सीतारमण का सम्यक बजट
वित्त मन्त्री निर्मला सीतारमण के केन्द्रीय बजट को बहुत से आर्थिक पंडित यथास्थिति का बजट कह रहे हैं। इसकी वजह यह मानी जा रही है कि श्रीमती सीतारमण ने सोने-चांदी और मोबाइल फोन को तो सस्ता कर दिया है मगर निजी आयकर ढांचे को लगभग यथावत रखा है और आम आदमी की क्रय शक्ति में वृद्धि करने का कोई प्रयास नहीं किया है। वर्ष 2024-25 के बजट में सरकार की सकल प्राप्तियां लगभग 32 लाख करोड़ रुपए की होंगी जबकि खर्च 48 लाख करोड़ रुपए के लगभग का होगा। यदि हम भारत के प्रख्यात आर्थिक व राजनीतिक विद्वान आचार्य चाणक्य की बात करें तो उन्होंने अपनी पुस्तक ‘कौटिल्य के अर्थ शास्त्र’ में ईसा से तीन सौ साल पहले ही लिख दिया था कि राजा को अपनी प्रजा से कर उसी अनुपात में वसूलना चाहिए जिस प्रकार मधुमक्खियां विभिन्न पुष्पों के पराग से शहद का निर्माण करती हैं। देश के मध्यम वर्ग के लोगों को उम्मीद थी कि चालू वित्तीय वर्ष के बजट में निजी आयकर ढांचे में इस प्रकार परिवर्तन हो सकता है जिससे लोगों में अधिकाधिक आय अर्जित करने की भावना प्रबल हो।
बजट में 15 लाख रुपए वार्षिक से अधिक कमाने वाले लोगों पर आयकर की दर 30 प्रतिशत ही रखे जाने से आभास होता है कि सरकार इस मोर्चे पर किसी प्रकार का जोखिम मोल लेना नहीं चाहती है। इस संदर्भ में हमें रुपये की क्रय शक्ति का मूल्यांकन करना होगा। जाहिर है कि रुपये की क्रय शक्ति में लगातार गिरावट आ रही है जिसके परिणामस्वरूप महंगाई भी बढ़ रही है। वित्तमन्त्री ने महंगाई के मुद्दे को बहुत संक्षिप्त रूप से ही अपने बजट भाषण में छुआ। इसी प्रकार रेलवे की स्थिति के बारे में वक्तव्य देते हुए वित्तमन्त्री ने बढ़ती रेल दुर्घटनाओं को देखते हुए इसकी सुरक्षा के बारे में भी बात करना उचित नहीं समझा। मगर बेरोजगारी के मोर्चे पर उन्होंने कुछ ठोस उपाय करने की जरूर वकालत की है और युवाओं के लिए प्रशिक्षु स्कीम शुरू करने की घोषणा की है। इसके तहत बेरोजगार युवाओं को सुनिश्चित अहर्ता के साथ विभिन्न कम्पनियों में एक वर्ष के लिए नौकरी पर रखा जायेगा जिसमें उन्हें पांच हजार रुपए मासिक वेतन मिलेगा जिससे उनके भविष्य के लिए पक्की नौकरियों का दरवाजा खुल सके। देखने वाली बात होगी इनमें से कितनों को बाद में पक्की नौकरी मिलेगी। सीएम आईई के सर्वेक्षण के आसार फिलहाल देश में 9.2 प्रतिशत की बेरोजगारी दर है।
भारत के सन्दर्भ में कृषि क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है क्योंकि इसमें आज भी 48 प्रतिशत लोगों को रोजगार मिलता है। कृषि क्षेत्र का विकास समूचे भारत के विकास की गारंटी भी माना जाता है क्योंकि इसका असर सकल राष्ट्रीय विकास पर पड़ता है। इस क्षेत्र के कर्णधार पिछले कुछ वर्ष से मांग कर रहे हैं कि उनकी उपज के मूल्य को कानूनी जामा पहनाया जाये। वित्तमन्त्री ने न्यूनतम समर्थन मूल्य का जिक्र तो किया मगर इसके कानूनी स्वरूप के बारे में