अब एक सम्मन जारी हो, भीड़तंत्र के नाम भी
अब एक ‘सम्मन’ भीड़तंत्र के नाम पर भी जारी हो। बाधा सिर्फ एक रहेगी। इस भीड़तंत्र का पता क्या है? किस पते पर सम्मन भेजा जाए। साझेदारी है इसमें सभी दलों की, मगर पता एक नहीं है। बेहतर होगा कि यह सम्मन सभी दलों के कार्यालयों की बाहरी दीवार पर चिपका दिया जाए। वैसे भी जिस दिन सुनवाई होगी, उस दिन सभी अपने-अपने ‘प्ले कार्ड’, झंडे व नारे लेकर पहुंच जाएंगे। पोस्टर भी लगेंगे, सड़कें भी ठप्प होंगी।
किसी एक शवयात्रा को उसी ओर से निकलना है किसी निकटस्थ श्मशान की ओर से तो पुलिस तंत्र उन्हें रास्ता बदलकर जाने का निर्देश देगा। किसी मरीज़ को किसी 'इमरजेंसी’ में ले जाना हो तो रास्ता बदलना होगा। आसान रास्तों पर भीड़तंत्र का साम्राज्य है और लम्बे रास्ते को तय करते-करते, मरीज के बचने की संभावनाएं मद्धम होने लगती हैं। मरीज, नौकरी, श्मशान, इन बातों से भीड़तंत्र को कुछ भी लेना-देना नहीं।
उधर, पुलिस तंत्र परेशान हो चला है। लाठियां, अश्रुगैस, ‘बैरीकेड’, सब अस्त्र-शस्त्र असफल होने लगते हैं। फायरिंग सरीखे आदेशों के पक्ष में न ब्यूरोक्रेसी है न पुलिस तंत्र। तो समाधान क्या हो? राम मंदिर, धारा 370 सरीखे विवाद तो निपट लिए, मगर भीड़तंत्र का क्या हो? तो क्या जब तक राजनेताओं के ‘सम्मन’ जारी होते रहेंगे, तब तक यह तंत्र भी सक्रिय बना रहेगा? अजब मोड़ पर फंस चला है मर्यादाओं का खेल।
हम धीरे-धीरे उस युग मेें प्रवेश कर रहे हैं जिस का संकेत प्रख्यात कवि-साहित्यकार धर्मवीर भारती ने अपने काव्य-नाटक अंधा युग के पहले दो पृष्ठों में किया था :
‘उस भविष्य में धर्म-अर्थ ह्रासोन्मुख होंगे
क्षय होगा धीरे-धीरे
सारी धरती का
जिनके नकली चेहरे होंगे
केवल उन्हें महत्व मिलेगा
और...यह अंधा युग अवतरित हुआ
जिसमें स्थितियां, मनोवृत्तियां
आत्माएं सब विकृत हैं
है एक बहुत पतली डोरी मर्यादा की
पर वह भी उलझी है, दोनों ही पक्षों में
यह अजब युद्ध है नहीं किसी की भी जय
सारे पक्षों को खोना ही खोना है !
तो क्या हम धीरे-धीरे एक मर्यादाहीन, सामाजिक व्यवस्था की ओर सरकते जा रहे हैं?
कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि हम अपनी मर्यादाओं के खिलाफ स्वयं ही मर्यादाओं पर रक्तपात में आमादा हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री को ‘ईडी’ बुलाती है तो वह जवाब में, एक शर्त रख देते हैं, ‘पहले बताएं, मुझे क्यों बुलाया जा रहा है?’ और उसके बाद राजधानी में दोतरफा प्रदर्शनों का सिलसिला छिड़ जाता है। सड़कों पर ट्रैफिक-जाम की स्थिति पैदा हो जाती है। एक तीसरा पक्ष भी है, जिसमें बहुतेरे लोगों का या तो दफ्तरों में पहुंचना है या अस्पतालों की ओर लपकता है या मजदूरी करना है या फिर किसी अन्त्येष्टि में पहुंचना है या फिर छोटी-मोटी दुकानदारी करनी है। वे एक-दूसरे के खिलाफ नारे लगाने वालों को मन ही मन बददुआएं दे रहे हैं, कोस रहे हैं, छटपटा रहे हैं, मगर उनकी कोई नहीं सुनता। प्रदर्शनकारियों को इन बातों से कोई सरोकार नहीं। ये सिलसिला एक दिन का नहीं है। देश में मुद्दों की भरमार है। कल कोई और मुद्दा उठा लिया जाएगा। रातोंरात नए पोस्टर, नए प्ले-कार्ड, नए नारे, सब कुछ गढ़ लिया जाता है। संकट यह है कि इन हालात का कोई अंत दूर तक दिखाई नहीं देता। हम एक नए भारत की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहे हैं, मगर नया भारत, भीड़-तंत्र का शिकार होने के खतरे से जूझ रहा है।
अब हमें सर्व-स्वीकार्य नेताओं का भी अभाव खटकने लगा है। अब न गांधी है, न जेपी, न पटेल, न वाजपेयी। एक प्रधानमंत्री हैं जो कर्मठता की इबारत लिखने में लगा है, मगर उसका सामना हर सुबह एक नए आक्षेप, नए आरोप और मर्यादाविहीन अपशब्दों से हो रहा है। प्रतिपक्ष है, जो निरंतर शोषित होने का शंखनाद जारी रखे हुए है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि कोई भी तंत्र प्रभावी ढंग से सक्रिय नहीं हो पा रहा। न कार्यपालिका, न न्यायपालिका, न संसद। मीडिया भी आतंकित है। सच बोलेगा तो ‘बिकाऊ’ होने का आरोप चस्पां हो जाएगा, झूठ बोलेगा तो उसकी सांस घुटने लगेगी। व्यापक दृष्टि दौड़ाएं तो ऐसी कोई आवाज़, ऐसी कोई शख्सियत, ऐसी कोई कलम दिखाई नहीं देती, जो आरोपों की ज़द में आने से बच सके।
दुष्यंत याद आने लगते हैं :
‘अब किसी को भी नज़र
आती नहीं कोई दरार !
घर की हर दीवार पर
चिपके हैं इतने इश्तिहार
इस सिरे से उस सिरे तक
सब शरीके जुर्म हैं
आदमी या तो ज़मानत पर
रिहा है या फरार’