मुठभेड़ों पर उठते सवाल
उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक मुठभेड़ों को लेकर संग्राम छिड़ा हुआ है। इससे पुलिस की कार्यशैली को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं। किसी भी आरोपी को मुठभेड़ बताकर मार डालने की प्रवृति सभ्य समाज में घातक है। अगर आपराधिक मामलों का निर्णय पुलिस स्वयं करने लगे तो देश की अदालतों पर से लोगों का भरोसा ही उठ जाएगा। न्यायपालिका पर से भरोसा उठने का अर्थ अराजकता की ओर ही बढ़ना होगा। मुठभेड़ें पहले भी हुईं और उन पर विवाद भी हुए हैं। बात चाहे विकास दूबे के मारे जाने की हो या 2016 में सिमी के सदस्यों की मुठभेड़ हो। इशरतजहां मुठभेड़, हैदराबाद एनकाउंटर केस, बटला हाऊस मुठभेड़ हो या हाल ही में उत्तर प्रदेश में मंगेश यादव, अनुज सिंह मुठभेड़ और महाराष्ट्र के बदलापुर स्कूल यौन उत्पीड़न मामले के आरोपी अक्षय शिंदे की मौत तक राजनीतिक रोटियां सेंकने में कभी सियासी लोग पीछे नहीं हटे हैं। 1980 के दशक में जब महाराष्ट्र में दाऊद गिरोह और अन्य गिरोहों में वर्चस्व की जंग छिड़ी हुई थी तब पुलिस ने इन गिरोहों का सफाया करने के लिए मुठभेड़ों की शैली अपनाई। इसके बाद अन्य राज्यों की पुलिस ने भी इसी शैली को अपनाया। तब से फर्जी मुठभेड़ों की खबरें आती रही हैं। मुम्बई पुलिस ने एक के बाद एक अंडरवर्ल्ड से जुड़े लोगोें के तबाड़तोड़ एनकाउंटर किए थे।
ऐसे ही मामलों में यह शब्द हमेशा सुनने को मिले-एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग यानि पुलिस ने कानून से परे जाकर हत्याएं कीं। अब मुम्बई हाईकोर्ट ने बदलापुर केस में आरोपी के मुठभेड़ में मारे जाने को लेकर तीखे सवाल किए हैं। अलग-अलग मौकों पर सुप्रीम कोर्ट तक ने पुलिस मुठभेड़ों को गलत ठहराया है। वर्ष 2011 में कोर्ट ने कहा था कि पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ और कुछ नहीं बल्कि निर्दयी हत्या है और इसे अंजाम देने वालों को सजा होनी चाहिए। फर्जी मुठभेड़ों को लेकर कानूनविदों का मानना है कि मुठभेेड़ें शासन की नाकामियों को छिपाने के लिए की जाती हैं। सरकारों को भी यह आसान लगता है और पुलिस को भी वाहवाही मिलती है। न्याय प्रक्रिया में बहुत समय लगता है जबकि इस तरह की ताबड़तोड़ कार्रवाईयां करके पुलिस अपनी नाकामी भी छिपा लेती है और पब्लिक में उसकी अच्छी इमेज भी बन जाती है।
कानूनी जानकारों के मुताबिक संविधान और कानून में एनकाउंटर या फेक एनकाउंटर का तो कोई जिक्र नहीं है लेकिन सीआरपीसी की धारा में पुलिस को आत्मरक्षा का अधिकार दिया गया है। इसके अलावा आईपीसी की धारा भी कई बार एनकाउंटर करने के बावजूद पुलिसकर्मियों का बचाव करती है और उनके खिलाफ हत्या का केस दर्ज नहीं होता है। इस धारा के तहत जब हमलावर की ओर से गंभीर हमले या फिर जान लेने की कोशिश का डर हो तो आत्मरक्षा में घातक बल का भी इस्तेमाल कर सकता है। पुलिस एनकाउंटर में मौत को लेकर कई टिप्पणियों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में एक गाइडलाइन जारी की थी। दरअसल, साल 1999 में सामाजिक संस्था 'पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज' ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। इस याचिका में साल 1995 से 1997 के बीच मुंबई पुलिस द्वारा अंजाम दिए गए 99 एनकाउंटर पर सवाल उठाए गए थे। इन कथित एनकाउंटर में 135 लोगों की मौत हुई थी। लम्बी सुनवाई के बाद साल 2014 में एक आदेश आया। जस्टिस आरएम लोढ़ा और जस्टिस रोहिंटन नरीमन ने 16 बिंदुओं का दिशा-निर्देश जारी किया। कोर्ट ने कहा कि अगर पुलिस एनकाउंटर में मौत होती है तो एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए। इसके अलावा कई और निर्देश दिए गए लेकिन कोर्ट द्वारा जारी नियम और कायदे का पालन होता कहीं नजर नहीं आता।
आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले सात साल में मुठभेड़ यािन एनकाउंटर की 12 हजार से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं। इनमें अब तक 207 अभियुक्त पुलिस की गोली से मारे जा चुके हैं और साढ़े छह हजार से ज्यादा लोग घायल हुए हैं। मुठभेड़ के दौरान या फिर बदमाशों के हमलों में अब तक 17 पुलिसकर्मियों की भी जान गई है और डेढ़ हजार से ज्यादा पुलिसकर्मी घायल हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार अपने फैसलों में ऐसे एनकाउंटरों पर सवाल उठाते हुए कहा है कि न्याय हासिल करना किसी भी नागरिक का मौलिक अधिकार है। अदालत का कहना है कि उन्हें इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
दूसरा पहलू यह भी है कि फर्जी मुठभेड़ों में आरोपियों या अपराधियों के मारे जाने को जनता का बेतहाशा समर्थन मिल रहा है। आम लोगों का कहना है कि अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए अगर किसी को मार भी दिया जाता है तो यह पुलिस का सही कदम है। मुठभेड़ों में आरोपियों को मारने वाली पुलिस पर जनता फूल बरसाती है और उनका जगह-जगह स्वागत भी किया जाता है। कई पुलिसकर्मियों और एसटीएफ के अधिकारियों को वीरता के लिए राष्ट्रपति पदक भी प्राप्त हो चुका है। अनेक पुलिसकर्मियों को पदोन्नति पुरस्कार और सम्मान भी प्राप्त होता है। कानूनी विशेषज्ञ मुठभेड़ों को जनता के समर्थन का अर्थ न्यायपालिका और न्यायिक प्रक्रिया में लोगों का विश्वास कम होने का संकेत मानते हैं। लोकतंत्र में पुलिस और प्रशासन का न्यायिक प्रक्रिया को हाइजैक करना कानूनन गलत है। कानून का शासन लागू करना पुलिस का काम है लेकिन न्याय करना न्यायपालिका का काम है। न्यायपालिका की साख का खत्म होना लोकतंत्र के लिए घातक है। ऐसे में तो लोग कानून को हाथ में लेकर सड़कों पर खुद ‘इंसाफ’ करने लगेंगे और लोकतंत्र अराजक हो जाएगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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