दिल्ली में सियासी ‘लीला’
भारत की राजधानी दिल्ली की सशक्त ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है। यहां भारतीय इतिहास के सर्वाधिक शक्तिशाली राजाओं ने शासन किया। शहर का इतिहास महाभारत के जितना ही पुराना है। कभी शहर को इन्द्रप्रस्थ के नाम से भी जाना जाता था, जहां कभी पांडव रहे थे। हिन्दू राजाओं से लेकर मुस्लिम राजाओं तक दिल्ली का शासन एक राजा से दूसरे राजा के हाथों जाता रहा। दिल्ली की मिट्टी खून, कुर्बानी और देश प्रेम से सींची हुई है। सन् 1803 में दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। अंग्रेजों ने कलकता से बदलकर दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। यह शहर तब से ही शासकीय और राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। धीरे-धीरे दिल्ली महानगर बन गई और वह अपनी गद्दी पर बैठने वालों को बदलती रही। न जाने दिल्ली के पानी की तासीर कैसी है। यहां का पानी एक बार जो पी लेता है वह दिल्ली वाला हो जाता है। देशभर के नेता दिल्ली में आते हैं और यहीं के मायाजाल में फंस जाते हैं। कबीर ने कहा था “माया महाठगनी हम जानी” जो लोग दिल्ली आकर सफल हो गए वे कहते हैं कि दिल्ली वैभव की दीवानी है। जो लोग आज भी झुग्गी-झोपडि़यों में रहते हैं। उनके दिलों में अथाह पीड़ा है। कभी रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा था।
हाय छिनी भूखों की रोटी
छिना, नग्न का अर्द्ध वसन है
मजदूरों के कौर छिने हैं
जिन पर उनका लगा दसन है
वैभव की दीवानी दिल्ली
कृषक मेघ की रानी दिल्ली
अनाचार, अपमान, व्यंग्य की
चुभती हुई कहानी दिल्ली।
दिल्ली का वैभव बढ़ता ही गया। नेता बनते गए और इसी वैभव की चकाचौंध में खो गए। अमीर और अमीर होते गए लेकिन आम आदमी आज भी दो रोटी के जुगाड़ में जूझ रहा है। दिल्ली के लोगों ने दिग्गज नेताओं को देखा। चौधरी ब्रह्मप्रकाश, मदनलाल खुराना, केदारनाथ साहनी, विजय कुमार मल्होत्रा, साहिब सिंह वर्मा, श्रीमती सुषमा स्वराज, श्रीमती शीला दीक्षित से लेकर आप पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल और मौजूदा मुख्यमंत्री आतिशी तक और अनेक दिग्गज नेताओं को सुना, देखा और महसूस किया। भारत की राजनीति में दिल्ली की भूमिका हमेशा से ही अहम रही है। अतीत का स्मरण करने वाले लोग महसूस करते हैं कि दिल्ली की सियासत में इस समय जो ‘लीला’ चल रही है ऐसी नौटंकी आज तक उन्होंने नहीं देखी। हर मुद्दे पर नौटंकी और मुठभेड़ की सिसायत ही चल रही है। आप-भाजपा की नौटंकी के बीच कांग्रेस ‘वेट एण्ड वाच’ की नीति अपनाये हुए है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन इंडिया अगेंस्ट करप्शन 2011 में सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के नेतृत्व में उभरा और इसी बीच आप पार्टी का उदय हुआ। अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में 2013 में आप पार्टी ने विधानसभा चुनाव लड़ा और 70 सीटों वाली विधानसभा में 28 सीटें जीत कर एक शानदार शुरूआत की। मैं चुनावी इतिहास में नहीं जाना चाहता।
अब जो दिल्ली की सियासत में हो रहा है उससे दिल्ली के आम लोगों से कोई संबंध नहीं है। कभी प्रशासनिक अधिकारियों को लेकर उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री में टकराव होता रहा। कभी उपराज्यपाल पर दिल्ली सरकार के कामकाज में बाधा डालने के आरोप लगे। शराब घोटाले में आप पार्टी के मनीष सिसौदिया और अरविन्द केजरीवाल के जेल जाने और जमानत पर रिहाई के दौरान और अब जो कुछ हो रहा है उससे दिल्लीवासी हताश हैं। अरविन्द केजरीवाल के राजनीतिक उभार को देखने वाले जानते हैं कि उनकी राजनीति और रणनीति हमेशा आक्रामक रही है। आप पार्टी और भाजपा में वार-पलटवार ही चल रहा है। निगम के विभिन्न पदों के लिए चुनावों से लेकर और बर्खास्त किए गए मार्शलों की बहाली को लेकर पिछले दिनों जमकर हंगामा हुआ। आप पार्टी के नेताओं ने विधानसभा में विपक्ष के नेता विजेन्द्र गुप्ता के पांव पकड़कर मार्शलों को बहाल करने की मांग की। आप के मंत्री सौरभ भारद्वाज और अन्य ने इस ड्रामेबाजी में अहम भूमिका निभाई। मुख्यमंत्री आतिशी तो विपक्ष के नेता की कार में जाकर बैठ गई।
उपराज्यपाल की शक्तियों को लेकर मामला अब भी अदालतों में है। अरविन्द केजरीवाल और आप पार्टी के अन्य नेता खुद को भाजपा से पीड़ित दिखाकर विक्टिम कार्ड खेल चुके हैं। जनता की अदालत में जाकर अरविन्द केजरीवाल ने 6-6 रेवडि़यों के पैकेट बांटकर भाजपा पर न केवल करारी चोट की और उन्होंने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने और दिल्ली से उपराज्यपाल की शक्तियों को समाप्त करने का दावा भी कर दिया। हालांकि यह दोनों चीजें इतनी आसान नहीं हैं। दरअसल अरविन्द केजरीवाल ऐसा विमर्श पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं कि भाजपा दिल्ली सरकार को कामकाज नहीं करने दे रही। सीबीआई और ईडी के केस फर्जी हैं और उन्हें झूठे केसों में फंसाया गया है। भाजपा नेता बयानबाजी कर अरविन्द केजरीवाल और अन्य पार्टी नेताओं को भ्रष्टाचारी करार देकर उनकी छवि धूमिल करने का प्रयास कर रहे हैं। इसी सियासत के चलते दिल्ली बेहाल है। जल, स्वच्छता, परिवहन और प्रदूषण आदि का संकट बरकरार है। निम्नस्तरीय राजनीति की पराकाष्ठा कहां तक पहुंचेगी कुछ कहा नहीं जा सकता। देखना होगा कि दिल्ली विधानसभा के चुनावों में कौन किसे मात देता है।