शर्मनाक और खौफनाक
देश में क्रूर बलात्कार और महिलाओं की हत्या तक लगातार हो रही एक के बाद एक घटनाएं चीख-चीख कर कह रही हैं कि यौन हिंसा का बढ़ता संकट केवल भयावह आंकड़ों की शृंखला नहीं है यह एक गम्भीर त्रासदी है और यह देश में व्यवस्थागत पतन के साफ सबूत हैं। ऐसे लगता है आज देश में महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। न तो गली के नुक्कड़ पर, संकरे मोहल्लों के घरों में, अस्पताल के परिसर में, सड़कों के फुटपाथ पर भूखे दरिन्दे महिलाओं को नोचने को तैयार रहते हैं। कौन सी युवती, कौन सी छात्रा, डॉक्टर हो या ऑफिस में काम करने वाली महिलाएं कब किस समय हवस के भूखे भेड़ियों का शिकार हो जाएं कुछ कहा नहीं जा सकता। बलात्कार की बढ़ती घटनाएं एक विनाशकारी सत्य को उजागर करती हैं। क्या देश की संस्थाएं पूरी तरह से विफल हो चुकी हैं। कोलकाता के अस्पताल में महिला डॉक्टर से रेप और मर्डर मामले पर जन आक्रोश अभी शांत ही नहीं हुआ कि उसके बाद भी लगातार ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं। अब तो देश की सुरक्षा के लिए हर वक्त तैयार रहने वाले जवान भी सुरिक्षत नहीं हैं। इंदौर और उज्जैन की सड़कों पर महिलाओं से बलात्कार की घटनाएं सामने आने के बाद अब मध्य प्रदेश के महु इलाके से बेहद शर्मनाक और चिंता पैदा करने वाली खबर सामने आई है, जिससे सबका खून खौलना स्वाभाविक है।
महु के इन्फैंटरी स्कूल में यंग ऑफिसर्स कोर्स कर रहे लेफ्टिनेंट रैंक के दो युवा अधिकारी अपनी दो महिला िमत्रों के साथ महु के पास पर्यटन स्थल जामगेट में पिकनिक मनाने गए थे कि आधा दर्जन से ज्यादा बदमाशों ने उन पर हमला बोलकर न केवल उन्हें लूटा बल्कि एक महिला मित्र को बंधक बनाकर उसके साथ सामूहिक बलात्कार भी किया। इतना ही नहीं एक अफसर और उसकी महिला मित्र को बंधक बनाकर उनसे 10 लाख की फिरौती भी मांगी। एक अफसर और उसकी महिला मित्र को 10 लाख रुपए लाने के लिए उन्हें छोड़ा। तब भागकर दोनों ने अपने आर्मी यूनिट को सूचना दी। जब पुलिस दल-बल समेत मौके पर पहुंची तो बदमाश भाग निकले। महु और चोरल क्षेत्र में रेप और लूटपाट की कई घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं लेकिन बदमाशों पर कोई नकेल नहीं कसी जा सकी। जाम गेट के मुख्य मार्ग से आधा किलोमीटर अन्दर प्रतिबंधित क्षेत्र फील्ड फायरिंग रेंज है। फिर भी यहां लुटेरे सक्रिय रहते हैं। अगर देश में आर्मी अधिकारी और उनकी महिला मित्र ही सुरक्षित नहीं हैं तो देश की बेटियों की सुरक्षा कौन करेगा। कानून लागू करने वाली पुलिस और अन्य संस्थान अक्षम हो चुके हैं। बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार आैर व्यापक राजनीतिक हस्तक्षेप हर मोड़ पर पीड़ितों को धोखा देते हैं, जिससे वे असहाय हो जाते हैं। जाति और सत्ता की गतिशीलता भी उतनी ही भयावह है-दलित महिलाएं अकल्पनीय हिंसा सहती हैं, उनके उत्पीड़कों को जाति पदानुक्रम द्वारा संरक्षित किया जाता है जो दंड से मुक्ति को कायम रखता है। बड़े पैमाने पर