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गठबन्धन में ‘सीट’ बंटवारा

01:24 AM Dec 28, 2023 IST
गठबन्धन में ‘सीट’ बंटवारा

यह निश्चित है कि पूरा भारत अब चुनावी मुद्रा में आ चुका है और देशभर में राजनैतिक सरगर्मियां इसी दृष्टि से लगातार तेज होती जा रही हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं हो सकती कि मुख्य मुकाबला अन्ततः सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के सहभागिता वाले ‘इंडिया गठबन्धन’ के बीच ही होगा। देखने वाली बात केवल यह होगी कि क्या यह मुकाबला सीधे द्विपक्षीय आधार पर होगा अथवा कहीं बहुकोणीय आधार पर बंट जायेगा। मुकाबले को द्विपक्षीय रखने के लिए जिस प्रकार इंडिया गठबन्धन के 28 राजनैतिक दल आपस में सीटों के बंटवारे को लेकर कवायद कर रहे हैं उसी में उनकी जीत-हार का राज छिपा हुआ है। इसके साथ ही भाजपा व इंडिया गठबन्धन के बीच जो जन विमर्श का युद्ध होगा उसमें भी जीत-हार का रहस्य छिपा हुआ होगा। प्रत्यक्ष रूप से इंडिया गठबन्धन में अन्तर्विरोध नजर आते हैं जो तभी विलुप्त हो सकते हैं जबकि इस गठबन्धन के सभी 28 दल किसी एक साझा विमर्श को पकड़ कर भाजपा को घेरने का प्रयास करें। यह साझा विमर्श तभी सतह पर आ सकता है जबकि गठबन्धन में शामिल सभी दल अपने निज हित भुला कर केवल राष्ट्रीय विमर्श पर एकमत हों।
यह राष्ट्रीय ‘साझा जन विमर्श’ मौजूदा राजनैतिक माहौल की उन विसंगतियों से ही उभर सकता है जिन्हें समूचा विपक्ष देश के आमजनों के लिए गौर करने लायक मानता है। अतः इस जन विमर्श को खड़ा करने के लिए भी गठबन्धन के सदस्य दलों को अपने दलगत स्वार्थ छोड़ने होंगे। विशेष कर क्षेत्रीय दलों को राष्ट्र के समक्ष अपने क्षेत्रगत एजेंडे का परित्याग करना होगा और अपने बीच के राष्ट्रीय दल कांग्रेस के सर्व व्यापक एजेंडे को इस प्रकार अपनाना होगा कि एक बारगी उनका निजी अस्तित्व इस एजेंडे में समाहित होता लगे। इसके लिए गठबन्धन को पूरी गंभीरता के साथ एेसे राज्यों व क्षेत्रों को चिन्हित करना होगा जहां वे भाजपा प्रत्याशी के खिलाफ अपना एक साझा प्रत्याशी उतार कर समन्वित रूप से उसके पक्ष में चुनाव प्रचार के लिए एक मंच पर जुट जायें। इस मामले में उत्तर भारत व दक्षिण भारत की राजनैतिक परिस्थियों का अवलोकन भी अलग-अलग पैमानों पर ही करना पड़ेगा। उत्तर भारत में भाजपा बहुत मजबूत स्थिति में रहती है जबकि दक्षिण भारत में यह कर्नाटक के पार होते ही लड़खड़ाने लगती है। दक्षिण के केरल, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु व तेलंगाना में गठबन्धन में शामिल पार्टियों में ही इस प्रकार तालमेल बैठाना होगा कि इनमें से जो भी सबसे अधिक शक्तिशाली दल हो वही विजयश्री का वरण करे।
