राजनाथ और जम्मू-कश्मीर
रक्षामन्त्री श्री राजनाथ सिंह भारतीय जनता पार्टी के उदारवादी खेमे के ऐसे नेता हैं जिनकी कथनी और करनी में कभी कोई अन्तर नहीं रहा है और जिन्होंने राष्ट्र हितों को सर्वोपरि रखने में कभी किसी प्रकार की कोताही भी नहीं की है। यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि जब 2014 तक वह भाजपा के अध्यक्ष थे तो उन्हीं के नेतृत्व में पहली बार उनकी पार्टी को लोकसभा में अपने बूते पर पूर्ण बहुमत यानि 282 सीटें प्राप्त हुई थीं। जम्मू-कश्मीर में आजकल चुनाव चल रहे हैं और सिंह ने कल राज्य के रामबन चुनाव क्षेत्र में एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि उनकी पार्टी ने कश्मीर में शान्ति के लिए पूरे प्रय़ास किये थे मगर अलगाववादी समझे जाने वाले संगठनों ने उनसे बातचीत तक करने से गुरेज किया। इस सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि श्री राजनाथ सिंह ऐसे भी नेता हैं जो न केवल पूरे जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते हैं बल्कि कश्मीरियों को भी सच्चा देशभक्त भारतीय नागरिक मानते हैं। वह कई बार अपने भाषणों में इस तरफ इशारा करते हुए साफ कह चुके हैं कि हर कश्मीरी भी हमारा उसी तरह है जिस तरह कश्मीर।
श्री राजनाथ सिंह ने रामबन में याद दिलाया कि 2016 में जब वह देश के गृहमन्त्री थे तो उनके नेतृत्व में एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल घाटी के हुर्रियत कान्फ्रेंस नेताओं से बातचीत करने आया था। इस प्रतिनिधिमंडल में देश के सभी प्रमुख राजनैतिक दलों के संसद सदस्य थे। मगर हुर्रियत कान्फ्रेंस के तत्कालीन अध्यक्ष सैयद अली गिलानी ने उनसे मिलने तक से मना कर दिया था जबकि वह कश्मीर में शान्ति वार्ता का प्रस्ताव लेकर ही आये थे। तब प्रतिनिधिमंडल में शामिल वरिष्ठ नेता शरद यादव व मार्क्सवादी पार्टी के सांसद सीताराम येचुरी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता डी. राजा व राजद के श्री जय प्रकाश नाराय़ण यादव ने गिलानी से निजी तौर पर इकट्ठा मिलने की इच्छा व्यक्त की थी। जब ये लोग मिलने गये तो गिलानी ने अपने घर का दरवाजा तक नहीं खोला। हालांकि तब गिलानी अपने घर में नजरबन्द थे। श्री सिंह के साथ सैयद गिलानी का यह व्यवहार कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत तीनों के ही खिलाफ था। आठ वर्ष बाद श्री सिंह इस घटना की याद दिला रहे हैं तो इसका कुछ मन्तव्य जरूर है। मन्तव्य यही लगता है कि उनकी सरकार ने कश्मीर पर कठोर कदम उठाने से पहले हर संभव कोशिश की कि कश्मीर में लोकतान्त्रिक व्यवहार के दायरे में शान्ति स्थापित हो सके जिसका तरीका केवल बातचीत ही था। मगर बातचीत कभी इकतरफा नहीं हो सकती।
रक्षामन्त्री साफ तौर पर यही सन्देश दे रहे हैं कि कश्मीर में भाजपा की तरफ से शान्ति स्थापित करने के सभी तरीके अपनाये गये थे मगर अलगाववादी ताकतों को यह मंजूर नहीं था औऱ वे अपनी शर्तों को ही सबसे ऊपर रखना चाहती थीं। यहां यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि भाजपा ने राज्य की क्षेत्रवादी समझी जाने वाली पार्टी पीडीपी के साथ मिल कर साढ़े तीन साल तक सरकार भी चलाई जिसकी मुखिया इस पार्टी की सदर महबूबा मुफ्ती थीं। मगर रक्षामन्त्री उदारवादी होने के साथ ही प्रखर राष्ट्रवादी भी हैं अतः वह यह कहने से भी नहीं चूके कि पाक अधिकृत कश्मीर के लोगों को भारत के साथ होना चाहिए क्योंकि भारत कश्मीर के इस हिस्से को अपना ही भाग मानता है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि 26 अक्तूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर रियासत के महाराजा हरि सिंह ने अपनी पूरी रियासत का भारतीय संघ में विलय किया था जिसमें पूरा कश्मीर व बालटिस्तान तक शामिल था। मगर पाकिस्तान ने आजादी मिलते ही 15 अगस्त 1947 के बाद कश्मीर पर हमला किया और अक्तूबर महीने के दूसरे पखवाड़े तक एक तिहाई कश्मीर को अपने कब्जे में ले लिया। इसके खिलाफ भारत राष्ट्रसंघ में इस उम्मीद में गया कि इस विश्व संस्था से उसे यथोचित न्याय मिलेगा क्योंकि सभी सबूत व परिस्थितियां भारत के अनुकूल थीं। भारतीय संघ में तब तक पांच सौ से भी अधिक देशी रियासतों का विलय हो चुका था। परन्तु पाकिस्तान ने कश्मीर विलय को केवल इसलिए विवादास्पद बना दिया क्योंकि इस राज्य की बहु जनसंख्या मुस्लिम थी।
जिस समय भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू कश्मीर विवाद को लेकर राष्ट्रसंघ में गये तो पाकिस्तान तो पक्के तौर पर आक्रमणकारी देश था क्योंकि यह 26 अक्तूबर से पहले एक स्वतन्त्र रियासत कश्मीर के इलाके में घुस आया था। इस तारीख के बाद कश्मीर की स्थिति बदल गई और यह पूरी रियासत भारत का अभिन्न अंग हो गई।अतः भारत की राष्ट्रसंघ से फरियाद बे-बुनियाद नहीं थी। और जब नेहरू जी राष्ट्रसंघ में गये थे तो जनसंघ (अब भाजपा) के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी उनके मन्त्रिमंडल के सम्मानित सदस्य थे। अतः इस मामले में इतिहास का भी साफ होना जरूरी है। श्री राजनाथ सिंह जब यह कह रहे हैं कि पाक अधिकृत कश्मीर भारत का ही हिस्सा है तो यह दीवार पर लिखी हुई इबारत है क्योंकि पाकिस्तान की हैसियत इस मामले में इस इलाके पर जबरन अख्तियार रखने वाले मुल्क से बढ़ कर कुछ और नहीं है। पाकिस्तान इसे विदेशी भूमि मानता है जबकि भारत की यह आधिकारिक रूप से अपनी भूमि है और इसके लोग भी भारत के हैं। यही वजह है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में इस इलाके के लोगों के लिए 24 सीटें खाली रखी गई हैं। इस इलाके के लोगों को पाकिस्तान जिस तरह डंडे से हांकता है और यहां लाकर अपने देश के अन्य प्रान्तों के लोगों को बसाता रहता है उसके खिलाफ भी स्थानीय लोगों का यदा- कदा गुस्सा फूटता रहता है और कभी-कभी भारत समर्थन की अवाजें भी सुनने को मिलती रहती हैं। अतः श्री राजनाथ सिंह की यह आशावादिता गलत नहीं है कि एक दिन ऐसा आयेगा जब पाक अधिकृत कश्मीर के लोग खुद ही भारत में आ मिलेंगे।