युवा बेरोज़गारी हताशा और आक्रामकता के एक अस्थिर मिश्रण को बढ़ावा देती है जो यौन हिंसा के बर्बर कृत्यों में बदल जाती है। शायद सबसे भयावह सांस्कृतिक और पितृसत्तात्मक मानदंड हैं जो महिलाओं को पुरुष वर्चस्व की वस्तु मात्र बना देते हैं व हिंसा की इस महामारी को कायम रखते हैं। जब तक हम इन जड़ जमाए हुए पूर्वाग्रहों का तत्काल सामना नहीं करेंगे, तब तक भारत के शहरों और गांवों में महिलाएं डर में जीती रहेंगी। यह भयावहता हमले से कहीं आगे तक फैली हुई है-यह पीड़ित के इर्द-गिर्द मौजूद लोगों की सामूहिक विफलता है जो वास्तव में भयावह है। यह घटना हमें एक परेशान करने वाले सवाल का सामना करने के लिए मजबूर करती है। क्या हम हिंसा के प्रति इतने सुन्न हो गए हैं कि हमने अपनी मानवता खो दी है? बलात्कारी निस्संदेह अपराधी हैं, लेकिन वे मूक गवाह भी अपराधी हैं जो इस अत्याचार के दौरान स्तब्ध और उदासीन खड़े रहे। हर हाई प्रोफाइल बलात्कार मामले के बाद होने वाले आक्रोश की लहरों के बावजूद चाहे 2012 का दिल्ली सामूहिक बलात्कार हो या मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में हाल ही में हुई भयावह घटनाएं महिलाओं की सुरक्षा के लिए आवश्यक व्यवस्थागत बदलाव स्पष्ट रूप से अनुपस्थित हैं। सोशल मीडिया पर सार्वजनिक आक्रोश एक खोखली रस्म बन गया है, जो वास्तविक दुनिया में कार्रवाई को प्रेरित करने में विफल रहा है। यह पहचानने का समय आ गया है कि हमारा कर्त्तव्य सोशल मीडिया पर आक्रोश व्यक्त करने से कहीं आगे है। यह कमज़ोर लोगों की रक्षा करने और इस संकट का सामना करने के लिए वास्तविक, ठोस कार्रवाई की मांग करता है। सार्थक हस्तक्षेप के बिना प्रत्येक दिन महिलाओं की स्वतंत्रता, उनकी सुरक्षा और अक्सर उनकी जान चली जाती है।
2012 के िनर्भया कांड के बाद कानूनी सुधारों और कठोर दंड के प्रावधान किए जाने के बावजूद कोई परिवर्तन नहीं आया। भारत में हर घंटे में तीन महिलाएं रेप का शिकार होती हैं। रेप के मामले में 100 में से 27 व्यक्तियों को सजा होती है। बाकी सब छूट जाते हैं। 2022 में देश में 4.45 लाख से ज्यादा रेप के मामले दर्ज किए गए थे, यानि हर दिन 1200 से ज्यादा मामले। कोई भी राज्य इससे अछूता नहीं है। पिछले 24 साल में केवल 5 दुष्कर्मियों को ही फांसी की सजा िमली है। 2004 में धनंजय चटर्जी को 1990 के बलात्कार मामले में फांसी दी गई थी, जबकि 2020 में िनर्भया के चार दोषियों मुकेश, विनय, पवन और अक्षय को ितहाड़ जेल में फांसी दी गई थी। बलात्कार का संकट पूरी दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा को नुक्सान पहुंचा चुका है। अब भी समय है कि महिलाओं की सुरक्षा में व्यवस्थागत कमियों को दूर करने के लिए हस्तक्षेप किया जाए। क्या हमें इस्लािमक देशों की तरह गोली मारने से लेकर िसर कलम करने और चीन की तरह दोषियों को नपुंसक बनाने की सजा का अनुसरण करना चाहिए? भारत इस्लामी देश नहीं हो सकता, तो फिर हमें ऐसा निकाय बनाना होगा जो महिलाओं की सुरक्षा को समर्पित हो।