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राहुल गांधी : विपक्षी नेता का रुतबा

06:10 AM Jun 29, 2024 IST
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कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी ने लोकसभा में विपक्ष के नेता का पद ग्रहण करके पिछले दस साल से खाली चले आ रहे उस स्थान को भरा है जिसे संसदीय लोकतन्त्र में छाया प्रधानमन्त्री (शेडो प्राइम मिनिस्टर) कहा जाता है। 2012 में संसद के बारे में छपी एक आधिकारिक पुस्तिका में कहा गया है कि ‘लोकसभा में विपक्ष का नेता छाया प्रधानमन्त्री के समान समझा जाता है जिसका अपना छाया मन्त्रिमंडल होता है जो सत्तारूढ़ सरकार के इस्तीफा देने या लोकसभा में हार जाने के बाद तुरन्त शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने के लिए तैयार रहता है। संसदीय प्रणाली सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच आपसी समझदारी और सामंजस्य से चलती है अतः विपक्ष का नेता प्रधानमन्त्री को सरकार चलाने देता है मगर उसे इसका विरोध करने की इजाजत भी होती है। सदन की कार्यवाही सुबोध तरीके से चलाने में उसकी भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण होती है जितनी की सरकार या सत्ता पक्ष की।’

इससे स्पष्ट है कि लोकसभा में विपक्ष के नेता का किरदार निभाना संसदीय परंपराओं व नियमों के तहत कितना मुश्किल भरा काम हो सकता है। श्री राहुल गांधी ने इस पद पर बैठ कर सिद्ध कर दिया है कि वह 24 घंटे के राजनीतिज्ञ हैं और उनका निजी जीवन एक खुली किताब है। अक्सर संसदीय लोकतन्त्र के बारे में यह भी कहा जाता है कि विपक्ष का काम सरकार के चेहरे से नकाब हटाना (एक्सपोज करना) होता है। सरकार का विरोध करना होता है और यदि संभव हो तो इसे सत्ता से बेदखल करना (डिपोज) होता है। मगर लोकतन्त्र में सरकार का गिरना या मजबूत होना लोकसभा के भीतर सदस्यों का अंकगणित होता है। जिसके पक्ष में अधिक सदस्य होंगे जीत उसी की होगी। वर्तमान 543 सदस्यों वाली लोकसभा में विपक्षी इंडिया गठबन्धन के मात्र 234 सदस्य हैं जबकि सत्तारूढ़ एनडीए के 293 सदस्य हैं। अतः मोदी सरकार मजबूत पाले में खड़ी हुई है मगर विपक्षी सांसदों की संख्या देखते हुए उसे मजबूत विपक्ष का सामना करना पड़ेगा।

राहुल गांधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि वह किस प्रकार विपक्ष के एजेंडे को लोकसभा में मुखर रूप में लाते हैं। उनकी प्रमुख जिम्मेदारी सरकारी नीतियों को लेकर सरकार को एक्सपोज करने की ही रहेगी और संसद के माध्यम से अपने पक्ष में जन समर्थन जुटाने की रहेगी। संसद द्वारा 1977 में बनाये गये कानून के अनुसार उन्हें कैबिनेट स्तर के मन्त्री की सुविधाएं और रुतबा हासिल होगा तथा उनकी मौजूदगी हर उस उच्च स्तरीय चयन समिति में प्रधानमन्त्री के साथ होगी जो सीबीआई निदेशक, सतर्कता आयुक्त, केन्द्रीय सूचना आयुक्त, अल्पसंख्यक आयोग के सदस्यों से लेकर इसके अध्यक्ष, चुनाव आयुक्तों व लोकपाल की नियुक्ति करेगी। इससे साफ है कि राहुल गांधी की जिम्मेदारियां इस कदर बढ़ जायेंगी कि उनके कार्यों पर देश की जनता की निगाह भी 24 घंटे रहेगी। मगर उनकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी विपक्ष के नेता पद की गरिमा को स्थापित करने की होगी क्योंकि पिछली लोकसभा में कांग्रेस के केवल 52 सदस्य होने की वजह से ही इसके नेता अधीर रंजन चौधरी को आधिकारिक तौर पर विपक्ष के नेता का रुतबा नहीं दिया गया था हालांकि विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी होने की वजह से उन्हें विपक्ष के नेता के बराबर मान लिया गया था। इसके अलावा उनकी लोकसभा में छवि एक धीर-गंभीर नेता की न होकर विदूषक जैसी हो गई थी जिसकी बात को सत्तारूढ़ दल हंसी-मजाक में उड़ा देता था।

