नेपाल में फिर ओली
भारत के पड़ोसी देश नेपाल में एक बार फिर सत्ता परिवर्तन हो गया है। सीपीएनयूएमएल के अध्यक्ष केपी शर्मा ओली ने नई गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने के लिए प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली है। वे चौथी बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने हैं। इससे पहले वह 2015 में 10 महीने 2018 में 40 महीने और 2021 में 3 महीने, कुल मिलाकर वे अब तक साढ़े चार साल तक प्रधानमंत्री रहे हैं। ओली ने शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व वाली नेपाली कांग्रेस से गठबंधन कर सरकार बनाई है। नेपाल की राजनीति में उन्हें पलटूराम करार दिया गया हैै। इसके बावजूद उनके आलोचक भी उन्हें तेज तर्रार नेता मानते हैं। जो कुर्सी पर बने रहने के लिए हर तरह की कलाबाजी खाने में माहिर है।
वर्ष 2022 में हुए चुनाव में उनकी पार्टी संसद में दूसरे नंबर की पार्टी बनी लेकिन वह कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल के अध्यक्ष पुष्प कमल दहल प्रचंड को समर्थन देकर सरकार बनवाई। अब उन्होंने प्रचंड सरकार से समर्थन वापिस ले लिया और शेर बहादुर देउबा से सत्ता के लिए साठगांठ कर ली। उनकी सरकार कितने दिन चलेगी इस बात का भरोसा शायद उन्हें भी नहीं होगा। ओली साहसी भी हैं और दुस्साहसी भी। यह विडम्बना ही रही कि नेपाल में बंदूक से निकली क्रांति के बाद आज तक वहां स्थिर सरकार नहीं बन पाई। यद्यपि भारत ने सुख-दुख में हमेशा उसका साथ दिया लेकिन ओली के शासनकाल में नेपाल का रुख भारत विरोधी ही रहा।
केपी शर्मा ओली चीन समर्थक माने जाते हैं। वे शुरू से ही मार्क्स और लेनिन दर्शन से प्रभावित हैं और 1966 से ही वे कम्युनिस्ट राजनीति में सक्रिय हैं। नेपाल भारत का एक महत्वपूर्ण पड़ोसी है और दोनों में रोटी और बेटी का रिश्ता है। भौगोलिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों के कारण नेपाल भारत की विदेश नीति में विशेष महत्व रखता है। दोनों देश न केवल खुली सीमा और लोगों की निर्बाध आवाजाही साझा करते हैं बल्कि शादियों और पारिवारिक संबंधों के चलते भी उनके बीच गहरे रिश्ते हैं। नेपाल भारत की हिमालयी सीमाओं के ठीक मध्य में है और भूटान के साथ यह एक उत्तरी सीमा के रूप में काम करता है। चीन से किसी भी संभावित हमले के खिलाफ बफर राज्य के रूप में कार्य करता है।
वर्ष 1950 की शांति और मित्रता की भारत-नेपाल संधि दोनों देशों के बीच विशेष संबंधों का आधार है। नेपाल में 240 सालों से चली आ रही राजशाही 28 मई 2008 को खत्म हुई थी लेकिन जब से देश लोकतंत्र बना तभी से सरकारें बनती और टूटती रही। ऐसा लगता है कि वहां अभी तक लोकतंत्र का अभ्यास ही चल रहा है। नेपाल में जब से अंतरिम संविधान को अपनाया है तब से वहां 13 सरकारें बदल चुकी हैं। ओली के प्रधानमंत्री बनने से भारत की चिंताएं बढ़ना स्वाभाविक है। ओली के पिछले शासनकाल में चीन का हस्तक्षेप काफी बढ़ गया था और चीन की काठमांडु स्थित महिला राजदूत नेपाल सरकार के कामकाज में सीधा हस्तक्षेप करने लगी थी और ओली ने अपनी जमीन पुख्ता बनाने के लिए अति राष्ट्रवाद का सहारा लिया। जब भारत ने नाकाबंदी लगाई थी तो उस समय भी ओली ने भारत के खिलाफ आग उगली थी।
ओली के पिछले कार्यकाल में भारत-नेपाल सीमा विवाद चरम पर था। उनकी सरकार ने नेपाल का नया राजनीतिक नक्शा प्रकाशित किया था, जिसमें भारत के कालापानी, लिंपियाधुरा, लिपुलेख जैसे कई इलाकों को नेपाल का हिस्सा बताया गया था। ओली ने कई सार्वजनिक भाषणों में भारत से जमीन का वह हिस्सा वापस लेने का दंभ भी भरा था। उन्होंने यहां तक कहा था कि नेपाल उन हिस्सों को वापस लेने में सक्षम है। तब भारत ने नेपाल के इस नक्शे पर कड़ी आपत्ति दर्ज कराई थी। हालांकि उनकी सरकार गिर जाने के बाद मानचित्र विवाद ठंडे बस्ते में चला गया था। ऐसे में ओली के एक बार फिर नेपाल का प्रधानमंत्री बनने से भारत के साथ सीमा विवाद भड़कने के आसार हैं।
हालांकि प्रचंड के शासनकाल में वह चीन और भारत में संतुलन बनाकर चल रहे थे लेकिन वह भी विश्वास मत में नाकाम रहने से पहले चीन के साथ महत्वपूर्ण समझौतों को मंजूरी देने से पीछे नहीं हटे। प्रचंड के शासनकाल में ही नेपाल में 100 रुपए के नोट पर भारत के इलाकों को अपना बताकर नया नक्शा छापा गया था। तब भारत ने नेपाली नक्शे की कृत्रिम विस्तार बताकर नेपाल को मुंहतोड़ जवाब दिया था। नेपाल भी यह जानता है कि वह भारत के साथ मिलकर ही आर्थिक समृद्धि हासिल कर सकता है लेकिन ओली के रहते भारत के साथ संबंधों में सुधार की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। ओली कई बार भारत विरोध में अनर्गल बयानबाजी करते रहे हैं और उन्होंने यहां तक कह दिया था कि भारत ने भगवान श्रीराम को हड़प लिया है और असली अयोध्या नेपाल में लेकिन तब जमकर उनका मजाक उड़ाया गया था और तब नेपाल को स्पष्टीकरण देना पड़ा था। ओली खुद लिखते हैं कि उन्होंने अपने दिमाग से हार और अपमान को हटा दिया है। जब मैं गिरता हूं तो तुरंत उठ भी जाता हूं। ऐसी विचारधारा वाले ओली से ज्यादा उम्मीद तो नहीं की जानी चाहिए। हाे सकता है कि भारत से तनाव बढ़ाने के लिए वह कुछ और राष्ट्रवादी नीतियां अपनाए। पलटूराम कब पलट जाए कुछ कहा नहीं जा सकता।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com