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लोकसभा अध्यक्ष के पद की सत्ता

03:13 AM Jul 06, 2024 IST
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भारत की संसदीय प्रणाली में संसद की सत्ता को सरकार के प्रभुत्व से पूर्णतः निरपेक्ष रखा गया है जिसमें लोकसभा के अध्यक्ष की प्रभुसत्ता को सर्वोपरि रख कर संसदीय संरचना की गई है। हाल ही में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद ज्ञापन के मौके पर हुई लोकसभा में चर्चा में विपक्ष के नेता श्री राहुल गांधी ने इस ओर प्रकाश डालने का काम अपने तरीके से किया परन्तु उसे या तो कायदे से समझा नहीं गया अथवा उसे अवज्ञा भाव से लिया गया। संसद दो सदनों राज्यसभा व लोकसभा से मिल कर बनती है जिसमें लोकसभा के पास कुछ विशेषाधिकार होते हैं। ये विशेषाधिकार सरकार बनाने या गिराने के होते हैं। संविधानतः सरकार लोकसभा के प्रति ही उत्तरदायी या जवाबदेह होती है। इसकी मूल वजह यह होती है कि सरकार का गठन लोकसभा में प्राप्त बहुमत के आधार पर ही होता है। हर 5 साल बाद लोकसभा का नया गठन होता है (हालांकि यह बीच में भी हो सकता है बशर्ते कि पदेन सरकार सदन में गिर जाये) हर नई लोकसभा में नई सरकार का गठन बहुमत व अल्पमत के आधार पर होता है। अल्पमत औऱ बहुमत का फैसला सदन में ही अध्यक्ष की मार्फत होता है। मगर इससे पहले हर नई सरकार बनने के बाद अध्यक्ष का चुनाव होता है। वैसे तो इसका मूल आधार भी अल्पमत या बहुमत ही होता है परन्तु यह प्रयत्न किया जाता है कि अध्यक्ष का चुनाव सर्वसम्मति से ही हो।

सर्वसम्मति न बन पाने पर उसी प्रकार चुनाव की नौबत आयी है जिस प्रकार कि इस बार श्री ओम बिरला के अध्यक्ष चुने जाने पर आयी थी। लोकसभा में अभी तक 1952 से लेकर अध्यक्ष पद के ​लिए केवल चार बार ही चुनाव हुआ है वरना 14 बार अध्यक्ष सर्वसम्मति से चुने गये हैं। 1952 की पहली लोकसभा के भीतर ही यह चुनाव हुआ था जब संयुक्त विपक्ष ने कांग्रेस के प्रत्याशी श्री जी.वी. मावलंकर के खिलाफ अपना उम्मीदवार उतार दिया था। विपक्ष का प्रत्याशी तब बुरी तरह परास्त हुआ था। दूसरी बार 1967 में कांग्रेस के उम्मीदवार श्री नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ युक्त विपक्ष ने कुन्नूर के सांसद श्री टी. विश्वनाथन को उतारा। यह मुकाबला बहुत कड़ा हुआ । श्री रेड्डी को 278 मत तथा श्री विश्वनाथन को 207 मत मिले। 1967 के चुनाव में कांग्रेस को लोकसभा में बहुत कम केवल 20 मतों का ही बहुमत प्राप्त हुआ था। तीसरा चुनाव 1976 में इमरजेंसी के दौरान लोकसभा में कांग्रेस के श्री बलिराम भगत व जनसंघ के श्री जगन्नाथ राव जोशी के बीच हुआ जिसमें श्री जोशी को केवल 56 मत मिले थे औऱ श्री भगत की प्रचंड विजय हुई थी। चौथा चुनाव 2024 में श्री ओम बिरला का हुआ जिसमें उन्हें ध्वनिमत से विजयी घोषित किया गया।

