पी.एच.डी. सब्जी वाला
डाॅ. संदीप सिंह की कहानी सबको कष्ट देने वाली है। उन्होंने लॉ में पीएचडी की हुई है। इसके अलावा वह चार विषयों में एम.ए. हैं। वह अब भी बैचलर ऑफ लाइब्रेरी, की पढ़ाई कर रहें हैं। पर डा. संदीप सिंह जो शायद पंजाब के सबसे पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं, को गुजारा चलाने के लिए सब्जी बेचनी पड़ रही है। वह एक दशक पंजाबी यूनिवर्सिटी में पढ़ा चुके हैं पर उन्हें नैकरी छोड़नी पड़ी क्योंकि वेतन अपर्याप्त था, समय पर नहीं मिलता था और लगातार वेतन कटौती होती थी। उस समय उन्हें कंट्रैक्ट पर 20000-25000 रुपए मिलते थे। तब उन्होंने फैसला किया कि यूनिवर्सिटी की अनिश्चित नौकरी से बेहतर है कि वह सब्जी बेचना शुरू कर दें। अब एक रेहड़ी जिस पर लिखा है ‘पीएचडी सब्जी वाला’, पर रख वह रोज सब्जी बेचते हैं। उनका कहना है कि इस तरह उनका और उनके परिवार का गुजारा बेहतर चलता है।
यूनिवर्सिटी की तरफ से कोई स्पष्टीकरण नहीं, उनकी अपनी वित्तीय मजबूरी होगी पर उस शिक्षा प्रणाली और व्यवस्था के बारे क्या कहा जाए जहां चार एम.ए. पास पी.एच.डी. भी बेरोजगार भटक रहा हैं और उन्हें घर-घर जाकर सब्जी बेचनी पड़ रही है। इतना कुछ सहने के बावजूद उनका दृष्टिकोण सकारात्मक है और वह भविष्य में भी पढ़ाना जारी रखना चाहते हैं और कोचिंग सैंटर शुरू करना चाहते हैं। उनका कहना है, “कोई मुझे अपने सपने पूरे करने से रोक नहीं सकता। मैं सरकार पर निर्भर नहीं रह सकता।”
जहां तक मेरी जानकारी है सरकार बेखबर है। डा.संदीप सिंह जैसे बेरोजगार उसके राडार पर नहीं है। सरकार भी क्या करे? हर बेरोज़गार को वह नौकरी नहीं दे सकती पर डा. संदीप सिंह ‘हर बेरोजगार’ की परिभाषा में नहीं आते। उनके जैसा पढ़ा-लिखा तो कम ही पंजाब में मिलेगा। उनके जैसों के लिए तो अच्छी नौकरी के दरवाजे खुले होने चाहिए। एक व्यक्ति इससे ज्यादा और कर भी क्या सकता है? वह मेहनत कर सकता है और उच्च शिक्षा प्राप्त करने की कोशिश कर सकता है। फिर भी अगर उसे अच्छी नौकरी न मिले तो यह तो घोर अन्याय है। डा. संदीप सिंह की हालत देख कर बहुत युवा निरुत्साहित होंगे कि पढ़ने-लिखने से कुछ नहीं बनेगा। कोई सड़क पर गर्मी- सर्दी में भटकता स्वेच्छा से सब्जी नहीं बेचता। यह उसकी लाचारी होती है। इससे व्यवस्था के प्रति अविश्वास पैदा होगा और बाहर भागने की प्रवृति और बढ़ेगी। एक युवक से पूछने पर कि वह कनाडा क्यों जाना चाहता है उसका जवाब मुझे अवाक छोड़ गया, “सर, अपना घरबार कौन खुशी से छोड़ता है? मजबूरी है यहां नौकरी नहीं है”।
न केवल नौकरी नहीं मिलती जो मिलती है वह उपयुक्त नहीं होती। निकारागुआ जाने वाली फ्लाइट जो पकड़ी गई के बारे भी बताया गया कि वह पंजाबियों के लिए चलाई जाती है और जो सीटें बच जाती हैं वह गुजरात में बेच दी जाती हैं। ट्रिब्यून अखबार ने अमृतसर ज़िले के नौशेरा-पन्नुआन गांव की रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसके अनुसार, “बाहर जाने की स्पीड बहुत तेज है...