पंजाब-हरियाणा की पहली महिला सांसद सुभद्रा जोशी
चुनावों की चाल, चेहरा और चरित्र अब बिल्कुल बदल चुका है। ऐसे में कुछ चुनाव अनायास यादों में उभरने लगते हैं। हरियाणा-पंजाब के लोग तो अब यह भी भूल चुके हैं कि देश की पहली महिला सांसद भी उन्हीं के क्षेत्र से दिल्ली पहुंची थी और वह सांसद थी सुभद्रा जोशी। वर्ष 1952 में उन्होंने करनाल संसदीय सीट से पहला चुनाव जीता था। लगभग 25 बरस पहले से उनसे भेंट का एक अवसर मिला था। तब उन्होंने बताया था कि उनकी उम्र की समूची राजनीति दिल्ली व उत्तर प्रदेश में केंद्रित रही, मगर वह विशुद्ध पंजाबन थी। जन्म सियालकोट (वर्तमान पाकिस्तान) में वर्ष 1919 में हुआ था।
भेंट के मध्य उन्होंने खराब स्वास्थ्य के बावजूद बताया कि उन दिनों करनाल संसदीय क्षेत्र अम्बाला-शिमला तक फैला हुआ था और तत्कालीन कांग्रेस पार्टी चुनाव लड़ने के लिए केवल दो हजार रुपए और एक जीप दिया करती थी। केवल एक वाहन और सीमित पैट्रोल-राशि के सहारे उतने बड़े संसदीय क्षेत्र में घर-घर जाना भी संभव नहीं हो पाता था। मगर 'मैंने तब भी 230 रुपए बचा लिए थे और नियमानुसार वह राशि कांग्रेस-मुख्यालय में जमा कराई थी।
सुभद्रा जोशी ने लाहौर के ही एफसी कॉलेज से स्नातक की डिग्री ली थी। विचारों से हद दर्जे की प्रगतिशील थीं। पिता जयपुर राजघराने में पुलिस अधिकारी थे। मगर चुनावी जिंदगी में उन्होंने तीन प्रदेशों का प्रतिनिधित्व किया था। करनाल के बाद उन्होंने एक चुनाव चांदनी चौक दिल्ली से भी जीता था। उससे पूर्व वह उत्तर प्रदेश के बलरामपुर संसदीय क्षेत्र से भी दिग्गज नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी को हराकर लोकसभा में पहुंची थीं लेकिन अगली बार श्री वाजपेयी ने ही उन्हें उसी क्षेत्र से पराजित किया था। वह बतातीं, ‘विरोधी शिविर के बावजूद वह अटल जी के प्रति श्रद्धाभाव व प्रशंसा भाव भी रखती रही। उन्होंने ही बताया था कि एक बार अस्वस्थ हुई तो अटल जी स्वयं कुशलमंगल जानने दो बार चले आए थे।’
उन्होंने ही उन चुनावों की सादगी के बारे में बताया था कि श्री लाल बहादुर शास्त्री को उनके साथ फूलपुर क्षेत्र में चुनाव लड़ने के लिए पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया था। उन्हें भी वही दो हजार रुपए थमाए गए थे और साथ में एक पुरानी जीप। चुनावों के बाद शास्त्री जी ने 800 रुपए पार्टी कार्यालय में जमा कर दिए थे, यह कहते हुए कि यह राशि खर्च ही नहीं हो पाई।
उन्होंने यह भी बताया था कि एक बार उन्हीं के उस करनाल संसदीय क्षेत्र से एक संन्यासी स्वामी रामेश्वरनंद ने भी चुनाव लड़ा था। तब उनके मुकाबले में उन्हीं के एक आर्यसमाजी शिष्य एवं वरिष्ठ पत्रकार श्री वीरेंद्र कांग्रेस के प्रत्याशी थे। तब वह एक बार उस क्षेत्र में गई भी थीं। तब स्वामी जी जीत गए थे। दोनों के चुनाव कार्यालयों में प्रतिदिन हवन भी होते थे। अब चुनावों का चाल-चरित्र-चेहरा पूरी तरह बदल चुका है। वर्ष 1951-52 के पहले चुनावों के समय राष्ट्रीय दलों की संख्या 14 थी। अब केवल सात मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय दल बचे हैं। पहला चुनाव क्षेत्रीय व राष्ट्रीय मिलाकर कुल 53 दलों ने लड़ा था। इनमें आचार्य करपात्री की रामराज्य परिषद भी थी और जम्मू-कश्मीर व पंजाब की प्रजा परिषद भी थी।
अब कुल 2500 के लगभग दल हैं लेकिन कुछ दल तो अपना चेहरा भी गंवा चुके हैं। पहला चुनाव कुल 53 राजनीतिक दलों ने लड़ा था जिनमें से 14 को ‘राष्ट्रीय दल’ के रूप में मान्यता दी गई थी। वहीं बाकी को ‘राज्य स्तरीय दल’ माना गया। देश के चुनावी सफर को दस्तावेजी रूप देते हुए निर्वाचन आयोग (ईसीआई) द्वारा जारी पुस्तिका ‘लीप आफ फेथ’ के अनुसार, 1953 तक देश में चार राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल ही रह गए थे जिनमें कांग्रेस, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (सोशलिस्ट पार्टी और किसान मजदूर पार्टी के विलय से बनी), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) और जनसंघ थे। अखिल भारतीय हिन्दू महासभा (एचएमएस), रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी), आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक (मार्क्सवादी समूह) और आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक (रुईकर समूह) समेत कुछ दलों ने अपनी राष्ट्रीय मान्यता गंवा दी। दूसरे चुनाव (1957 में) राजनीतिक दलों की संख्या कम होकर 15 रह गई जबकि राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों की संख्या चार रही। देश में पहले चुनाव के बाद लम्बे समय तक कांग्रेस का प्रभुत्व कायम रहा और उसने 2014 तक देश में हुए 14 चुनावों में से 11 जीते। वर्ष 1951 के लोकसभा चुनाव के बाद अगले दो चुनाव में भाकपा प्रमुख विपक्षी दल रहा। हालांकि, 1964 में पार्टी सोवियत और चीनी कम्युनिस्ट विचार वाले धड़ों में बंट गई और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का गठन हुआ।
बाजार अनुसंधान और सर्वेक्षण से जुड़ी कंपनी ‘एक्सिस माई इंडिया’ के प्रमुख प्रदीप गुप्ता ने कहा-सोशलिस्ट माई इंडिया के प्रमुख प्रदीप गुप्ता ने कहा है, सोशलिस्ट पार्टी की जड़ें कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में थीं, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर एक वामपंथी गुट था और जिसका गठन जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और आचार्य नरेंद्र देव ने किया था। यह आजादी के तुरंत बाद सोशलिस्ट पार्टी से अलग हो गई थी।
- डॉ. चन्द्र त्रिखा