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मौत का सत्संग

05:19 AM Jul 04, 2024 IST
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देखते ही देखते हाथरस के गांव में सत्संग स्थल श्मशान बन गया। ‘भोले बाबा’ के दरबार में लाशों का अम्बार लग गया। चारों तरफ चीत्कार ही चीत्कार। भयानक मंजर की तस्वीरें देखकर ही देश दहल उठा। हादसे में अब तक 121 लोगों की जान जा चुकी है, जिनमें अधिकांश महिलाएं और बच्चे हैं। देश में भगदड़ में मौतों की यह पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी इसी तरह के हादसों में सैंकड़ों लोग जान गंवा चुके हैं। महाराष्ट्र के मंधार देवी मंदिर में 2005 में हुई भगदड़ में 340 लोगों की मौत और 2008 में राजस्थान के चामुंडा देवी मंदिर में हुई 250 लोगों की मौत ऐसी ही कुछ बड़ी घटनाएं हैं। हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर में 2008 में ही धार्मिक आयोजन के दौरान मची भगदड़ में 162 लोगों की मौत हो गई थी। धार्मिक आयोजनों में हुई कई घटनाओं में दो दर्जन मौतें तो अनेक बार हो चुकी हैं। हर बार की तरह मौत का मुआवजा घोषित कर दिया गया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जांच के आदेश दे दिए हैं। मुख्यमंत्री ने स्वयं हाथरस पहुंच कर स्थिति का जायजा लिया है।
नारायण सरकार हरि उर्फ भोले बाबा हादसे के बाद से ही लापता है। नारायण सरकार हरि का असली नाम सूरजपाल सिंह है। उसकी पृष्ठभूमि को लेकर अनेक कहानियां हवा में हैं। कहते हैं कि कुछ ही समय में कोट-पैंट, टाई पहनने वाला नारायण सरकार हरि के बड़ी संख्या में अनुयाई बन गए थे। अपने जीवन की समस्याओं और छोटी-मोटी परेशानियों से मुक्ति पाने के लिए धर्म भीरू आम जनता उसके दरबार में पहुंचने लगी थी। धर्म भीरू जनता जीवन चक्र से मोक्ष प्राप्त करने के लिए भी धार्मिक स्थलों और सत्संग में भाग लेती है लेकिन यह कैसा मोक्ष है। यह कैसा मनोविज्ञान है कि आम लोग एक गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले मनुष्य को भगवान बना देते हैं। इधर सत्संग खत्म कर भगवान उठे उधर उनकी चरण रज लेने के लिए लोग आगे बढ़े। इसी भगदड़ में कुछ लोग गिर गए। उसके बाद जो गिरा वो उठ नहीं पाया और भीड़ ऊपर से गुजरती चली गई। चारों तरफ क्रंदन ही क्रंदन सुनाई देने लगा।

अब सवाल यह है कि भारत अंतरिक्ष में छलांगे लगा रहा है। मानव चांद पर पहुंच चुका है। बड़ी से बड़ी उपल​ब्धियां भारतीय हासिल कर रहे हैं लेकिन आज तक भारत और उसकी पुलिस या फिर भीड़ भरे कार्यक्रमों के आयोजक भीड़ प्रबंधन की कला नहीं सीख सके। भारतीय पुलिस आज तक यह समझ ही नहीं सकी कि भीड़ की वजह से चंद पलों में खुशनुमा माहौल कैसे भयावह मंजर में बदल सकता है। भीड़ की सघनता चंद पल में ही बदल सकती है और जब तक हालात खतरनाक लगते हैं तब तक भीड़ इतनी करीब हो चुकी होती है कि किसी व्यक्ति का उसमें से निकल पाना मुश्किल हो जाता है लेकिन खतरे को भांपने के कुछ संकेत होते हैं। इंग्लैंड की सफोक यूनिवर्सिटी में क्राउड साइंस के प्रोफेसर जी. कैथ स्टिल का कहना है कि अगर भीड़ बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रही है, इसका साफ मतलब है कि भीड़ की सघनता बढ़ रही है। भीड़ की आवाज सुनना बेहद अहम होता है, अगर आपको लोगों के असहज होने और संकट की वजह से रोने की आवाज सुनाई दे तो यह संकेत होता कि चीजें कभी भी नियंत्रण के बाहर जा सकती हैं।

पहली बात तो यह है कि आयोजन की अनुमति 80 हजार लोगों की उपस्थिति को लेकर दी गई थी लेकिन वहां ढाई लाख लोग उमड़ आए। गर्मी और उमस भरे मौसम में क्या वहां ढाई लाख लोगों के लिए हवा और पानी की व्यवस्था थी? क्या सेवादरों के अलावा पुलिस जवानों की इतनी व्यवस्था थी कि वह भीड़ का प्रबंधन कर सकें। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने 2014 में एक रिपोर्ट दी थी। रिपोर्ट में भीड़ प्रबंधन से जुड़े लोगों को ट्रेनिंग का सुझाव दिया गया था। रिपोर्ट में पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों को भीड़ के व्यवहार और मनोविज्ञान का अध्ययन और भीड़ प्रबंधन के गुर सीखने के लिए कहा गया था। ऐसी रिपोर्टों को अक्सर ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। जो पुलिस शहरों का ट्रैफिक तक नहीं सम्भाल सकती। भीड़भाड़ भरे पंडालों तक पहुंचने और  निकासी के लिए रूट मैप का स्टीक निर्धारण नहीं कर पाती। उससे क्या उम्मीद रखी जा सकती है। तथाकथित बाबाओं के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। वह महंगी लम्बी गाड़ियों के काफिले में आते हैं और चले जाते हैं। उनसे मानवीय संवेदनाओं की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह जरूरी है कि ऐसे हादसों के लिए पुलिस और प्रशासन की जवाबदेही तय की जाए और दोषियों को दंडित किया जाए तभी कोई उदाहरण स्था​िपत हो सकता है। अन्यथा तथाकथित बाबा अपने पांव की धूल उड़ाते रहेंगे और आम जनता कीड़े-मकौड़ों की तरह कुचली जाती रहेगी।

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