लक्ष्य मजहब को सत्ता का भाग न बनाना था मगर मजहब से दूरी बनाये रखने की हद सभी धर्मों का एक समान रूप से सम्मान करने की थी।
इसी वजह से हम देखते हैं कि भारत की आजादी के बाद की 1967 तक की राजनीति में धर्म का पदार्पण बहुत नाम मात्र का था। इस वर्ष हुए आम चुनावों में जब जनसंघ ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली में अच्छी चुनावी सफलता प्राप्त की तो कांग्रेस की जिस नेता के सबसे ज्यादा कान खड़े हुए उसका नाम इन्दिरा गांधी था। तब वह देश की नई-नई प्रधानमन्त्री बनी थीं। उस समय की 520 सदस्यीय लोकसभा में कांग्रेस को 280 के आसपास सीटें मिली थीं जो कि साधारण बहुमत से 18 ही ज्यादा थीं। मगर इस तरफ उस समय के कांग्रेस के दिग्गज नेताओं का ध्यान इतना ज्यादा नहीं था जितना कि इन्दिरा गांधी का। इन नेताओं में एक तरफ मोराजी देसाई जैसे दक्षिणपंथी कहे जाने वाले नेता भी थे और दूसरी तरफ कामराज जैसे वामपंथी या समाजवादी माने जाने वाले नेता भी थे। इस खतरे को देखते हुए इन्दिरा गांधी 1967 के कांग्रेस पार्टी के जयपुर अधिवेशन में बैंकों के राष्ट्रीय करण का प्रस्ताव लाना चाहती थीं जिस पर पार्टी के नेताओं ने कोई ध्यान देना उचित नहीं समझा।
इन्दिरा गांधी का अपनी पार्टी के मठाधीशों से पहला मोहभंग जयपुर से हुआ और उन्होंने तब यह तय किया कि वह उत्तर भारत में जनसंघ के बढ़ते प्रभाव से निजात पाने के लिए अपनी पार्टी की दिशा को समय आने पर बदल देंगी। तब तक उन्हें गूंगी गुडि़या के नाम से ही जाना जाता था।
इन्दिरा गांधी प्रधानमन्त्री जरूर थीं मगर उनके वित्त मन्त्री मोरारजी देसाई थे जो उपप्रधानमन्त्री भी थे और देसाई बैंकों के राष्ट्रीयकरण के प्रबल विरोधी थे। वह कांग्रेस कार्यकारिणी के चौधरी भी समझे जाते थे और कामराज को भी प्रभावित करने में सक्षम थे क्योंकि यह कामराज ही थे कि जब 11 जनवरी 1966 को लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद कामराज ने कांग्रेस संसदीय दल में बाकायदा चुनाव करा कर इन्दिरा जी को नेता बना कर प्रधानमन्त्री बनाया तो मोरारजी देसाई को मनाना मुश्किल हो गया था। कामराज ने उन्हें वित्त मन्त्रालय लेकर उपप्रधानमन्त्री बनने पर राजी किया था। मगर इन्दिरा जी जरा भी प्रभावित हुए बिना राजनीति के विमर्श को बदलने पर आमादा थीं जिसे उन्होंने 1969 में जुलाई महीने में मोरारजी देसाई से वित्त मन्त्रालय लेने के बाद परवान चढ़ाया और रात को अध्यादेश जारी करा कर 14 बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जिसकी खबर मोरारजी देसाई को भी अगले दिन अखबारों से ही लगी। अब इन्दिरा गांधी पूरे भारत की सबसे लोकप्रिय राजनीतिज्ञ हो चुकी थीं। इसके साथ ही उन्होंने राजाओं-महाराजाओं के प्रिवीपर्स उन्मूलन का भी अध्यादेश जारी करवा दिया और राजनीति को मजहब के घेरे से निकाल कर गरीब और गांव के विमर्श में डाल दिया।
इस पर जनसंघ पर भी अपने रुख में बदलाव करने का दबाव बढ़ा और स्व. बलराज मधोक व अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व के बीच शीत यद्ध शुरू हो गया। मधोक एक हिन्दुत्ववादी चेहरा थे औऱ वाजपेयी उदारवादी। तब जनसंघ ने वाजपेयी को वरीयता दी क्योंकि देश में राजनीतिक विमर्श बदल चुका था। इस विमर्श को बदलने की कूव्वत क्या विपक्षी गठबन्धन इंडिया के पास है देखने वाली बात यही होगी क्योंकि अभी तक समूचा उत्तर भारत भाजपा के विमर्श में ही गोते लगाता दिखाई दे रहा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी जो न्याय यात्रा निकाल रहे हैं उसका विमर्श मुत्तैहदा कौमियत ही है मगर जमीन पर उन्हें ऐसा समाजवादी व गांधीवादी विमर्श खड़ा करके उसकी चमक पैदा करनी होगी जिसके आलोक में गांव, गरीब और पिछड़े अपना चेहरा पहचान सकें। वर्तमान परिस्थितियों में क्या यह संभव है? लोकसभा चुनाव इसी की तसदीक करेंगे क्योंकि भाजपा गांव-गरीब के मोर्चे पर भी जिस तरह 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देकर अपनी छवि प्रस्तुत कर रही है वह वर्तमान बाजारमूलक अर्थव्यवस्था में उदारवादी पक्ष का ही अभियांकन है। अतः चुनावों में लड़ाई कुछ इसी प्रकार हो सकती है।

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