छत्रपति शिवाजी महाराज का समाजवादी स्वरूप
महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी महाराज की 35 फुट ऊंची मूर्ति के केवल आठ महीने के भीतर ही तेज हवाओं के चलने से ध्वस्त हो जाने पर जो राजनैतिक गर्मी पैदा हुई है उसके कई आयाम हैं। यह मामला अब केवल महाराष्ट्र का नहीं रहा है बल्कि राष्ट्रीय स्तर का हो गया है। इसका कारण यह है कि शिवाजी किसी हिन्दू राष्ट्र के प्रतीक नहीं थे बल्कि वह ‘स्वराज’ या स्वराष्ट्र के द्योतक थे। उनके बहादुरी के कारनामें केवल किसी मुस्लिम साम्राज्य का विरोध न होकर लोगों के स्वराज की आकांक्षा के प्रतीक माने जाते हैं। वह हिन्दू रूढ़ीगत राज करने की वर्णाश्रम परंपरा के विरुद्ध जनता के बीच से उसकी शक्ति के राजा माने जाते हैं। उनका सम्बन्ध हिन्दू वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार किसी क्षत्रिय वंश में पैदा होने पर ही राजा बनने के अधिकार से नहीं जुड़ा था बल्कि वह आम जनता के अधिकारों से जुड़ा हुआ था।
महाराष्ट्र की परंपरा के अनुसार उन्हें ‘कुनबी’ भी माना जाता है जिसका सम्बन्ध कृषि या खेती पर निर्भर रहने वाली जातियों से होता है। समाजवादी चिन्तक व जन नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने उन्हें जनता का एेसा राजा कहा है जिसने आम खेतीहर लोगों को ही प्रशिक्षित कर अपनी सेना का निर्माण किया था। हकीकत यह है कि अंग्रेज इितहास कारों ने उन्हें एक छापामार लुटेरे या फौजी की तरह वर्णित किया हुआ था। जब 1932 में डा. लोहिया जर्मनी से राजनीति शास्त्र व अर्थशास्त्र में डाक्टरेट की उपाधि लेकर लौटे तो उन्होंने भारतीय इतिहास का सूक्ष्म वैज्ञानिक अध्ययन किया। उसमें उन्होंने पाया कि अंग्रेज जिन शिवाजी को छापामार लुटेरा कह कर निरुपित कर रहे हैं वह वास्तव में अपने समय का स्वदेशी जनता का महानायक था जिसने अपना पूरा जीवन भारतीयों को अपना वाजिब हक दिलाने में लगा दिया।
उन्होंने राजाशाही के दौरान लोकतान्त्रिक तरीके से अपनी सरकार चलाने का प्रयोग ‘अष्ट प्रधान’ परिपाठी से किया जिसके अंतर्गत अलग-अलग प्रमुख विभागों के आठ मन्त्री होते थे जो राजा को सम्बन्धित मामलों पर अपनी राय देते थे। इसके साथ ही शिवाजी महाराज अकबर के बाद एेसे राजा हुए जो पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष थे और अपनी सेना तक में उन्होंने एक ‘पठान ब्रिगेड’ गठित की थी। उनके राज में मुसलमानों को अपने धर्म के अनुसार जीवन जीने की पूरी छूट थी और इसाइयों के प्रति भी उनका यही नजरिया था।
अतः पुराने संसद वन में उनकी प्रतिमा लगाई गई थी। इतना ही नहीं पचास के दशक में प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने भी उनकी आदमकद का प्रतिमा अनावरण महाराष्ट्र में ही किया था। डा. लोहिया ने उन्हें एक लोकतान्त्रिक राजा बताया और अंग्रेजों को मजबूर किया कि वे शिवाजी महाराज की छवि को दुरुस्त करें। यह कार्य किसी हिन्दू संगठन के नेता ने नहीं किया बल्कि एक समाजवादी चिन्तक व नेता द्वारा किया गया। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि डा. लोहिया उनके व्यक्तित्व से कितने प्रभावित थे और उन्हें भारत का महानायक मानते थे। अतः शिवाजी का मामला केवल महाराष्ट्र तक सीमित नहीं है बल्कि इसकी गूंज भारत भर में है। शिवाजी की मूर्ति केवल आठ महीने के भीतर ही ध्वस्त होने के कारणों की जांच हो रही है और मूर्ति बनाने वाले कलाकार को भी गिरफ्तार कर लिया गया है मगर बात केवल जांच की नहीं है बल्कि उन स्थितियों की है जिनकी वजह से एेसी घटना घटी।