गांव में, विशेष तौर पर जाट परिवारों में, 19-35 वर्ष के युवा नहीं मिलते..अधिकतर बेहतर भविष्य के लिए विदेश चले गए हैं। जिनके साधन है वह निकल गए हैं। कई वह बचे हैं जिन्हें वीजा नहीं मिले। अपनी मर्जी से शायद ही कोई युवा वहां बचा हो। एकड़ या दो एकड़ बेच कर बच्चों को बाहर भेजा जा रहा है।’’ रिपोर्ट में पूर्व सरपंच इकबाल सिंह का हवाला दिया गया है जिनका कहना है, “पढ़े लिखे युवा क्या कर सकते हैं जब उनका यहां कोई भविष्य नहीं है।”
पंजाब की हालत दूसरे प्रदेशों से अलग है। 1981 में पंजाब देश का सबसे प्रगतिशील प्रांत था, नम्बर-1 लेकिन आतंकवाद के दौर के बाद से ही प्रदेश भटक गया। उस दौर के बारे कहा जा सकता है कि,
सिर्फ इककदम उठा था गलत राह-ए-शौक में
मंजिल तमाम उम्र हमें ढूंढती रही
पिछली दो सरकारें, अकाली-भाजपा और कांग्रेस, प्रदेश का कुछ नहीं संवार सकीं। परिणाम है कि पंजाब खिसक कर देश में 16 नम्बर पर है। पंजाब की प्रति व्यक्ति आय 1.69 लाख रुपए है जबकि पड़ोसी हरियाणा की 2.65 लाख रुपए और हिमाचल प्रदेश की 2.0 लाख रुपए है। प्रति व्यक्ति आय में पंजाब अब 19वें नम्बर पर है। जीडीपी में वृद्धि में गुजरात सबसे ऊपर है और जहां तक पंजाब का सवाल है वृद्धि की दर, सांसें थाम लीजिए, बिहार के बराबर है। हम अपनी पुरानी अकड़ पर जी रहे हैं पर हमारा हर शहर हमारे पतन की कहानी बताता है। खेती लाभदायक नहीं रही और शहर किसी को आकर्षित नहीं कर रहे। बाकी प्रदेशों ने अपने शहरी केन्द्र विकसित कर निवेश को आकर्षित किया है। पंजाब में केवल मोहाली में कुछ हलचल नजर आती है। बाकी जगह निवेश का माहौल ही नहीं है। हमारे पिछड़े गंदे शहर ग्रोथ को आकर्षित नहीं करते। हम अपना नुकसान करने में भी माहिर हैं। बार बार सड़कों पर धरने और रेल रोको से अनिश्चितता का माहौल बनता है और बाहरी लोग आने से घबराते हैं। अमृतपाल सिंह जैसे प्रकरण पंजाब को अनाकर्षक बनाते हैं कि यहां उत्पात होते रहेंगे। ड्रग्स की समस्या विकराल रूप धारण कर गई है। हर सरकार दावा तो करती रही है पर कोई भी इस कई भुजाओं वाले ऑक्टोपस का वध तो क्या करना, नियंत्रण भी नहीं कर सकी। कई मां-बाप बच्चों को इस डर से भी बाहर भेज रहें हैं कि यहां रह नशे के आदी न हो जाएं।
पंजाब की यह भी समस्या है कि केन्द्र सरकार की यहां रुचि नहीं लगती। न वर्ल्ड कप का कोई मैच ही यहां रखा गया था और दूसरी बार गणतंत्र दिवस पर पंजाब की झांकी को इजाजत नहीं मिली। केन्द्र के आशीर्वाद के बिना कोई प्रदेश तरक्की नहीं सकता। परिणाम है कि पहले ही कर्जे के बोझ से ग्रस्त पंजाब के पास अपनी सुध लेने के लिए पैसा नहीं है। इसी का परिणाम है कि रोज़गार की स्थिति निराशाजनक है और जान जोखिम में डाल युवा बाहर किस्मत अजमाने के लिए भाग रहे हैं। नवीनतम त्रासदी पठानकोट के जगमीत सिंह की है जिसे सीधा अमेरिका भेजने की जगह पनामा के जंगलों में छोड़ दिया गया जहां उसका अता-पता नहीं है। एजेंट खुद भाग गया है। विदेश भेजने का अरबों रुपये का धंधा है। हैरानी है कि सरकारें इसे रोकने में नाकाम है। निकारागुआ फ्लाइट के घोटाले के बाद पंजाब और हरियाणा सरकारों ने एसआईटी बनाई है। यह तो आईवॉश है। यह मानना मुश्किल है कि सरकारों को पता नहीं कि कौन ‘कबूतरबाजी’ में संलिप्त हैं।