अध्यक्ष आसन पर बैठते ही अराजनैतिक व्यक्ति नैतिक रूप से हो जाते हैं क्योंकि वह सदन के सभी सदस्यों के अधिकारों के न केवल संरक्षक होते हैं बल्कि अभिभावक भी होते हैं। सदन में सभा सदस्यों के अधिकार बराबर होते हैं चाहे वह सत्तारूढ़ दल से सम्बद्ध हो या विपक्ष का सांसद हो। इनका सम्बन्ध विशेषाधिकारों से होता है। यदि कोई सत्तापक्ष का सांसद भी अपने दल की सरकार की आलोचना में कुछ कहना चाहता है तो उसे सदन में ऐसा बोलने की इजाजत अध्यक्ष देते हैं क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार उसका मूल अधिकार है। यह मूल अधिकार प्रत्येक सांसद को मिला होता है। अध्यक्ष के पास न्यायिक अधिकार भी होते हैं। सांसदों का यह विशेषाधिकार होता है कि वे सदन के भीतर बिना किसी डर के अपनी बात बोलें। यहां यह ध्यान देने योग्य बात है कि संसद के भीतर सरकार की सत्ता लोकसभा अध्यक्ष के जेरे साया रहती है। वह चाहे तो किसी सांसद के सवाल के जवाब में सरकार से जवाब तलबी तक कर सकते हैं। ऐसा संसद में कई बार हुआ है। 1962 से 1967 तक लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकम सिंह थे उनके कार्यकाल के दौरान ऐसे अवसर कई बार आये।

हमारे संविधान निर्माता यह पुख्ता व्यवस्था करके गये कि संसद के भीतर प्रधानमन्त्री की सत्ता नहीं बल्कि लोकसभा अध्यक्ष की सत्ता चले। यही वजह है कि जब लोकसभा में प्रधानमन्त्री भी कुछ बोलने के लिए खड़े होते हैं तो उन्हें इसके लिए अध्यक्ष की इजाजत लेनी पड़ती है। सदन के भीतर लोकसभा अध्यक्ष के सामने प्रधानमन्त्री भी पहले एक सांसद होते हैं और प्रधानमन्त्री बाद में। सांसद होना उनका मूल अधिकार है और प्रधानमन्त्री होना संसद द्वारा दिया गया दायित्व। अध्यक्ष ही सदन के भीतर विभिन्न राजनैतिक दल समूहों को मान्यता प्रदान करते हैं। हाल ही में हमने देखा कि श्री राहुल गांधी को विपक्ष के नेता का संवैधानिक दायित्व अध्यक्ष श्री ओम बिरला ने ही सौंपा। मगर लोकतन्त्र में परंपराओं औऱ प्रथाओं का भी अपना महत्व होता है। नये लोकसभा अध्यक्ष अपने से पुराने अध्यक्षों के फैसलों का हवाला देकर प्रायः व्यवस्था देते रहते हैं। यह नियम इसीलिए माना जाता है जिससे संसद में लगातार तारतम्य बना रहे। दल बदल कानून के 1987 में बन जाने के बाद लोकसभा की संरचना भी प्रभावित हुई है मगर इसमें भी अध्यक्ष की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है। दल बदल कानून की धाराओं के अनुसार किसी पार्टी का दोफाड़ होना या न होना अन्त में अध्यक्ष पर ही इस प्रकार निर्भर करता है कि वह दल बदल कानून की प्रासंगिकता का समालोचन करें। इस मामले में गठबन्धन सरकारों के बनने पर अचानक चर्चा तेज हो जाती है।

वर्तमान मोदी सरकार भी छोटे-छोटे दलों के समर्थन पर टिकी हुई है। इनमें यदि किसी प्रकार की टूट-फूट होती है तो अन्तिम फैसला अध्यक्ष का ही सदन के भीतर माना जायेगा। बेशक इसेे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है जैसा कि हम महाराष्ट्र में हुए दल विभाजन के मामलों मेें देख रहे हैं। बिना शक यह विषय विधी विशेषज्ञों के क्षेत्र का है परन्तु भारत का औसत आदमी पूरे घटना क्रम को इसी नजरिये से देखता है और अध्यक्ष की सत्ता व अधिकारों की समीक्षा करता है। भारत में यह भी कहा जाता है कि अध्यक्ष का पद विक्रमादित्य का आसन होता है। यह पूर्णतः सही उक्ति है। यही वजह है कि जब कोई विपक्ष का सांसद भी अध्यक्ष के आसन पर जाकर बैठता है तो वह अनुशासन विहीन सदस्यों को चुप रहने की हिमायत करने लगता है मगर जब वह खुद सदस्यों में शामिल होता है तो शोर मचाने से बाज नहीं आता। अतः पद की गरिमा व सत्ता दोनों साथ जुड़े हुए प्रश्न हैं।

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