उत्तर भारत में सबसे बड़ी दिक्कत गठबन्धन के लिए उत्तर प्रदेश में ही आ सकती है जहां के राजनैतिक समीकरण बहुत अधिक उत्तेजक जाति मूलक व व्यग्रकारी हैं। इस राज्य से 80 लोकसभा सांसद जीत कर जाते हैं जिनकी जेब में केन्द्र सरकार को गठित करने की चाबी होती है। यह चाबी भाजपा बड़ी आसानी से भाजपा हिन्दू राष्ट्रावाद का ज्वार पैदा करके अपनी जेब में रख लेती है। पिछले 35 वर्षों से इस राज्य की राजनीति को जाति समूहों के लकवे से ग्रस्त भी कहा जा सकता है जिसमें राष्ट्रबोध के स्थान पर जाति बोध व साम्प्रदायिक बोध ऊंचा चढ़कर बोलता है। गठबन्धन इस राज्य में तभी कुछ कमाल कर सकता है जबकि वह इन संकीर्ण बोधों को तार-तार करते हुए भाजपा के हिन्दुत्व मूलक राष्ट्रबोध के समानान्तर कोई समाज समरसता व आर्थिक बराबरी का व्यावहारिक व प्रत्यक्ष विमर्श गढ़ने में कामयाब हो सके। इसके लिए गठबन्धन में शामिल अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को सबसे बड़ी कुर्बानी देनी होगी और खुले दिल से स्वीकार करना होगा कि वह इस पार्टी के संस्थापक स्व. मुलायम सिंह यादव की जमीनी सच्चाई की राजनीति को वर्तमान परिस्थितियों में अमली जामा पहनाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ेगी और ग्रामीण व मुस्लिम समाज के समक्ष बड़ा दिल करने में ही अपना हित ढूंढेगी आगामी वर्ष के अप्रैल महीने में होने वाले लोकसभा चुनाव कोई साधारण चुनाव नहीं कहे जा सकते क्योंकि इन चुनावों में भारतीय राष्ट्र की परिकल्पना के भीतर इसके नागरिकों की निजी आर्थिक सुदृढ़ता के साथ सामाजिक सौहार्द के मुद्दे हर मोड़ पर आम नागरिकों को उद्वेलित रखेंगे। इसीलिए गठबन्धन का जो भी साझा जन विमर्श निखरेगा वह भारत के लोगों में राजनैतिक चेतना का आधार स्तम्भ इस प्रकार बनेगा कि लोग स्वयं ही दो पक्षीय मुकाबले के लिए तैयार लगेंगे और इन दोनों पक्षों के बीच जो भी कोई तीसरी शक्ति दखलन्दाजी करने की कोशिश करेगी उसे लोग स्वयं ही नजरअन्दाज कर देंगे। अतः भाजपा के एक प्रत्याशी के खिलाफ एक विपक्षी प्रत्याशी खड़ा करने का फार्मूला यही नजरिया देगा।
लोकतन्त्र की विशेषता यह होती है कि यह कभी भी यथा- स्थितिवाद का समर्थक नहीं होता और सत्तारूढ़ दल तक से बदलाव या परिवर्तन की तवज्जो रखता है। भाजपा के नेता प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की निजी लोकप्रियता के आगे विपक्ष की बेचारगी तो नजर आती है मगर वह उनके खिलाफ अपना कोई प्रधानमन्त्री का चेहरा देकर भाजपा के चक्रव्यूह में फंसना भी नहीं चाहता है और इसकी काट संसदीय प्रणाली में होने वाले चुनावों के भीतर की व्यवस्था से ही निकालना चाहता है। इसमें कोई बुराई भी नहीं है क्योंकि अन्ततः मतदाता चुनाव तो एक संसद सदस्य का ही करते हैं और लोकसभा में किसी पार्टी के सांसदों को अधिक संख्या में जिताकर उसे बहुमत प्रदान करते हैं। यहां इस पचड़े में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है कि पिछले लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने भाजपा को केवल 37 प्रतिशत मत ही दिये थे और 63 प्रतिशत मत अन्य दलों को दिये थे। वैयक्तिक आधार पर हार-जीत का फैसला होने की पद्धति के चलते कांग्रेस पार्टी भी 1967 में 37.6 प्रतिशत मत लेकर ही सत्ता में आयी थी और उसके बाद केवल 1984 में ही इसका मत प्रतिशत 50 से कुछ कम रहा था।

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Aditya Chopra

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