पंजाब से जो पलायन हम देख रहे हैं उसी का दूसरा चिन्ताजनक रूप पूरे देश में भी देखने को मिल रहा है। पंजाब से तो अवैध ढंग से वह बाहर भाग रहे हैं जिन्हें यहां कोई भविष्य नहीं नजर आता,सारे देश से तो पढ़े लिखे प्रोफेशनल वैध ढंग से अच्छे दिनों के लिए विदेश का रुख कर रहे हैं। जिसे ब्रेन ड्रेन कहा जाता है वह विकराल रूप धारण कर रहा है। डा.मनमोहन सिंह की सरकार के समय एक मौका आया था जब भारत को उभर रहे अवसर के तौर पर देखा जा रहा था और बहुत लोग विदेश से घर लौटना शुरू हो गए थे पर अब फिर यह पलायन चिन्ताजनक रूप धारण कर गया है। नैशनल ब्यूरो ऑफ इकनॉमिक रिसर्च के अनुसार जेईई परीक्षा में टॉप-100 में से 62 विदेश चले गए हैं। टॉप-10 रैंक हासिल करने वालों में से 9 विदेश चले गए हैं। विशेष तौर पर अमेरिका को हमारे आईआईटी और मेडिकल की शीर्ष प्रतिभा मिल रही है। दुनिया की माइक्रोसाफ्ट, गूगल, आईबीएम,अडोब जैसी 30 टॉप अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों के सीईओ भारतीय मूल के हैं। अब तो बीबीसी के अध्यक्ष भी डा. समीर शाह बन गए हैं। हमारे कई अखबार ज़रूर कहेंगे कि 'विदेश में भारत का डंका बज रहा है’ पर कड़वा सच है कि हम प्रतिभा को यहां रोक नहीं सके। वह विदेश में जाकर खिल रही है। हम उसे सही तरीके से खिलने का मौका नहीं दे रहे इसीलिए पीएचडी को भी यहां रेहड़ी लाद कर सब्जी बेचनी पड़ रही है।
हम बड़ी संख्या में अपने डाक्टर, इंजीनियर, व्यवसायी और स्किल्ड वर्कफोर्स को खो रहे हैं। भारतीय प्रतिभा को देश के अन्दर रोकने के लिए किसी भी सरकार ने कोई योजना नहीं बनाई न ही शायद जरूरत ही समझी है। जो बाहर बस जाता है वह वापिस नहीं लौटता। आरक्षण के कारण सरकारी नौकरी और उच्च शिक्षा संस्थाओं में जनरल कैटेगरी के लिए सिकुड़ते अवसर भी विदेश जाने के रुझान को मज़बूत करते हैं। हमारे रिसर्च संस्थान विश्व स्तर के नहीं हैं। इस मामले में अमेरिका का कोई मुक़ाबला नहीं। चीन कोशिश कर रहा पर वह अमेरिका से बहुत पीछे है। यह भी शिकायत है कि भारत का पासपोर्ट वीजा-फ्री फायदा नहीं देता।
जिनका व्यवसाय दुनिया में घूमने पर आधारित है भारतीय पासपोर्ट से सीमित महसूस करते हैं। पिछले साल अमरीका का वीजा लेने में 500 दिन की देरी ने भी बहुत लोगों को परेशान किया। अब रईस लोग करोड़ों रुपए खर्च कर ऐसा पासपोर्ट ख़रीदने की कोशिश कर रहे हैं जिससे उन्हें दुनिया में आने-जाने में दिक्कत न हो। पंजाब की अपनी बड़ी त्रासदी है।
जब डा. संदीप सिंह जैसे मामले जब खबरों में आते हैं तो हताशा फैलती है और यह राय मजबूत होती है कि यहां अवसर कम हैं। मैं मुख्यमंत्री भगवंत मान से निवेदन करना चाहूंगा कि वह उनकी समस्या का इलाज निकालें कि एक पीएचडी रेहड़ी सजा कर पंजाब की सड़कों पर सब्जी बेचने के लिए मजबूर है, प्रदेश की अच्छी तस्वीर प्रस्तुत नहीं करता।
- चंद्रमोहन