कुछ नहीं कहा। वित्तमन्त्री ने कृषि क्षेत्र के लिए अपने कुल खर्च बजट में 3.15 प्रतिशत धनराशि आवंटित की है। इस धनराशि को इसलिए कम माना जा रहा है क्योंकि 2019-20 के ही बजट में यह धनराशि 5.44 प्रतिशत थी। फिर भी ग्रामीण विकास के लिए जो धन आवंटित किया गया है उसमें से कुछ धनराशि कृषि क्षेत्र पर भी खर्च होगी। किसी भी देश के सम्यक विकास में स्वास्थ्य व शिक्षा क्षेत्र का बहुत महत्व होता है। वित्तमन्त्री ने इन क्षेत्रों में अधिक धन खर्च करने का तो ब्यौरा दिया है और शिक्षा ऋण को भी चालू रखा है मगर पहले से दिये गये शिक्षा ऋणों की वापसी न होने से वह बची रहीं। भारत में बेरोजगारी को देखते हुए शिक्षा के लिए पहले से ही कर्ज लिये छात्र इस ऋण का ब्याज चुकाने में असमर्थ हैं जिसकी वजह बेरोजगारी ही है।
इस सन्दर्भ में विपक्षी दलों ने हाल में ही सम्पन्न लोकसभा चुनावों में भी इसे एक मुद्दा बनाया था। उनकी मांग थी कि शिक्षा ऋणों को एक बारगी में माफ किया जाना चाहिए। वास्तविकता तो यह है कि शिक्षा व स्वास्थ्य में किया गया खर्च दीर्घकालीन निवेश होता है क्योंकि शिक्षित और स्वस्थ नागरिक ही देश का सर्वांगीण विकास करते हैं। इसी प्रकार मजदूरों का भी इस विकास में महत्वपूर्ण योगदान होता है। पिछले छह सालों से इनकी मजदूरी एक जगह अटकी हुई है। बढ़ती महंगाई को देखते हुए और रुपये की क्रय शक्ति कम होने की वजह से इसमें भी वृद्धि होनी चाहिए। मगर यह स्वीकार करना पड़ेगा कि बजट में आन्ध्र प्रदेश व बिहार के लिए आर्थिक मदद का पुख्ता इन्तजाम श्रीमती सीतारमण ने किया है जिसे विपक्षी दल सरकार बचाये रखने की तदबीर कह रहे हैं। वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि इन दोनों राज्यों को आर्थिक मदद की सख्त जरूरत है। वैसे जरूरत पंजाब व उत्तर प्रदेश समेत विभिन्न अन्य राज्यों को भी है क्योंकि जीएसटी प्रणाली आने के बाद से राज्यों के वित्तीय अधिकार बहुत सीमित हो गये हैं। इसी वजह से जरा सी भी आपदा आने पर हम केरल से लेकर हिमाचल व उत्तराखंड आदि राज्यों का कराहना सुनते रहते हैं। निर्मला जी के बजट से निश्चित रूप से यह आवाज निकलती है कि सरकार का ध्यान देश की समस्याओं की तरफ है। मगर हमें ध्यान रखना चाहिए कि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था आर्थिक क्षेत्र में सरकार की भूमिका बहुत सीमित कर देती है। मगर लोकतन्त्र में कोई भी सरकार जनता के प्रति ही संसद के माध्यम से जवाबदेह होती है। अतः बजट पर जब संसद में चर्चा होगी तो हमें बजट के सभी पक्षाें को समझने में और आसानी होगी। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है कि एनडीए की सरकार ने अपनी स्थिरता को ध्यान में रखकर जो बजट दिया है वह राजनैतिक दृष्टि से इस गठबन्धन के घटक दलों को लुभाने वाला है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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