राहुल गांधी को विपक्ष के नेता की प्रतिष्ठा कायम करनी होगी और इस प्रकार करनी होगी कि वह नियमानुसार छाया प्रधानमन्त्री के रूप में दिखाई दे। पिछले दस साल से मोदी सरकार के रहते लोकसभा में कांग्रेस के कुल लोकसभा शक्ति के दस प्र​ितशत सदस्य जीत न पाने की वजह से विपक्ष के नेता का रुतबा बहुत घटा है। राहुल गांधी की पार्टी द्वारा इन चुनावों में 99 सीटें जीतने के बाद मनोवैज्ञानिक तौर पर सत्तारूढ़ दल दबाव में आया है क्योंकि भाजपा की सीटें 303 से घट कर 240 ही रह गई हैं। अतः राहुल गांधी का मनोबल इस तथ्य से बहुत ऊंचा नजर आयेगा औऱ वह कोशिश करेंगे कि इस लोकसभा में सत्तारूढ़ पार्टी विधेयकों को पारित करते समय धींगा मस्तानी न करें। उनके सामने पहली चुनौती प्रतियोगिता परीक्षाओं के पेपर लीक होने की होगी जिसमें नीट आदि का मसला जुड़ा हुआ है।

इस मुद्दे पर विपक्ष शिक्षा मन्त्री के इस्तीफे की मांग कर रहा है। इसके साथ ही नये तीन भारतीय फौजदारी कानून 1 जुलाई से लागू करने की घोषणा राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में भी कर दी है। ये वे कानून हैं जो संसद के दोनों सदनों में बिना किसी बहस-मुबाहिसे के ही भारी शोर- शराबे में तब पारित कराये गये थे जबकि 146 सांसदों को सदनों से निलम्बित कर दिया गया था।इस मुद्दे पर राहुल गांधी लोकसभा में क्या रुख अपनाते हैं औऱ किस प्रकार देशवासियों को सन्देश देते हैं यह देखने वाली बात होगी। क्योंकि संसद के दोनों सदनों में ही स्वयं संसद सदस्यों ने यह नियम बनाया था कि कोई भी विधेयक शोर-शराबे में पारित नहीं होना चाहिए। इस मामले में कांग्रेस पार्टी का रुख रहा है कि नये भारतीय न्याय संहिता के तीन कानूनों की देश को कोई जरूरत नहीं है क्योंकि पुराने अंग्रेजों के बनाये कानूनों में समय- समय पर संशोधन होते रहे हैं और सैकड़ों कानूनों को निरस्त भी किया जा चुका है।

कांग्रेस के पूर्व गृहमन्त्री व इन कानूनों पर संसद में विचार करने के लिए गठित विशेषज्ञ समिति के सदस्य पी. चिदम्बरम ने कुछ महीने पहले एक लेख लिख कर स्पष्ट किया था कि नई न्याय संहिता को लागू करने से पुलिस व वकीलों से लेकर निचली न्यायपालिका में अराजकता जैसी स्थिति पैदा हो सकती है। राहुल गांधी इस मामले में अब कौन सा नया पैंतरा लोकसभा में चलते हैं इस तरफ सत्तारूढ़ दल का ध्यान रहेगा। राहुल गांधी ने हाल ही में सम्पन्न लोकसभा चुनावों में अपने राजनैतिक विमर्श को जिस प्रकार आम जनता में लोकप्रिय बनाया खास कर बेरोजगारी व अग्निवीर के मुद्दे पर जिस तरह उन्हें देश के युवा वर्ग का समर्थन मिला उससे उनकी छवि कांग्रेस पार्टी एक ‘जन नायक’ की मानने लगी है। अपनी इस छवि को राहुल गांधी तभी मजबूत बना सकते हैं जब विपक्ष के नेता के तौर पर वह लोकसभा में एेसे कारनामें करें जिनसे सत्तारूढ़ सरकार को बगलें झांकने को मजबूर होना पड़ जाये।

इसके अलावा राहुल गांधी भाजपा के समक्ष विचारधारा की लड़ाई की चुनौती भी पेश करेंगे क्योंकि पूरे लोकसभा चुनावों में उन्होंने इस मुद्दे को कस कर पकड़े रखा और साफ कहा कि ‘आइडिया आफ इंडिया’ में साम्प्रदायिक दृष्टिकोण के लिए कोई जगह नहीं है। संसद के भीतर वह इस गंभीर लड़ाई को किस प्रकार प्रस्तुत करते हैं इसका इन्तजार भी सत्तारूढ़ भाजपा को बेताबी से रहेगा क्योंकि भाजपा का राष्ट्रवाद हिन्दुत्व से प्रेरित है। मगर यह तो मानना ही पड़ेगा और लोकसभा चुनावों से यह सिद्ध हो गया है कि राहुल गांधी ने जनता की नब्ज समझने की कला सीख ली है।

अपनी यात्राओं से जो उन्होंने अनुभव प्राप्त किये उनका इस्तेमाल उन्होंने लोकसभा चुनावों में बाखूबी किया। भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है। देश की जनता उन्हें नेहरू व इंन्दिरा गांधी की विरासत की राजनीति का सच्चा हकदार अब मानने लगी है और यहीं से कांग्रेस के पुनरुत्थान की कहानी भी शुरू हो सकती है। बेशक इमरजेंसी का मुद्दा भी राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में उठाया परन्तु कठोर तथ्य यह भी है कि केवल दो साल बाद ही देशवासी इमरजेंसी के जुल्मों को भूल गये थे और उन्होंने पुनः इन्दिरा गांधी के हाथ में लोकसभा की दो तिहाई सीटें दे दी थीं। इसके बाद बीस साल तक कांग्रेस के बूते पर दिल्ली की सरकारें गठित होती रहीं।

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