महाराष्ट्र में शिवसेना (शिन्दे गुट) व भाजपा की मिलीजुली सरकार है। इस सरकार ने आनन- फानन में आदेश देकर केवल तीन महीनों के भीतर मूर्ति बनाने का ठेका दे दिया जिससे लोकसभा चुनावों से पहले प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी इसका उद्घाटन कर सकें। जाहिर है कि मूर्ति बनाने के विविध स्थापित नियमों को ताक पर रखा गया होगा जिसकी वजह से जैसे-तैसे मूर्ति बन कर तैयार हो सके। मगर तब यह विचार नहीं किया गया कि जिस महानायक की मूर्ति बनाई जा रही है उसके साथ इस प्रकार किया गया कृत्य न्यायपूर्ण होगा कि नहीं। राज्य में अब नवम्बर महीने तक विधानसभा चुनाव होने हैं जिनमें शिवाजी की प्रतिमा एक बहुत बड़ा मुद्दा पहले से ही बन चुका है। जाहिर है कि विरोधी दल विशेषकर शिवसेना, कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस इसे प्रमुख चुनावी मुद्दा बनायेंगे क्योंकि शिवाजी हर जाति, धर्म के मराठी के लिए बहुत बड़ा भावुक मुद्दा है। खास कर राज्य की प्रमुख क्षेत्रीय पार्टी शिवसेना का जन्म ही शिवाजी महाराज की विरासत पर ही हुआ है। हालांकि शिवसेना का जन्म जब 1966 में हुआ था तो यह मुम्बई में दक्षिण भारतीयों का विरोध करती थी।
स्व. बाला साहेब ठाकरे ने मुम्बई में ही दक्षिण भारतीयों के विरोध के नाम पर अपनी पार्टी के पैर जमाये थे। बाद में यह मुम्बई में उत्तर भारतीयों का भी विरोध भी करने लगी। मराठी अस्मिता के नाम पर यह पार्टी धीरे-धीरे महाराष्ट्र में फैलती गई और बाद में इसमें हिन्दुत्व भी जुड़ गया। जिस हिन्दुत्व को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी सत्तर के दशक तक इस राज्य में नहीं फैला सका था उसे शिवसेना के लड़ाकू तेवरों ने फैला दिया और अस्सी के दशक में भारतीय जनता पार्टी ने इससे हाथ मिलाया और अपनी राजनैतिक ताकत शिवसेना के कन्धे पर बैठ कर बढ़ाई। मगर बाला साहेब की मृत्यु के बाद शिवसेना की राजनीति में परिवर्तन आया और 2019 में बाला साहेब के पुत्र उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में इसने कांग्रेस से हाथ मिला कर सरकार तक बनाई।
वस्तुतः आज की शिवसेना को राजनीतिक समीक्षक शिवाजी महाराज के पद चिन्हों पर चलने वाली शिवसेना मानते हैं। वास्तव में शिवाजी महाराज पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष थे जिसका गवाह 1676 के करीब उनका औरंगजेब को लिखा वह पत्र है जो उन्होंने हिन्दुओं पर जजिया कर लगाने के विरोध में लिखा था। इसमें शिवाजी ने अपने तर्कों से सिद्ध कर दिया था कि जजिया लगाना पाक कुरान शरीफ की हिदायतों के खिलाफ है क्योंकि ईश्वर एक ही है जिसके नाम अलग-अलग हो सकते हैं। मन्दिर में घंटा भी उसी तक अावाज पहुंचाने के लिए बजाया जाता है औऱ मस्जिद में अजान भी उसी तक पहुंचाने के लिए की जाती है। महाराष्ट्र की वर्तमान लोकतान्त्रिक राजनीति में भी शिवाजी महाराज आजादी के बाद से हमेशा प्रासंगिक बने हुए हैं जिसका श्रेय निश्चित रूप से किसी हिन्दू संगठन को नहीं बल्कि समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया को देना होगा। उनसे पहले किसी का भी ध्यान शिवाजी के लोकतान्त्रिक जननायक स्वरूप पर नहीं गया था। शिवाजी के इतिहास का गहन अध्यन करके उन्होंने ही अंग्रेजों को चेताया था।
- राकेश कपूर