शहनाई का खत उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के नाम
प्रिय बिस्मिल्लाह,
तुम्हें इस दुनिया से गए 18 बरस हो चुके और इन 18 बरसों में तुम्हारे जाने के बाद जो मैंने महसूस किया वो तुमसे साझा करना चाहती हूं। मात्र 3 साल की उम्र में तुम्हारे नन्हें हाथों ने जब पहली बार मुझे थामा तो मुझे एहसास हो चुका था कि मैं तुम्हारे साथ पूरे ब्रह्मांड के दर्शन करूंगी। मेरी और तुम्हारी यात्रा 9 दशकों तक साथ रही और कई पड़ावों से गुज़री, आज़ाद भारत के पहले भी और आज़ादी के बाद भी। स्वाधीनता की पहली किरण के साथ जब मन प्रफुल्लित हो उठा, आकाश में जब इंद्रधनुष ने शहनाई के सभी स्वरों का स्वागत किया, लाल किले की प्राचीर से जब राग काफी की गूंज पूरी दुनिया ने सुनी मैं तुम्हारे साथ थी। उसके साथ ही एक मुसलसल सिलसिला शुरू हुआ, हर साल 15 अगस्त की सुबह का आगाज़ हमारी मौजूदगी से ही होता रहा और गणतंत्र दिवस पर भी शहनाई की मीठी धुनों ने उन ऐतिहासिक पलों को हमेशा के लिए ख़ुद में समेट लिया।
हमने आज़ादी के स्वर्ण युग का जश्न भी साथ मनाया पर अफ़सोस हम आज़ादी के अमृत महोत्सव में शामिल न हो सके और शायद देश भी हमारे योगदान को तब तक भुला चुका था। शायद तुम्हारी बूढ़ी कांपती उंगलियों से निकले स्वर, उन कानों तक नहीं पहुँच सके जो अक्सर हर शुभ अवसर में, हर प्रायोजन में हमें बुलावा भेजा करते थे। शायद तुम मुझे भी अपने साथ ले गए और मैं फिर से उसी दौर को जीने को मजबूर हूं, जो गुमनामी में पहले जिया करती थी। मुझे तुमने जो मान दिया मैं उसके लिए सदा के लिए तुम्हारी आभारी हो गई। घर की ड्योढ़ी और आंगन से निकालकर तुमने मुझे कैसे सातवें आसमान पर बैठा दिया और पूरे विश्व को शहनाई की स्वर लहरियों से गुंजायमान कर दिया इसका कोई सानी नहीं है। तुमने मुझे साधारण से असाधारण बना दिया। लोग कहते हैं कि मैं शादियों की शहनाई हूं, पर तुम्हारी उंगलियों ने मुझे आध्यात्म की आवाज़ बना दिया। मंदिर की सीढ़ियों पर, गंगा के किनारे, तुम्हारे साथ मैंने मोक्ष की ध्वनि भी गुंजाई।
तुम्हारी हर तान में, मैं तुम्हारे दिल की धड़कन को महसूस कर सकती थी। तुमने मुझे बस एक वाद्य यंत्र नहीं समझा, बल्कि एक जीवित साथी के रूप में अपनाया। तुम्हारे बिना मेरा अस्तित्व अधूरा सा लगता है।
मुझे दु:ख होता है जब सोचती हूं कैसे बाबा काशी विश्वनाथ के प्रति तुम्हारी अपार श्रद्धा थी और जब भी तुम काशी से बाहर रहते थे तब काशी स्थित बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुंह करके बैठते थे। काशी में संगीत आयोजन की एक प्राचीन एवं अद्भुत परंपरा थी लेकिन बिस्मिल्लाह बाबा विश्वनाथ के जीर्णोद्धार में तुम्हें और मुझे भुला दिया गया।
तुम्हारे जाने के बाद, मेरी आवाज़ में वह जादू भी नहीं रहा। मुझे बजाने वाले तो कई हैं, पर तुम्हारी वो ख़ास बिस्मिल्लाह की तान अब कोई नहीं छेड़ता। वो कजरी, वो चैती अब कहीं सुनाई नहीं पढ़ती। मुझे लगने लगा है मैं भी तुम्हारे साथ उसी रोज़ दफ़न हो गई थी जिस रोज़ फातमान दरगाह पर तुम्हारी मज़ार को पूरा करने पर राजनीति होने लगी। उसे पूरा होने में दस साल लग गए और ये दस साल मेरे लिए किसी कैदखाने से कम नहीं थे।
मुझे एहसास हुआ कि ये दुनिया चढ़ते सूरज को ही सलाम करती है, बुझ जाने के बाद सब एक लौ की तरह ही याद आते हैं। जिस बिस्मिल्लाह ने शहनाई को दुनिया के मानचित्र पर बनारस, के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया, जिस बिस्मिल्लाह से बनारस के घाटों की हर सुबह शहनाई की गूंज से सरोबार होती थी, जिस बिस्मिल्लाह ने ताउम्र गंगा-जमुनी तहजीब की बेजोड़ मिसाल कायम की, उसी बिस्मिल्लाह को सब इतनी जल्दी भूल गए यह भी भारत रत्न मिलने जैसे ही अनुभव होता होगा शायद?
तुम्हारे बिना, मैं खोई-खोई सी रहती हूं। मैं इंतजार करती हूं, शायद किसी दिन तुम फिर से आओ और दालमंडी के हड़हा सराय का बाठ देखता तुम्हारा मकान फिर से बैठकों के उस दौर से जीवंत हो उठे जो तुम अपने संगी साथियों के साथ जिया करते थे। इस मकान में कभी कभार दूर-दराज़ से कोई राहगीर चले आते हैं देखने की भारत रत्न कैसे रहा करते थे। तुम कैसे अपनी संगीत साधना से बिना किसी लाग लपेट के देश का गौरव बन बैठे और देश के सभी सर्वोच्च सम्मान पाकर भी लेशमात्र न इतराए। सही मायनों में भारत रत्न भारत का गौरव इसे ही कहते हैं शायद? बिस्मिल्लाह तुम भारत रत्न के सही मायनों में पैरोकार हो।
आज तुम्हारी पुण्यतिथि पर सब तुम्हें याद करेंगे, तुम्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करेंगे लेकिन शायद इस धरोहर की ओर फिर किसी का ध्यान न जाएगा। लेकिन मैं ये सोचकर ही गौरवान्वित हो उठती हूं कि जब भी देश में सांझी संस्कृति की बात होगी, तब उस्ताद बिस्मिल्लाह की बात होगी, जब भी शहनाई का ज़िक्र होगा, उस्ताद ही ज़हन में होंगे, जब भी बनारस का नाम लिया जाएगा उस्ताद का नाम सर्वोपरि होगा, जब भी माँ गंगा को पुकारा जाएगा उस्ताद बहती नदी की तरह उसमें शामिल होंगे....और मैं तुम्हारी इन सभी यादों में बहती धारा की तरह सदा मुश्तमिल (शामिल) रहूंगी।
-सविता आनंद